Saturday, October 19, 2019

सावरकर के लिए भारत रत्न की वकालत: आरएसएस/बीजेपी ने अपनी राष्ट्र-विरोधी विरासत की ही पुष्टि है!



सावरकर के लिए भारत रत्न की वकालत: आरएसएस/बीजेपी ने अपनी राष्ट्र-विरोधी विरासत की ही पुष्टि है!
अँगरेज़ शासकों से सावरकर ने 6 बार क्षमा माँगी
आरएसएस के राजनैतिक जैबी संगठन भाजपा ने महाराष्ट्र चुनाव (अक्तूबर 21, 2019 को मतदान) में जारी अपने संकल्प पत्र में हिंदुत्व विचारधारा के जनक, वीर सावरकर को भारत रत्न दिलाने का वादा किया है। उनके साथ दलित आंदोलन के मूल दिग्गज सिद्धांतकारों में से दो, ज्योतिबा फुले और उनकी जीवन संगनी सावित्री बाई फुले के लिए भी भारत रत्न दिलाने का संकल्प किया गया।  ध्यान देने वाली बात यह है कि महाराष्ट्र के साथ ही हरयाणा में भी चुनाव हो रहे हैं लेकिन भाजपा ने यहाँ के चुनावी घोषणा पात्र में ऐसे कोई संकल्प नहीं किया है जबकि सावरकर और फुले पहले जोड़ी को भारत रत्न दिलाने का मामला किसी एक क्षेत्र का नहीं बल्कि राष्ट्रीय मुद्दा है।
महाराष्ट्र के चुनाव में आरएसएस/भाजपा का यह वायदा दो तरह से चौंकाने वाला है। पहले यह कि सावरकर जिन्हों ने अपने पीछे राष्ट्र-विरोधी और समाज-विरोधी विरासत छोड़ी वे कैसे देश के सर्वोच्च सम्मान के क़ाबिल माने जा सकते हैं। यह सच हे की सावरकर के राजनितिक जीवन की शुरूआत एक समावेशी भारत की मुक्ति योद्धा के तौर पर हुई लेकिन कालापानी जेल में क़ैद ने उन्हें अँगरेज़ शासकों के प्रशंसक में बदल दिया और उन्हों ने बाक़ी जीवन हिंदुत्व विचारधारा जो जातिवाद, हिन्दू अलगाओवाद और अंग्रेज़परस्ती पर टिकी थी के प्रसार में लगा दिया। उन्हों ने साझे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को धर्म के आधार पर बाँटने में मुख्य भूमिका निभायी जो विदेशी शासक चाह रहे थे। इस राष्ट्र विरोधी काम में उन्हों ने जिन्ना और मुस्लिम लीग से भी हाथ मिलाए। 
दूसरी चौंका देने वाली बात यह है की आरएसएस/भाजपा टोली ने हिन्दुत्वादी सावरकर के साथ ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले को भी जोड़ दिया। यह करके इस टोली ने हिन्दू राष्ट्र के पितामह सावरकर को ब्राह्मणवाद के विरुद्ध समतावादी समाज के दो बड़े विचारकों के बराबर खड़ा करदिया। यह फुले  दंपती का ही घोर अपमान नहीं बल्कि समस्त दलित आंदोलन और उसके समतामूलक दर्शन का अपमान है।     
(1) सावरकर को भारत रत्न का मतलब सवतंत्रता आंदोलन के महान शहीदों और सवतंत्रता सेनानियों को कलंकित करना होगा  
 इस हिंदुत्व 'वीर' ने अँगरेज़ शासकों की सेवा में अपने क्रांतिकारी इतिहास के बारे में क्षमा मांगते हुवे एक या दो नहीं बल्कि छे माफ़ीनामे 1911, 1913, 1914, 1915, 1918 और 1920 में पेश किये। इन  में 1913 और 1920 के माफ़ीनामों के ही पाठ मौजूद हैं (बाक़ी ग़ायब करदिये गए)  इन के अध्ध्य्यन से साफ़ ज़ाहिर हो जाता हे की सावरकर किस हद तक अंग्रेज़ों के तलवे चाटने के लिए तैयार थे। 
1913 का माफ़ीनामा इन शर्मनाक शब्दों के साथ ख़त्म हुवा:
"इसलिए, सरकार अगर अपने विविध उपकारों और दया दिखाते हुए मुझे रिहा करती है तो मैं और कुछ नहीं हो सकता बल्कि मैं संवैधानिक प्रगति और अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादारी का, जो कि उस प्रगति के लिए पहली शर्त है, सबसे प्रबल पैरोकार बनूँगाइसके अलावा, मेरे संवैधानिक रास्ते के पक्ष में मन परिवर्तन से भारत और यूरोप के वो सभी भटके हुए नौजवान जो मुझे अपना पथ-प्रदर्शक मानते थे वापिस जाएंगे।
सरकार, जिस हैसियत में चाहे मैं उसकी सेवा करने को तैयार हूँ, क्योंकि मेरा मत परिवर्तन अंतःकरण से है और मैं आशा करता हूँ कि आगे भी मेरा आचरण वैसा ही होगा। मुझे जेल में रखकर कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि रिहा करने में उससे कहीं ज़्यादा हासिल होगा। ताक़तवर ही क्षमाशील होने का सामर्थ्य रखते हैं और इसलिए एक बिगड़ा हुआ बेटा सरकार के अभिभावकीय दरवाज़े के सिवा और कहाँ लौट सकता है? आशा करता हूँ कि मान्यवर इन बिन्दुओं पर कृपा करके विचार करेंगे।"
1920 का माफीनामा भी कुछ कम शर्मसार करने वाला नहीं था। इस का अंत इन शब्दों के साथ हुवा:
"...मुझे विश्वास है कि सरकार गौर करगी कि मैं तयशुदा उचित प्रतिबंधों को मानने के लिए तैयार हूं, सरकार द्वारा घोषित वर्तमान और भावी सुधारों से सहमत प्रतिबद्घ हूं, उत्तर की ओर से तुर्क-अफगान कट्टरपंथियों का खतरा दोनों देशों के समक्ष समान रूप से उपस्थित है, इन परिस्थितयों ने मुझे ब्रिटिश सरकार का इर्मानदार सहयोगी, वफादार और पक्षधर बना दिया है। इसलिए सरकार मुझे रिहा करती है तो मैं व्यक्तिगत रूप से कृतज्ञ रहूंगा। मेरा प्रारंभिक जीवन शानदार संभावनाओं से परिपूर्ण था, लेकिन मैंने अत्यधिक आवेश में आकर सब बरबाद कर दिया, मेरी जिंदगी का यह बेहद खेदजनक और पीड़ादायक दौर रहा है। मेरी रिहायी मेरे लिए नया जन्म होगा। सरकार की यह संवेदनशीलता दयालुता, मेरे दिल और भावनाओं को गहरायी तक प्रभावित करेगी, मैं निजी तौर पर सदा के लिए आपका हो जाऊंगा, भविष्य में राजनीतिक तौर पर उपयोगी रहूंगा। अक्सर जहां ताकत नाकामयाब रहती है उदारता कामयाब हो जाती है।"

