Wednesday, August 27, 2025

 

एनसीईआरटी की 'विभाजन विभीषिका’

अंग्रेज शासकों-हिंदू महासभा-आरएसएस के अपराधों पर पर्दा डालने की बेशर्म कोशिश

  

शिक्षा से जुड़ी एक प्रचलित कहावत है कि अगर किसी अयोग्य व्यक्ति को शिक्षक नियुक्त किया जाता है, तो छात्रों की कई पीढ़ियों का शैक्षणिक जीवन बर्बाद हो जाता है। और जब ऐसे कई सारे शिक्षक एक जगह हों तो विद्यार्थियों और शिक्षा का भविष्य क्या होगा, यह समझना मुश्किल नहीं है।

हाल ही में, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने "विभाजन विभीषिका" शीर्षक से एक "विशेष मॉड्यूल" जारी किया है। इस मॉड्यूल (अनुभाग) को कक्षा 6 से 8 (मध्य स्तर) के लिए एक पूरक संसाधन के रूप में वर्णित किया गया है – जो नियमित पाठ्यपुस्तकों का हिस्सा नहीं है – और इसका उपयोग परियोजनाओं, पोस्टरों, चर्चाओं और बहसों के लिए किया जाना है। वास्तव में, यह भारत के विभाजन के दोषियों/संगठनों की खोज के लिए पूरक संसाधन सामग्री नहीं है, जैसा कि दावा किया गया है, बल्कि यह आरएसएस के आकाओं की इच्छानुसार एक सांप्रदायिक आख्यान प्रस्तुत करता है।

एनसीईआरटी ने इसे 14 अगस्त, 2025 को "विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस", जिस का आह्वान प्रधानमंत्री मोदी ने 2021 में किया था, ​​का पालन करते हुए जारी किया गया।  प्रधानमंत्री के आह्वान के अनुसार: "विभाजन के दर्द को कभी भुलाया नहीं जा सकता। हमारे लाखों बहन-भाई विस्थापित हुए, और कई लोगों ने नासमझ नफरत और हिंसा के कारण अपनी जान गंवाई। हमारे लोगों के संघर्षों और बलिदानों की स्मृति में, 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के रूप में मनाया जाएगा।" [प्रष्ठ 3]

पूरा दस्तावेज़ छल-कपट, विरोधाभासों और झूठ से भरा है, जिसका उद्देश्य विभाजन के बारे में सच बताने के बजाए, उससे कहीं ज़्यादा छिपाना लगता है। एनसीईआरटी के झूठ को हम निम्नलिखित भागों में बाँट सकते हैं।

झूठ 1: मुस्लिम लीग के नेता जिन्ना और राजनीतिक इस्लाम ने दो-राष्ट्र सिद्धांत की नींव रखी।

दस्तावेज़ में कहा गया है कि "विभाजन मुख्यतः त्रुटिपूर्ण विचारों, भ्रांतियों और गलत निर्णयों का परिणाम था।" भारतीय मुसलमानों की पार्टी, मुस्लिम लीग ने 1940 में लाहौर में एक सम्मेलन आयोजित किया। इसके नेता, मुहम्मद अली जिन्ना ने कहा कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग धार्मिक दर्शन, सामाजिक रीति-रिवाजों और साहित्य से संबंधित हैं। [पृष्ठ 5]

मॉड्यूल विभाजन का कारण मुस्लिम नेताओं की "राजनीतिक इस्लाम" में निहित एक अलग पहचान में विश्वास को भी बताता है। यह इस बात पर ज़ोर देता है कि "धर्म, संस्कृति, रीति-रिवाजों, इतिहास, प्रेरणा स्रोतों और विश्वदृष्टि के आधार पर, मुस्लिम नेताओं ने खुद को हिंदुओं से मौलिक रूप से अलग बताया। इसकी जड़ राजनीतिक इस्लाम की विचारधारा में निहित है, जो गैर-मुसलमानों के साथ किसी भी स्थायी या समान संबंध की संभावना को नकारती है।" [पृष्ठ 6]

यह सच है कि मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने भारत के एक राष्ट्र न होने में अपनी दृढ़ आस्था व्यक्त की थी। उनका तर्क था कि,

“हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग धार्मिक दर्शन, सामाजिक रीति-रिवाजों और साहित्य से जुड़े हैं। वे न तो आपस में विवाह करते हैं और न ही एक साथ भोजन करते हैं, और वास्तव में वे दो अलग-अलग सभ्यताओं से संबंधित हैं जो मुख्यतः परस्पर विरोधी विचारों और अवधारणाओं पर आधारित हैं। जीवन और जीवन के बारे में उनके विचार अलग-अलग हैं। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि हिंदू और मुसलमान इतिहास के विभिन्न स्रोतों से प्रेरणा प्राप्त करते हैं। उनके अलग-अलग महाकाव्य हैं, उनके नायक अलग हैं, और अलग-अलग प्रसंग हैं। अक्सर एक का नायक दूसरे का शत्रु होता है, और इसी तरह उनकी जीत और हार में विरोधाभास दिखाई पड़ता है।”

सच जो छुपाए गए

दो-राष्ट्र सिद्धांत के बचाव में जिन्ना का यह कथन इस संक्षिप्त दस्तावेज़ में दो बार (पृष्ठ 5  और 6) दोहराया गया है, लेकिन लेखक बेशर्मी से यह बात छुपाते हैं कि हिंदू महासभा और आरएसएस से जुड़े हिंदू-राष्ट्रवादी, जिन्ना के बयान से दशकों पहले से अहंकार-भरे अंदाज़ में हिन्दू मुसलमानों के भिन्न राष्ट्र होने के बारे में जता रहे थे।

