दिसंबर
6, 1992 को
हिन्दुत्वादी आतंकवादियों ने अयोध्या में क्या किया था?
इस
दुखद सच को झुटलाना मुश्किल है कि हमारा देश जिस को दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र
माना जाता है वहां दो तरह की न्यायक पद्धतियांकाम करती हैं। एक है जब बहुमत धर्म
और ऊंची जातियों से जुड़े लोग/संगठन अल्पसंखयकों और दलितों के खिलाफ हिंसा करते हैं
तो हिंसा करने वाले मुजरिमों को सज़ा मिलना
तो दूर की बात है उनकी पहचान भी नहीं हो पाती है।
यह चाहे बांग्ला भाषी मुसलमानों का नेल्ली जनसंहार (1983), सिख जनसंहार (1984०), बाबरी मस्जिद के विध्वंस (से पहले और
बाद में 1992-93 के दौरान मुसलमान विरोधी हिंसा), गुजरात जनसंहार (2002), कंधमाल ईसाई जनसंहार (2007) या दलितों
के अनगिनित जनसंहारों में से कुछ जैसे कि बथानी टोला (1996),लक्ष्मणपुर बाथे (1997), मिर्चपुर (2010) खैरलांजी (2006) किलवेलमानी (1968) किलविलमणिहों। क़ातिलों,
बलात्कारियों और लुटेरों की पहचान नहीं
हो पाती है और राज्य आयोग पर आयोग बिठाकर अल्पसंखयक और दलित विरोधी जनसंहारों को
रफ़ा-दफ़ा करने के काम में ही जुटा रहता है।
लेकिन
अगर अल्पसंखयकों या दलितों दुवारा 'हिंसा'
की गयी हो तो तुरंत फांसी और उम्रक़ैद दे
कर 'इंसाफ़' किया जाता है।
यही
खेल बाबरी मस्जिद के विध्वंस वाले मामले में खेला जा रहा है। 25 साल के बाद भी
मस्जिद के गिराने वालों जिन्हों ने ऐलान करके इसे गिराया था को सज़ा नहीं दी गयी
बल्कि वे देश के प्रधान-मंत्री, उप
प्रधान मंत्री और मंत्री बने। इस के बरअक्स
मस्जिद की मिल्कियत को लेकर क़ानूनी लड़ाई की जा रही है।
दिसंबर
6, 1992 के दिन अयोध्या में
मस्जिद और मुसलमानों के साथ किया हुवा था इस को जानना ज़रूरी है। देश की
प्रजांतरिक-धर्मनिरपेक्ष वयवस्था के साथ हिन्दुत्वादी संगठनों ने जो शर्मनाक खेल
खेला था उस की एक रपट पेश है जो नीलिमा शर्मा और शम्सुल इस्लाम ने बाबरी विध्वंस
के एक महीने बाद वहां जाकर तैयार की थी।
यह
रपट जनवरी 31, 1993 को
दैनिक जनसत्ता में छपी थी।
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