Friday, June 28, 2019

अलविदा गिरीश कारनाड : जनपक्षीय संस्कृति की रूह का चले जाना


अलविदा गिरीश कारनाड!
जनपक्षीय संस्कृति की रूह का चले जाना
बहुमुखी प्रतिभावान, बहु-भाषिए, लेखक, नाटककार, अभिनेता, निर्देशक, कवि, अनुवादक, पटकथा लेखक, मुखर सामाजिक एक्टिविस्ट और एक बेहतरीन इंसान, गिरीश कारनाड का पिछली जून 10 को बेंगलुरु में उनके आवास पर निधन हो गया। वे 81 वर्ष के थे। उनकी मौत पर कर्नाटक सरकार ने उनकी अंतेष्टी राजकीय सम्मान के साथ करने की घोषणा की लेकिन परिवार ने गिरीश की इच्छा के अनुसार इसे पूरे तौर पर परिवार तक सीमित रखा। काम के प्रति वे किस हद जुनूनी थे इस का अंदाज़ा इस बात से किया जा सकता है की गंभीर रूप से बीमार होने के बावजूद, मौत से एक दिन पहले तक उन्हों ने लेखक-अनुवादक अर्शिया सत्तार के साथ मौखिक साक्षात्कार रिकॉर्ड कराए थे।
उनकी मौत के साथ आधुनिक भारतीय रंगमंच का वह सुनहरी दौर लगभग समाप्त होता है जिसका आग़ाज़ उनके, बादल सरकार, मोहन राकेश और विजय तेंदुलकर के नाटकों दुवारा हुवा था। यह जानना रोचक होगा की वे अंग्रेज़ी भाषा के कवि बनने की ख़्वाहिश लिए ऑक्सफ़र्ड यूनिवर्सिटी, इंग्लैंड गए थे लेकिन पानी के जहाज़ पर सफर के दौरान उन्हों ने अपना पहला नाटक 'ययाति' (1961) लिख डाला जो महाभारत के एक मिथक पर केंद्रित था। 'ययाति' कैसे लिखा गया इस के बारे में चर्चा करते हुवे एक साक्षात्कार में उन्हों ने बताया था की उन्हें ऐसा लगा की "उनके कानों में संवाद बोले जा रहे हैं और वे तो केवल लिपिबद्ध कर रहे हैं।"   
वे 26 साल के थे जब उन्हों ने आधुनिक भारतीय नाट्य इतिहास में मील का पत्थर बन गए नाटक 'तुग़लक़' (1964) रचा। इस नाटक के केंद्र में 14वीं शताब्दी का शासक सुल्तान मोहम्मद-बिन-तुग़लक (1325-1351) था जो फ़ारसी, अरबी, संस्कृत और तुर्की भाषाओँ का माहिर होने के साथ लीक से हटकर कुछ करना चाहता था। 'तुग़लक़' में सुल्तान को कोई ख़ब्ती शासक न दर्शा कर एक ऐसे आदर्शवादी राजा के तौर पर चित्रित किया गया जो अपनी प्रजा को सुरक्षा और धार्मिक सौहार्द का माहौल उपलब्ध करना चाहता था।  वह इस लिए नाकाम हुवा कियों की उसके आदर्श ज़मीनी सच्चाई से मेल नहीं कहाते थे। कुछ समीक्षकों का यह भी मन्ना है की यह नाटक वास्तविकता में जवाहरलाल नेहरु शासन पर था जो आज़ादी के समय किये गए वादों पर खरा नहीं उतरा था।  याद रहे भारतीय प्रजातंत्र दुवारा किये गए इसी विश्वासघात से विचलित होकर रचनाकारों ने नई कहानी/नई कविता और नुक्कड़ नाटक आंदोलनों को जनम दिया।
गिरीश ने मूल रूप से यह नाटक कन्नड़ भाषा में लिखा था। इस का पहला मंचन उर्दू में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दुवारा एक छात्र परस्तुति के रूप में दिल्ली में 1966 में किया गया, जो बहुत सराहा गया। इस की विख्यात प्रस्तुति पुराने क़िले के विशाल मुख्य दुवार को स्टेज बनाकर 1972 में की गयी जिसमें प्रसिद्ध रंगकर्मी मनोहर सिंह ने तुग़लक़ का बेमिसाल और कभी न भुलायेजाने वाला रोले अदा किया। 1970 में इस नाटक को अंग्रेजी में बंबई में खेला गया।