बंगाल के उच्च जाति के हिंदू राष्ट्रवादियों ने दो-राष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन किया।

दो-राष्ट्र सिद्धांत के मुस्लिम समर्थकों के आगमन से बहुत पहले, 19वीं शताब्दी के अंत में बंगाल में उच्च जाति के हिंदू राष्ट्रवादियों ने इस सिद्धांत को आगे बढ़ाया था। अरबिंदो घोष के नाना, राज नारायण बसु (1826-1899) और उनके निकट सहयोगी नाबा गोपाल मित्रा (1840-94) भारत में दो-राष्ट्र सिद्धांत और हिंदू राष्ट्रवाद के सह-जनक थे। बसु ने हिंदुओं की ऊंची जातियों के शिक्षित लोगों में राष्ट्रीय भावनाओं को बढ़ावा देने के लिए एक संगठन की स्थापना की, जो वास्तव में हिंदू धर्म की श्रेष्ठता का प्रचार करता था। उन्होंने सभाएँ आयोजित कीं और घोषणा की कि हिंदू धर्म अपनी जातिवादिता के बावजूद, ईसाई या इस्लामी सभ्यता द्वारा प्राप्त सामाजिक आदर्शवाद से कहीं अधिक उच्चतर है।

बसु अखिल भारतीय हिंदू संघ की परिकल्पना प्रस्तुत करने वाले पहले व्यक्ति थे और उन्होंने हिंदू महासभा के पूर्ववर्ती भारत धर्म महामंडल के गठन में सहायता की। उनका मानना ​​था कि इस संगठन के माध्यम से हिंदू भारत में एक आर्य राष्ट्र की स्थापना कर सकेंगे। उन्होंने एक शक्तिशाली हिंदू राष्ट्र की कल्पना की जो न केवल भारत, बल्कि पूरे विश्व पर छा जाएगा। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि,

"[यह] महान और शक्तिशाली हिंदू राष्ट्र नींद से जाग रहा है और दिव्य पराक्रम के साथ प्रगति की ओर तेजी से बढ़ रहा है। मैं इस पुनर्जीवित राष्ट्र को अपने ज्ञान, आध्यात्मिकता और संस्कृति से फिर से दुनिया को प्रज्वलित करते हुए और हिंदू राष्ट्र की महिमा को फिर से पूरे विश्व में फैलते हुए देख रहा हूँ।"

[Cited in Majumdar, R. C., History of the Freedom Movement in India, vol. I, Firma KL Mukhpadhyay, Calcutta, 1971, pp. 295–296.]

नाबा गोपाल मित्रा ने एक वार्षिक हिंदू मेला का आयोजन भी शुरू किया। यह प्रत्येक बंगाली वर्ष के अंतिम दिन आयोजित होने वाला एक समागम हुआ करता था और हिंदू बंगाली जीवन के सभी पहलुओं के हिंदू स्वरूप पर प्रकाश डालता था। यह आयोजन 1867 से 1880 तक निर्बाध रूप से जारी रहा। मित्रा ने हिंदुओं में एकता और राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ावा देने के लिए एक राष्ट्रीय संस्था और एक राष्ट्रीय पत्र भी शुरू किया। मित्रा ने अपने पत्र में तर्क दिया कि हिंदू स्वयं एक राष्ट्र का निर्माण करते हैं। उनके अनुसार,

“भारत में राष्ट्रीय एकता का आधार हिंदू धर्म है। हिंदू राष्ट्रीयता भारत के सभी हिंदुओं को, चाहे वे किसी भी इलाके या भाषा के हों, अपने में समाहित करती है।”

[Cited in Majumdar, R. C., Three Phases of India’s Struggle for Freedom (Bombay: Bharatiya Vidya Bhavan, 1961), p. 8.]

हिंदुत्ववादी बुद्धिजीवियों के प्रिय और बंगाल में हिंदू राष्ट्रवाद के उदय के एक प्रमुख शोधकर्ता आर. सी. मजूमदार को इस सत्य तक पहुँचने में कोई कठिनाई नहीं हुई कि,

“नाबा गोपाल ने जिन्ना के दो राष्ट्रों के सिद्धांत को आधी सदी से भी ज़्यादा समय तक रोके रखा...[और तब से] जाने-अनजाने में, हिंदू चरित्र पूरे भारत में राष्ट्रवाद पर गहराई से अंकित हो गया।” [वही]

दो राष्ट्रीय सिद्धांत के विकास में आर्य समाज की भूमिका

उत्तर भारत में आर्य समाज (1875 में स्थापित) ने आक्रामक रूप से यह प्रचार किया कि भारत में हिंदू और मुस्लिम समुदाय वास्तव में दो अलग-अलग राष्ट्र हैं। उत्तर भारत में आर्य समाज के एक प्रमुख नेता, भाई परमानंद (1876-1947), जो हिंदू महासभा के भी नेता थे, ने हिंदुओं और मुसलमानों को दो राष्ट्र घोषित किया। यक़ीनन जिन्ना ने अपने मार्च 1940 में लाहौर में दिए भाषण का दर्शन, जिसे एनसीईआरटी मॉड्यूल में उद्धृत किया गया है, भाई परमानंद के निम्नलिखित कथन से ही उधार लिया था,

"इतिहास में हिंदू पृथ्वी राज, प्रताप, शिवाजी और बेरागी बीर की स्मृति का सम्मान करते हैं, जिन्होंने इस भूमि के सम्मान और स्वतंत्रता के लिए (मुसलमानों के खिलाफ) लड़ाई लड़ी, जबकि मुसलमान भारत के आक्रमणकारियों, जैसे मुहम्मद बिन कासिम और औरंगजेब जैसे शासकों को अपना राष्ट्रीय नायक मानते हैं... [जबकि] धार्मिक क्षेत्र में, हिंदू रामायण, महाभारत और गीता से प्रेरणा लेते हैं। दूसरी ओर, मुसलमान कुरान और हदीस से प्रेरणा लेते हैं। इस प्रकार, जो चीजें विभाजित करती हैं, वे एकजुट करने वाली चीजों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं।"

[Parmanand, Bhai in pamphlet titled, ‘The Hindu National Movement’, cited in B.R. Ambedkar, Pakistan or the Partition of India (Bombay: Government of Maharashtra, 1990), 35–36, first Published December 1940, Thackers Publishers, Bombay.] 

भाई परमानंद ने 1908-09 में ही दो विशिष्ट क्षेत्रों में हिंदू और मुस्लिम आबादी के पूर्ण आदान-प्रदान की मांग की थी। उनकी योजना के अनुसार, जिसका विवरण उनकी आत्मकथा में दिया गया है,

"सिंध के पार के क्षेत्र को अफ़ग़ानिस्तान और उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत के साथ मिलाकर एक महान मुसलमान राज्य बनाया जाना चाहिए। इस क्षेत्र के हिंदुओं को चले जाना चाहिए, जबकि साथ ही शेष भारत के मुसलमानों को इस क्षेत्र में आकर बसना चाहिए।"

[Parmanand, Bhai, The Story of My Life, S. Chand, Delhi, 1982, p. 36.]

आर्य समाज के एक अन्य प्रखर नेता लाल लाजपत राय (1865-1928) ने 1924 में भारत का विभाजन मुस्लिम भारत और ग़ैर-मुस्लिम भारत में करने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने अपने दो-राष्ट्र सिद्धांत को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया:

"मेरी योजना के अनुसार मुसलमानों के चार मुस्लिम राज्य होंगे: (1) उत्तर-पश्चिमी सीमांत का पठान प्रांत (2) पश्चिमी पंजाब (3) सिंध और (4) पूर्वी बंगाल। यदि भारत के किसी अन्य भाग में संगठित मुस्लिम समुदाय हैं, जो एक प्रांत बनाने के लिए पर्याप्त बड़े हैं, तो उन्हें भी इसी प्रकार गठित किया जाना चाहिए। लेकिन यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि यह एक अखंड भारत नहीं है। इसका अर्थ है भारत का एक मुस्लिम भारत और एक गैर-मुस्लिम भारत में स्पष्ट विभाजन।"

[Rai, Lala Lajpat, ‘Hindu-Muslim Problem XI’, The Tribune, Lahore, December 14, 1924, p. 8.]

 

हिंदू राष्ट्रवादी मुंजे, लाला हरदयाल, सावरकर और गोलवलकर दो-राष्ट्र सिद्धांत के अग्रदूत थे

डॉ. बी. एस. मुंजे, हिंदू महासभा और आरएसएस के एक वरिष्ठ नेता थे, जिन्होंने मार्च 1940 में मुस्लिम लीग के पाकिस्तान प्रस्ताव से बहुत पहले हिंदू अलगाववाद का झंडा बुलंद किया था। 1923 में अवध हिंदू महासभा के तीसरे अधिवेशन को संबोधित करते हुए उन्होंने घोषणा की:

“जिस प्रकार इंग्लैंड अंग्रेजों का, फ्रांस फ्रांसीसियों का और जर्मनी जर्मनों का है, उसी प्रकार भारत हिंदुओं का है। यदि हिंदू संगठित हो जाएँ, तो वे अंग्रेजों और उनके पिट्ठुओं, मुसलमानों को कुचल सकते हैं...अब से हिंदू अपनी दुनिया का निर्माण करेंगे जो शुद्धि [शाब्दिक अर्थ शुद्धिकरण, यह शब्द मुसलमानों और ईसाइयों के हिंदू धर्म में धर्मांतरण के लिए प्रयुक्त होता था] और संगठन  के माध्यम से समृद्ध होगी।“

[Cited in Dhanki, J. S., Lala Lajpat Rai and Indian Nationalism, S Publications, Jullundur, 1990, p. 378.]

ग़दर पार्टी के एक जाने-माने नाम, लाला हरदयाल (1884-1938) ने भी, मुस्लिम लीग द्वारा मुसलमानों के लिए एक अलग मातृभूमि की माँग से बहुत पहले, न केवल भारत में एक हिंदू राष्ट्र के गठन की माँग की, बल्कि अफ़गानिस्तान पर विजय और उसके हिंदूकरण का आह्वान  किया। 1925 में कानपुर के हिन्दी अख़बार ‘प्रताप’ (संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी) में प्रकाशित एक महत्वपूर्ण राजनीतिक वक्तव्य में उन्होंने कहा:

“मैं घोषणा करता हूँ कि हिंदू जाति, हिंदुस्तान और पंजाब का भविष्य इन चार स्तंभों पर टिका है: (1) हिंदू संगठन, (2) हिंदू राज, (3) मुसलमानों की शुद्धि, और (4) अफ़ग़ानिस्तान और सीमा प्रांत (NWFP) पर विजय और शुद्धि। जब तक हिंदू राष्ट्र इन चार चीज़ोँ को पूरा नहीं करता, तब तक हमारे बच्चों और नाती-पोतों की सुरक्षा हमेशा खतरे में रहेगी, और हिंदू जाति की सुरक्षा असंभव होगी। हिंदू जाति का एक ही इतिहास है, और इसकी संस्थाएँ समरूप हैं। लेकिन मुसलमान और ईसाई हिंदुस्तान की सीमाओं से बहुत दूर हैं, क्योंकि उनके धर्म विदेशी हैं और वे फारसी, अरब और यूरोपीय संस्थाओं से प्रेम करते हैं।