इस के बाद इस नाटक की प्रस्तुतियों की झड़ी लग गयी और देश की विभिन्न भाषाओँ में इस को लगातार खेला गया। 1982 में इसे लंदन में प्रस्तुत किया गया जहाँ ज़बरदस्त मक़बूलियत हासिल होई। 'तुग़लक़' ने 26 वर्ष की आयु में ही गिरीश को देश का पहली पंक्ति का नाटककार के तौर पर स्थापित कर दिया। इस वाहवाही ने गिरीश के रचना कर्म को मद्धिम नहीं किया बल्कि और तेज़ कर दिया।  उन्हों ने एक के बाद एक बौद्धिक तौर पर झिंझोड़ने वाले यादगार नाटक, जैस की, 'हयवदन' (हयवदन स्त्रीपुरुष के आधेअधूरेपन की त्रासदी, 1972), 'अंजु मल्लिगे' (ख़ौफ़ज़दा मोगरे का फूल, 1977), 'बलि-हित्तिना हुंजा' (बलि, 1980), 'नागमंडल' (कोबरा खेल, 1988), 'तलेडंडा' (रक्त कल्याण 1990), 'अग्नि मत्तू माले' (अग्नि और वर्षा, 995) 'टीपू सुल्तान कांडा कानासू' (टीपू सुल्तान के सपने, 1997), 'ओदाकालू बिम्बा' (बिखरे बिम्ब, 2006), 'माडुवे एल्बम' (शादी का एल्बम, 2006, 'फ़्लोवेर्स' (फूल, 2012) और 'बैनडा कालू ऑन टोस्ट' (टोस्ट पर उबली हुई फलियां, 2012) लिखे। उन्हों ने अपने कई नाटक अंग्रेजी में भी अनुवाद किए जो विश्वभर में खेले गए और विख्यात हुवे।
आधुनिक भारतीय सिनेमा जगत में उन्हों ने कमर्शियल सिनेमा के विपरीत एक समानांतर फिल्म आंदोलन की नींव रखी जिस की शुरुआत श्याम बेनेगल दुवारा निर्देशित फिल्मों, 'निशांत' और 'मंथन' से हुयी। उन्हों ने फिल्मों में एक अदाकार के तौर पर अपना सफ़र 1970 में साथी कन्नड़ लेखक यू.आर. अनंतमूर्ति के उपन्यास पर आधारित फ़िल्म 'समस्कार' से किया जिस की पठकथा भी उन्हों ने ही लिखी थी। उन्हों ने कन्नड़, तमिल, तेलगु, हिंदी, मराठी, मलयालम भाषाओँ की 97 फिल्मों में असरदार किरदार निभाए। भारतीय सिनेमा के इतिहास में गिरीश कर्नाड की तरह के बहुमुखी अदाकार की कोई दूसरी मिसाल मुश्किल से ही मिल सकती है।      
एक नाट्य लेखक के तौर पर गिरीश ने अपने नाटकों में भारतीय इतिहास, प्राचीन मिथक और लोक कथाओं का भरपूर इस्तेमाल किया। उनका यह मानना था की रूढ़िवादी और धार्मिक कट्टरवादी शक्तियां इन  सब का मनमाना प्रयोग इस तरह करती हैं मानो इन सब में कोई विरोध का स्वर नहीं था, लोगों में किसी तरह की चेतना नहीं थी। वे इतिहास का सहारा लेकर आज़ाद भारत की प्रजातान्त्रिक और धर्म-निरपेक्ष वयवस्था के सामने जो संकट थे उन का हल खोजने की कोशिश में लगे रहे।  
'कला अराजनैतिक होती है' गिरीश इस फ़लसफ़े के ज़बरदस्त विरोधी थे। उनका लेखन इस सच्चाई का जीताजागता उधारण था । एक बुद्धजीवी के तौर पर भी वे हिन्दुत्वादी कट्टरवाद और राज्य की दमनकारी नीतियों के ख़िलाफ़ विरोध में सड़क पर निकलने से भी गुरेज़ नहीं करते थे। प्रसिद्द कन्नड़ विद्वान, ऍम. ऍम. कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या  के खिलाफ वे विरोध प्रदर्शनों में शामिल हुए । पिछले साल जब सरकार ने कई प्रमुख वकीलों, सामाजिक एक्टिविस्ट और बुद्धिजीवियों को गिरफ्तार किया तो वे ऑक्सीजन सिलेंडर के साथ व्हील-चेयर पर 'मैं भी अर्बन नक्सल' की तख्ती लिए विरोध में बाहर आये। यही वजह थी की जब भारत और विश्व कला जगत इस महान कलाकार और रचनाकार की मौत के ग़म में डूबा था सोशल मीडिया पर हिन्दुत्वादी तत्व 'अच्छा छुटकारा' और 'एक कम्युनिस्ट के बिना देश बेहतर रहेगा' जैसे पोस्ट लगा रहे थे। यद् रहे की हिन्दुत्वादी कट्टरपंथियों ने जो 'हिट-लिस्ट' बनाई थी,  उस में गिरीश का नाम भी शामिल था।   
गिरीश की मौत की खबर से देश का सांस्कृतिक जगत शोक में डूब गया। देश के शहरों और क़स्बों में शोक सभाएं आयोजित की गयीं।  उनके साथ जिन लोगों ने काम किया था उन्हों ने गिरीश के महान योगदान के जाने और अनजाने पहलुओं का ज़िक्र करते हुवे उन्हें याद किया। गिरीश के क़रीबी दोस्त और कला के क्षेत्र में सहभागी, इतिहासकार रामचंदर गुहा ने उन्हें कला की दुनिया का 'महापुरुष' बताते हुवे इस सच्चाई को रेखांकित किया की वे "इस मायने में विशिष्ट थे कि उन्हों ने भारतीय कलाओं, संस्कृति और सभ्यता की विभिन्ता और फैलाव का अध्ययन किया था। उनमें यह हुनर था की वे उत्तर भारत को दक्षिण भारत, लोक को क्लासिकी और लोकप्रिय को विद्धता, से जोड़ सकते थे। वे 6 भाषाएं (कन्नड़, तमिल, तेलगु, मलयालम, हिंदी और मराठी) जानते थे।"