“इस प्रकार, जिस प्रकार आँख से बाहरी पदार्थ को निकाल दिया जाता है, उसी प्रकार इन दोनों धर्मों की शुद्धि भी आवश्यक है। अफ़ग़ानिस्तान और सीमांत के पहाड़ी क्षेत्र पहले भारत का हिस्सा थे, लेकिन वर्तमान में इस्लाम के प्रभुत्व में हैं...जिस प्रकार नेपाल में हिंदू धर्म है, उसी प्रकार अफ़ग़ानिस्तान और सीमांत क्षेत्र में हिंदू संस्थाएँ भी होनी चाहिए; अन्यथा स्वराज प्राप्त करना व्यर्थ है।"

[Cited in Ambedkar, B. R., Pakistan or the Partition of India, Maharashtra Government, Bombay, 1990, p. 129.]

 

हिंदुत्व की राजनीति के प्रणेता, आरएसएस के 'वीर' वी. डी. सावरकर (1883-1966) ही थे जिन्होंने सबसे विस्तृत दो-राष्ट्र सिद्धांत विकसित किया। यह तथ्य नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए कि मुस्लिम लीग ने 1940 में अपना पाकिस्तान प्रस्ताव पारित किया था, लेकिन सावरकर ने उससे बहुत पहले दो-राष्ट्र सिद्धांत का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। 1937 में अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए, सावरकर ने स्पष्ट रूप से घोषणा की,

"वर्तमान स्थिति यह है कि भारत में दो विरोधी राष्ट्र एक साथ रह रहे हैं। कई बचकाने राजनेता यह मानकर गंभीर भूल करते हैं कि भारत पहले से ही एक सामंजस्यपूर्ण राष्ट्र के रूप में एकीकृत है, या केवल इच्छा मात्र से इसे इस प्रकार एकीकृत किया जा सकता है... आइए हम इन अप्रिय तथ्यों का साहसपूर्वक सामना करें। आज भारत को एकात्मक और समरूप राष्ट्र नहीं माना जा सकता, बल्कि इसके विपरीत, भारत में मुख्य रूप से दो राष्ट्र हैं: हिंदू और मुसलमान।"

[Samagar Savarkar Wangmaya (Collected Works of Savarkar), Hindu Mahasabha, Poona, 1963, p. 296.]

मुसलमानों और ईसाइयों के अलग राष्ट्र होने की 1937 की घोषणा कोई अचानक नहीं की गई  थी। सावरकर ने 1923 में ही अपनी विवादास्पद पुस्तक ‘हिंदुत्व’ में यह निर्णय दिया था:

"ईसाई और मुसलमान समुदायों को हिंदू नहीं माना जा सकता क्योंकि नए पंथ को अपनाने के बाद से वे समग्र रूप से हिंदू संस्कृति के वाहक नहीं रहे। वे हिंदू संस्कृति से बिल्कुल अलग एक सांस्कृतिक इकाई से जुड़े हैं, या ऐसा महसूस करते हैं। उनके नायक और वे जिन कि पूजा करते हैं, उनके मेले और उनके त्योहार, उनके आदर्श और जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण, अब हमारे साथ समान नहीं रहे।"

[Maratha [V. D. Savarkar], Hindutva, VV Kelkar, Nagpur, 1923, p. 88.]

एक लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत के जन्म के बाद भी आरएसएस दो-राष्ट्र सिद्धांत में कितनी गहरी आस्था रखता था, यह तब स्पष्ट हो गया जब स्वतंत्रता की पूर्व संध्या (14 अगस्त, 1947) पर आरएसएस के अंग्रेज़ी मुखपत्र, ऑर्गनाइज़र ने एक संपादकीय में दो-राष्ट्र सिद्धांत में अपने विश्वास की पुष्टि इन शब्दों में की:

"आइए अब हम स्वयं को राष्ट्रवाद की झूठी धारणाओं से प्रभावित न होने दें। अधिकांश मानसिक भ्रम और वर्तमान तथा भविष्य की परेशानियों को इस सरल तथ्य को स्वीकार करके दूर किया जा सकता है कि हिंदुस्थान [मुग़ल शासकों ने अपनी सल्तनत को हिंदुस्तान नाम दिया था जिसे आरएसएस ने हिंदुस्थान कर दिया] में केवल हिंदू ही राष्ट्र का निर्माण करते हैं और राष्ट्रीय संरचना का निर्माण उसी सुरक्षित और सुदृढ़ नींव पर होना चाहिए... राष्ट्र का निर्माण स्वयं हिंदुओं से, हिंदू परंपराओं, संस्कृति, विचारों और आकांक्षाओं पर होना चाहिए।"

'हिंदू' आख्यान ये स्पष्ट करते हैं कि दो-राष्ट्र सिद्धांत हिंदू राष्ट्रवादियों की देन था और विभाजन एक ऐसा प्राथमिक पवित्र कार्य था जिसे हिंदू राष्ट्रवादियों ने अपने ज़िम्मे लिया हुआ था। मॉड्यूल हमें यह बताने की ज़हमत नहीं उठाता कि इसे जिन्ना ने 1930 के दशक के अंत में ही अपनाया था। भारत के एक प्रमुख अंग्रेज़ी दैनिक ने अपने एक संपादकीय में इस सच की ओर ध्यान दिलाते लिखा:

"यह एक ऐसा सिद्धांत था जो जिन्ना से बहुत पहले अस्तित्व में आया था, जिसे उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में बंगाल में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय और बीसवीं सदी के आरंभ में विनायक दामोदर सावरकर जैसे अनगिनत लोगों ने प्रतिपादित किया था।"

[Editorial: ‘Two-nation Gujarat’, The Times of India, 18 April 2002.]

आरएसएस/हिंदू महासभा के अभिलेखागार में उपलब्ध उपरोक्त सभी तथ्यों के बावजूद, मॉड्यूल के लेखक यह ज़हर उगलना जारी रखते हैं कि "मुस्लिम नेता खुद को हिंदुओं से मूल रूप से अलग बताते हैं। इसकी जड़ राजनीतिक इस्लाम की विचारधारा में निहित है, जो गैर-मुसलमानों के साथ किसी भी स्थायी या समान संबंध की संभावना को नकारती है।"

झूठ 2: मुस्लिम लीग सभी भारतीय मुसलमानों की पार्टी

यह मॉड्यूल यह आख्यान गढ़ने का प्रयास करता है कि मुस्लिम लीग भारत के सभी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती थी क्योंकि मार्च 1946 में संविधान सभा के चुनावों में उसने "मुसलमानों के लिए आरक्षित 78 में से 73 सीटें जीती थीं"। [प्रष्ठ 7 ] लेखक यह नहीं बताते कि मुस्लिम लीग अत्यधिक प्रतिबंधित मताधिकार प्रणाली के कारण जीती थी, जिसमें मुसलमानों का एक छोटा सा अल्पसंख्यक वर्ग ही मतदान करता था। उस समय प्रचलित प्रतिबंधित मताधिकार के तहत प्राप्त लाभ के कारण मुस्लिम लीग अधिकांश मुस्लिम सीटें जीतने में सफल रही।

ये चुनाव 1935 के अधिनियम की छठी अनुसूची के तहत हुए थे, जिसके अनुसार, संपत्ति और शैक्षिक योग्यता के आधार पर किसानों, अधिकांश छोटे दुकानदारों और व्यापारियों, और अनगिनत अन्य समूहों को मतदाता सूची से बाहर रखा गया था। भारतीय संविधान निर्माण की प्रक्रिया के एक प्रसिद्ध विशेषज्ञ, ग्रैनविल ऑस्टिन के अनुसार, "प्रांतों की केवल 28.5 प्रतिशत वयस्क आबादी ही 1946 की शुरुआत में हुए प्रांतीय विधानसभा चुनावों में मतदान कर सकती थी...आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को 1935 के अधिनियम की शर्तों के तहत लगभग मताधिकार से वंचित कर दिया गया था।"

[Austin, Granville, The Indian Constitution: Cornerstone of a Nation, OUP, Delhi, 2014. pp. 12-13.]

मुसलमानों में मतदाताओं की तादाद व्यापक गरीबी और शिक्षा के अभाव के कारण बहुत कम थी। उदाहरण के लिए, बिहार में, जहाँ मुस्लिम लीग ने प्रांतीय विधानसभा चुनावों में 40 में से 34 मुस्लिम सीटें जीतीं, वहाँ योग्य मुस्लिम मतदाता कुल जनसंख्या का केवल 7.8 प्रतिशत ही थे। मुस्लिम अभिजात वर्ग/उच्च जाति के समर्थन के कारण वह जीत सकी, जबकि बिहार के 92.2% मुसलमान मताधिकार से वंचित रहे। लगभग अन्य सभी प्रांतों में भी यही स्थिति थी।

[Ghosh, Papiya, Muhajirs and the Nation: Bihar in the 40s, Routledge, Delhi, 2010, 79.]

मॉड्यूल जिन्ना के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग को भारतीय मुसलमानों की पार्टी बताता है, लेकिन इस तथ्य पर ध्यान नहीं देता कि मुसलमानों की यही वह पार्टी थी जिसके साथ सावरकर के नेतृत्व में हिंदू महासभा ने एकजुट स्वतंत्रता संग्राम, खासकर 1942 के ब्रिटिश शासकों के ख़िलाफ़ भारत छोड़ो आंदोलन को तोड़ने के लिए गठबंधन किया था। 1942 में कानपुर में हिंदू महासभा के 24वें अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए, उन्होंने मुस्लिम लीग के साथ अपनी सांठगांठ का बचाव इन शब्दों में किया था:

"व्यावहारिक राजनीति में भी महासभा जानती है कि हमें उचित समझौतों के माध्यम से आगे बढ़ना चाहिए। इस तथ्य को देखें कि हाल ही में सिंध में, सिंध-हिंदू-सभा ने निमंत्रण पर गठबंधन सरकार चलाने के लिए लीग के साथ हाथ मिलाने की ज़िम्मेदारी ली थी। बंगाल का मामला सर्वविदित है। उग्र लीगी, जिन्हें कांग्रेस अपनी पूरी विनम्रता के साथ भी शांत नहीं कर सकी, हिंदू महासभा के संपर्क में आते ही काफी हद तक समझौतावादी और मिलनसार हो गए और श्री फ़ज़लुल हक़ के प्रधानमंत्रित्व [उस समय CM को प्रधान मंत्री कहा जाता था] और हमारे सम्मानित महासभा नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कुशल नेतृत्व में गठबंधन सरकार ने दोनों समुदायों के लाभ के लिए लगभग एक वर्ष तक सफलतापूर्वक कार्य किया। इसके अलावा, आगे की घटनाओं ने भी स्पष्ट रूप से साबित कर दिया कि हिंदू महासभा ने राजनीतिक सत्ता के केंद्रों पर कब्ज़ा करने का प्रयास केवल जनहित में किया था, न कि पद के लाभ के लिए।" [Ibid, pp. 479-480.]