शबाना आज़मी जिन्हों ने गिरीश कर्नाड के साथ मिलकर बेहतरीन फ़िल्में (अंकुर, निशांत, स्वामी, चॉक एंड डस्टर) दीं 'अलविदा प्यारे दोस्त' शीर्षक से अपनी श्रद्धांजलि में लिखा की उनसे मेरी मुलाक़ात 1974 हुई थी जब वे श्याम बेनेगल की फ़िल्म अंकुर में काम कर रही थीं। शबाना ने आखरीबार उनके अंग्रेजी नाटक 'ब्रोकन इमेजेज़' में 2016 में काम किया था जब वे गंभीर रूप से बीमार थे लेकिन एक सचेत नागरिक के तोर वे लगन और प्रतिबद्धता से भरपूर थे। वे किसी भी क़िस्म की संकीर्णता और बदले की भावना से परे एक शानदार इंसान थे। जब वे पुणे फिल्म संसथान [FTII] के निर्देशक थे तो छात्रों ने नसीरुद्दीन शाह के नेतृत्व में हड़ताल करदी। इस दौरान गिरीश और शाह के बीच काफी कहासुनी भी हुई।  इस सब के बावजूद यह गिरीश ही थे जिन्हों ने श्याम बेनेगल को उनकी नई फिल्म निशांत के लिए शाह का नाम महत्तपूर्ण भूमिका के लिए सुझाया।  इतिहास इस बात का गवाह है की निशांत ने शाह के फ़िल्मी सफ़र को एक शानदार शरुआत दी और उन्हें एक बेहतरीन अभिनेता के तौर पहचान दिलाई।
यहां यह याद करना भी ज़रूरी है कि वे पुणे फिल्म संसथान के आज तक के इतिहास में सब से काम आयु (35 साल) के निदेशक थे। दिलचस्प बात यह हे कि कई छात्र उनसे ज़्यादा उम्र वाले थे।
शाह ने गिरीश कारनाड को याद करते हुवे कहा की "मैं ने उन्हें बहुत ज़्यादा परेशान किया था। जब फिल्म संसथान बंद हो गया उन्हों ने मेरा एक नाटक देखा और श्याम बेनेगल को मेरा नाम तजवीज़ किया। मैं इस के लिए हमेशा-हमेशा ऋणी और अहसानमंद रहूंगा।"    
श्याम बेनेगल जिन्हों ने गिरीश के साथ अर्ध-शताब्दी से भी ज़्यादा फ़िल्मी सफ़र सहकर्मी के तौर पर जिया था, मौत की ख़बर सुनकर स्तब्ध रहगए और कहा की वे बोलने की स्तिथि में नहीं हैं।
प्रसिद्ध गायिका लता मंगेशकर ने गिरीश को एक क़ाबिल अभिनेता, निर्देशक और लेखक के तौर पर याद करते हुवे उनकी मौत पर गहरा दुःख वयक्त किया। अभिनेता और फ़िल्मकार अमोल पालेकर ने उन्हें याद करते हुवे कहा की गिरीश कर्नाड की मौत उनके लिए कई स्त्रों पर जैसे की सांस्कृतिक, बौद्धिक और राजनैतिक, अपूरणीय क्षति है।  वयवस्था के अत्याचारों के विरुद्ध कुछ ही कलाकार आवाज़ बुलंद करने की हिम्मत दिखाते हैं और गिरीश उनमें से एक थे। इस महान व्यक्ति की याद में हम सब को सर झुकाना चाहिए।
गिरीश के पत्रकार बेटे, रघु कारनाड ने अपने 'अप्पा' को एक ऐसा सांस्कृतिक कर्मी बताया जो " थोड़ा इतिहास, थोड़ा दंतकथा, थोड़ा गीत, थोड़ा लोककथाएं और दर्शन से शिष्टता पूर्वक सराबोर थे।"    
कला और संस्कृति के क्षेत्र में महत्पूर्ण योगदान के लिए उन्हें 1974 में पद्मश्री और 1992 में पद्मभूषण प्रदान किया गए । कालिदास सम्मान 1998 में और 1999 में देश के साहित्य और कला के क्षेत्रों में उनके महान योगदान के लिए मशहूर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाज़ा गया था । फिल्मों में अभूतपूर्ण योगदान के लिए उन्हें 10 राष्ट्रीय पुरस्कार दिए गए। 
शम्सुल इस्लाम
Email: notoinjustice@gmail.com

 'आउटलुक'  15 जुलाई, 2019 के अंक में प्रकाशित
https://www.outlookhindi.com/story/1826

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