कितनी अफ़सोस की बात है कि यह मॉड्यूल हिंदू राष्ट्रवादियों के सहयात्री दो-राष्ट्र विचारक जिन्ना का बचाव करता है। जिन्ना के हवाले से कहा गया है, "मैंने कभी नहीं सोचा था कि ऐसा होगा। मैंने अपने जीवनकाल में पाकिस्तान देखने की कभी उम्मीद नहीं की थी" [पृष्ठ 10]  मॉड्यूल के लेखक यह संदेश देना चाहते हैं कि जिन्ना को इसकी उम्मीद नहीं थी, लेकिन कांग्रेस ने जिन्ना को पाकिस्तान को भेंट स्वरूप दे दिया!

झूठ 3: विभाजन के लिए कांग्रेस दोषी

एनसीईआरटी मॉड्यूल के "विभाजन के लिए दोषी कौन?" [पृष्ठ 9] शीर्षक वाले एक खंड में लिखा है: "1947 में भारत का विभाजन किसी एक व्यक्ति का कार्य नहीं था।। ऐतिहासिक दृष्टि से भारत के विभाजन के लिए तीन तत्व ज़िम्मेदार थे। जिन्ना, जिन्होंने इसकी माँग की; दूसरे, कांग्रेस, जिसने इसे स्वीकार किया। तीसरे, माउंटबेटन, जिन्होंने इसे औपचारिक रूप देकर कार्यान्वित किया। [पृष्ठ 9]

मॉड्यूल के अनुसार, विभाजन के लिए मुख्य रूप से कांग्रेस ज़िम्मेदार थी क्योंकि 1947 में "पहली बार भारतीय नेताओं ने ही देश का एक विशाल भाग -कई करोड़ नागरिकों सहित-स्वेच्छा से स्थायी रूप से राष्ट्रीय सीमा से बाहर कर। वह भी बिना उन करोड़ों नागरिकों की सहमती के। यह मानव इतिहास में अद्वितीय घटना थी, जब किसी देश के नेताओं ने-बिना युद्ध के, शांतिपूर्वक और बंद कमरों में-अचानक करोड़ों लोगों को अपने ही देश से अलग कर दिया।" [पृष्ठ 11]

जब आरएसएस के 'बौद्धिक शिविरों' में प्रशिक्षित एनसीईआरटी के गुरु, विभाजन के लिए कांग्रेस को दोषी ठहराते हैं, तो यह इस कहावत की तरह है जिस में कहा गया है: उलटा चोर कोतवाल को डांटे! यह एक बेहद संदिग्ध दावा है, जिसकी पुष्टि मॉड्यूल में दिए गए तथ्य भी नहीं करते। हमें बताया गया है कि सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इसे "कड़वी दवा" कहा था, जबकि जवाहरलाल नेहरू ने इसे "बुरा" लेकिन "अपरिहार्य" बताया था [पृष्ठ 5]। मॉड्यूल में एक और जगह लिखा है: "नेहरू और पटेल ने गृहयुद्ध और अराजकता को टालने के लिए विभाजन को स्वीकार कर लिया। एक बार उन्होंने ऐसा कर लिया, तो गांधी ने भी अपना विरोध छोड़ दिया।" [पृष्ठ 8] यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि विभाजन पर सहमति जताने के लिए, दोनों ढुलमुल नेहरू और लौह पुरुष पटेल को एक ही पृष्ठ पर दर्शाया गया है!

अगर एनसीईआरटी मॉड्यूल के लेखकों ने ईमानदारी से प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया को पढ़ा होता, तो सच्चाई को सूली पर नहीं चढ़ा दिया गया होता। उनका स्पष्ट मानना ​​था कि अखंड या अखंड भारत की सबसे ऊँची आवाज़ उठाने वाले हिंदू सांप्रदायिक तत्वों ने "ब्रिटेन और मुस्लिम लीग को देश का विभाजन करने में मदद की... उन्होंने मुसलमानों को हिंदुओं के करीब लाने के लिए कुछ भी नहीं किया, एक राष्ट्र के भीतर। उन्होंने उन्हें एक-दूसरे से अलग करने के लिए लगभग हर संभव प्रयास किया। यही अलगाव विभाजन का मूल कारण है।"

[Lohia, Rammanohar, Guilty Men of India’s Partition, BR Publishing, Delhi, 2012, p. 2.]

झूठ 4: ब्रिटिश शासक विभाजन नहीं चाहते थे

यह मॉड्यूल हिंदू महासभा और आरएसएस की संयुक्त इस दुविधा को दर्शाता है कि स्वतंत्र भारत में औपनिवेशिक आकाओं के प्रति अपनी वफ़ादारी की ग़द्दारी को कैसे छुपायें। हालाँकि मॉड्यूल यह घोषित करता है कि “माउंटबेटन ने जल्द बाज़ी और पहले से महत्वपूर्ण इंतेज़ाम कर लेने के प्रति लापरवाही की” [पृष्ठ 9] इस राक्षस का बचाव करने में ज़्यादा देर नहीं लगती। इसी पंक्ति में बताया जाता है कि "वे इसका कारण नहीं थे"। [पृष्ठ 9]

विभाजन के पीड़ितों (सभी धर्मों के) की प्रचुर मात्रा में उपलब्ध साक्ष्यों को प्रस्तुत करने के बजाय, मॉड्यूल माउंटबेटन का असमर्थनीय बचाव प्रस्तुत करता है। यह उनके निम्नलिखित कथन को उनकी तस्वीर के साथ प्रमुखता से प्रदर्शित करता है: "मैंने भारत का विभाजन नहीं किया। विभाजन की योजना भारतीय नेताओं द्वारा पहले ही स्वीकार की जा चुकी थी। मेरा कार्ये यथासंभव शांतिपूर्ण ढंग से क्रियान्वित करना था...मैं जल्दबाज़ी के लिए दोष स्वीकार करता हूँ...परंतु बाद में हुई हिंसा का दोष नहीं। उस का उत्तरदायित्व भारतीयों पर था।" [पृष्ठ 6]

यह दस्तावेज़ अपनी साम्राज्यवादी परियोजना के तहत भारत के विभाजन में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों की भूमिका को बेशर्मी से कमतर आंकने का प्रयास करता है। यह पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि "ब्रिटिश सरकार सदैव विभाजन के विरुद्ध थी, कांग्रेस नेताओं ने जिन्ना को कम आंका। इसके अतिरिक्त, वायसराय लॉर्ड वावेल ने 1940 से मार्च 1947 तक बार-बार कहा था कि विभाजन से हिंदू-मुस्लिम समस्या का समाधान नहीं होगा, और यह केवल व्यापक हिंसा, प्रशासनिक पतन और दीर्घकालिक शत्रुता को जन्म देगा। उन की यह चेतावनी मानो भविष्यवाणी की तरह सिद्ध हुए।" [पृष्ठ 11  औपनिवेशिक आकाओं की 'फूट डालो और राज करो' परियोजना का इससे अधिक बेशर्म बचाव नहीं हो सकता था।

यह कितना पीड़ादायक है कि भारतीय शिक्षा को उपनिवेश-मुक्त करने के लिए दिन-रात काम कर रही एनसीईआरटी, इस झूठ के समर्थन में एक कट्टर अंग्रेज़-परस्त  नीरद सी. चौधरी का सहारा ले रही है कि अंग्रेज़ विभाजन नहीं चाहते थे। नीरद का जो कथन पेश किया गया है उस के अनुसार: "मैं पूरे विश्वास से यह कहता हूँ कि 1946 के अंत तक भी भारत में किसी ने देश के विभाजन की संभावना में विश्वास नहीं किया था...हिंदुओं और ब्रिटिशों ने समान रूप से ही भारत की एकता के उस सिद्धांत का त्याग कर दिया था जिसका वे हमेशा से पालन करते आए थे।" [प्रष्ठ 9-10]

इस दस्तावेज़ के लेखकों ने, वास्तव में, ब्रिटिश शासकों के बचाव में आरएसएस के महान गुरु गोलवलकर से ही ज्ञान अर्जित किया है। आरएसएस के सबसे प्रमुख ये विचारक, औपनिवेशिक शासन को अन्यायपूर्ण या अस्वाभाविक नहीं मानते थे। 8 जून 1942 को, जब स्वतंत्रता संग्राम भारत छोड़ो आंदोलन से दो महीने पहले अपने चरम पर था, गोलवलकर ने घोषणा की:

“संघ [आरएसएस] समाज की वर्तमान पतित स्थिति के लिए किसी और को दोष नहीं देना चाहता। जब लोग दूसरों को दोष देने लगते हैं, तो उनमें कमज़ोरी आ जाती है। कमज़ोर के साथ हुए अन्याय के लिए बलवान को दोष देना व्यर्थ है...संघ अपना अमूल्य समय दूसरों को गाली देने या उनकी आलोचना करने में बर्बाद नहीं करना चाहता। अगर हम जानते हैं कि बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को खा जाती हैं, तो बड़ी मछली को दोष देना सरासर पागलपन है। प्रकृति का नियम, चाहे अच्छा हो या बुरा, हमेशा सत्य होता है। यह नियम अन्यायपूर्ण कहने से नहीं बदलता।”

[Golwalkar, M. S., Shri Guruji Samagr Darshan [Collected Works of Golwalkar in Hindi] vol. 1 (Nagpur: Bhartiya Vichar Sadhna, 1974), pp. 11-12.]

सर सिरिल रेडक्लिफ के अपराधों पर नरम रुख

इस मॉड्यूल के भोले लेखक, सर सिरिल रेडक्लिफ के अपराधों के लिए क्षमाप्रार्थी प्रतीत होते हैं, जिस ने भारत और पाकिस्तान के बीच भूमि विभाजन का निर्धारण किया था। रेडक्लिफ ही वह व्यक्ति था जो बटवारे के दौरान अतिरिक्त रक्तपात का कारण बना क्योंकि विभाजन के दो दिन बाद भी दोनों देशों के नक्शे उपलब्ध नहीं थे। मॉड्यूल में सही ही कहा गया कि,

"सीमाओं का निर्धारण अत्यंत जल्दबाज़ी में हुआ। सर सिरिल रेडक्लिफ को सीमाएँ तय करने के लिए सिर्फ़ पाँच सप्ताह का समय दिया गया था। पंजाब में, 15 अगस्त 1947 के दो दिन बाद  तक लाखों लोग नहीं जानते थे कि उन का गाँव या नगर भारत में है या पाकिस्तान में?... यह जल्दबाज़ी और करोड़ों लोगों के भविष्य, जीवन और सुरक्षा का ऐसे फ़ैसला करना एक गंभीर राजनीतिक लापरवाही थी।" [पृष्ठ 9]

लेकिन एनसीईआरटी ने साथ ही साथ उनकी तस्वीर के साथ उनकी इस माफ़ी को छापने का फ़ैसला किया: "मेरे पास कोई विकल्प नहीं था, मेरे पास समय इतना कम था कि मैं इससे बेहतर काम नहीं कर सकता था। मुझे एक काम दिया गया था और मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया, हालाँकि यह बहुत अच्छा नहीं रहा होगा।" [पृष्ठ 10]

सिरिल रेडक्लिफ की आत्मा और उस की संतानें यक़ीनन एनसीईआरटी को आभार प्रगट कर रही होंगी!

झूठ 5: आरएसएस कि विभाजन हिंसा में हिस्सेदारी पर चुप्पी

यह मॉड्यूल विभाजन के दौरान हुई भयावह सांप्रदायिक हिंसा का विवरण देता है। "विभाजन की सब से बड़ी विभीषिकाओं में एक था निर्दोष लोगों का बड़े पैमाने पर नरसंहार।। 1.5 करोड़ लोगों कोको जहां तहां भटकना पड़ा...भारत के प्रमुख धार्मिक समुदायों के बीच आपसी शत्रुता फैल गई या...एक और अत्यंत भयावह पक्ष था महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ बड़े पैमाने पर अपराध। असंख्य स्थानों पर महिलाएं ने अपनी लाज बचाने के लिए कुओं में कूद कूद कर जन दे दी।" [पृष्ठ 2]

हम जानते हैं कि मुस्लिम लीग द्वारा विरोधियों को अपंग बनाने, मारने और उनकी संपतियों को नष्ट करने के लिये बनाए गए मुस्लिम नेशनल गार्ड्स (एमएनजी) ने विभाजन हिंसा में भीषण और महा-पापी की भूमिका निभाई थी। उसके निशाने पर ज़्यादा मुस्लिम लीग विरोधी मुसलमान थे। लेकिन मार-काट-लूट में वे अकेले नहीं थे। स्वतंत्र भारत के पहले गृह मंत्री सरदार पटेल ने 11 सितंबर 1948 को आरएसएस के तत्कालीन सुप्रीमो गोलवलकर को लिखे एक पत्र में इस तथ्य की पुष्टि की कि आरएसएस के भी हत्यारे गिरोह थे। उन्होंने बताया:

"हिंदुओं को संगठित करना और उनकी सहायता करना एक बात है, लेकिन निर्दोष और असहाय पुरुषों, महिलाओं और बच्चों पर उनके अत्याचारों का बदला लेना बिलकुल दूसरी बात है... हिंदुओं को उत्साहित करने और उनकी रक्षा के लिए संगठित करने के लिए ज़हर फैलाना ज़रूरी नहीं था। इस ज़हर के अंतिम परिणाम के रूप में देश को गांधीजी के अमूल्य जीवन का बलिदान देना पड़ा।"

[Cited in Justice on Trial, RSS, Bangalore, 1962, pp.26-28.]

सत्य: हिंदू महासभा-आरएसएस-जिन्ना की धुरी ने ही भारत का विभाजन करवाया

स्वतंत्रता-पूर्व भारत की सांप्रदायिक राजनीति के अद्वितीय शोधकर्ता डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने दो-राष्ट्र सिद्धांत के मुद्दे पर हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के बीच घनिष्ठ संबंध और सौहार्द के बारे में लिखा:

"यह अजीब लग सकता है, लेकिन श्री सावरकर और श्री जिन्ना एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के मुद्दे पर एक-दूसरे के विरोधी होने के बजाय, इस पर पूरी तरह सहमत हैं। दोनों सहमत हैं, न केवल सहमत हैं, बल्कि इस बात पर ज़ोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं—एक मुस्लिम राष्ट्र और दूसरा हिंदू राष्ट्र।"

[Ambedkar, B. R., Pakistan or the Partition of India, Govt. of Maharashtra, Bombay, 1990 [Reprint of 1940 edition], p. 142.]

दो-राष्ट्र सिद्धांत और उस पर हिंदुत्व की बयानबाजी के बारे में सावरकर की दुष्ट योजनाओं के परिणामों पर प्रकाश डालते हुए डॉ. अंबेडकर ने 1940 में ही जता दिया था कि, "हिंदू राष्ट्र को उसके कारण एक प्रमुख स्थान प्राप्त होगा और मुस्लिम राष्ट्र को हिंदू राष्ट्र के अधीनस्थ सहयोग की स्थिति में रहना होगा।" [वही, 143.] यानि देश के हिंदुओं और मुसलमानों को एक दूसरे से लड़वाना!

भारत के विभाजन के बारे में हिंदुत्व ख़ेमे दुवारा गढ़े झूठ के पुलनदे को "'विभाजन विभीषिका" में सच के रूप में प्रस्तुत करने से बचा जा सकता था अगर पूरी परियोजना का प्रभारी एक ऐसा विशेषज्ञ, मिशेल डैनिनो न होता जो ऐतिहासिक निषेधवाद (अतीत की सच्चाइयों को नकारना जिसका अर्थ एक झूठा इतिहास गढ़ना) में माहिर है। वे एक फ़्रांसीसी मूल के भारतीय लेखक हैं जिन्हों ने 2003 में ही भारतीय नागरिकता हासिल की। ​​मोदी सरकार ने उन्हें 2017 में भारत के चौथे सबसे बड़े नागरिक पुरस्कार पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया। वह हिंदुत्व के मुखर समर्थक हैं, जिन्हें उनके ही शब्दों में “[ऐतिहासिक] विवादों को एक प्रकार से विकृत तरीक़े से प्रस्तुत करना” उन के लिए आनंददायक है। https://indianexpress.com/article/education/academia-margins-to-ncert-row-french-born-scholars-tryst-with-indias-past-10197438/]

वे इतिहास को बदलने के लिए मौजूद हैं और इस प्रक्रिया में लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष-समतावादी भारत के निर्माण के गौरवशाली इतिहास को भी मिटा रहे हैं। विडंबना यह है कि यह सब प्रधानमंत्री मोदी द्वारा घोषित राष्ट्र के ‘अमृत काल’ में हो रहा है!

शम्सुल इस्लाम

25-08-2025

शम्सुल इस्लाम के अंग्रेज़ी, हिंदी, उर्दू तथा  मराठी, मलयालम, कन्नड़, बंगाली, पंजाबी, गुजराती में मूल और अनूदित लेखन और कुछ वीडियो साक्षात्कार/बहस के लिए देखें :

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