शासकों को क्षमा याचना भेजना कोई जुर्म नहीं है लेकिन…
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आज़ादी की लड़ाई के प्रसिद्द नेता, गंगाधर तिलक को बग़ावती लेखन के लिए छे वर्ष की सजा काटने के लिए 1908 में मण्डलए जेल (बर्मा) भेज दियस गया था। उन्हों ने भी 1912 में फ़रवरी 12 और अगस्त 5 की तारीखों में दो ''मर्सी पेटिशन' इंग्लैंड के राजा जिसका भारत पर भी राज चलता था को भेजीं।  इन में उन्हों ने ना ही किसी तरह का रोना-धोना किया, ही कोई माफ़ी मांगी बल्कि राजा को को पूरा सम्मान देते हुवे लिखा:
"महामहिम से अपने मामले में दयावान विचार करने की बिनती करते हुवे बताना चाहता हूँ की उस ने सज़ा के 6 सालों में से 4 साल अर्थात 2/3 सज़ा काट ली है। अब वो 56 साल का है, मधुमेह का पुराना मरीज़ है और उस का परिवार हाल ही में एक बहुत क़रीबी रिश्तेदार की मौत के कारण गंभीर परेशानियों में है। इस लिए, याचिकाकर्ता  वफ़ादारी और विनम्रता से प्रार्थना करता है की महामहिम  कृपापूर्ण आवेदनकर्ता की सज़ा को माफ़ करदेंगे या उस में कटौती करेंगे।"

सावरकर दुवारा अँगरेज़ शासकों के सामने सम्पूर्ण समर्पण के लाभ भी हासिल हुवे। उनकी 50  साल की सज़ा में से गोरे शासकों ने 37 साल की छूट दे दी सजा। वे 13 साल से भी कम क़ैद में रहे, जिन में से 10 से भी कम साल उन्हों ने कालापानी जेल में बिताए। इस के साथ ही रिहाई की इस शर्त के बावजूद की वे राजनैतिक क्षेत्र से दूर रहेंगे उन्हें हिन्दू महासभा को संगठित करने की छूट दी गयी। शासकों का उद्देश्य बहुत साफ़ था।  ऐसा करके सावरकर देश में बलवान होते साझे आज़ादी के आंदोलन को हिन्दू राष्ट्र को संगठित करने के नाम पर तोड़ने का स्वागत योगए काम कर रहे थे। यहां यह याद रखना ज़रूरी है की कालापानी जेल के इतिहास में, जेल के बंदियों में से वे इकलौते ऐसे क़ैदी थे जिन पर अंग्रेज़ों ने इतने खुले दिल से अहसान किए!
देश के लोगों के सामने एक बड़ा सवाल यह है की क्या एक फ़र्ज़ी वीर को भारत रत्न दिलाने की साज़िश को कामयाब होने देंगे?

शम्सुल इस्लाम
18-10-2019
एस. इस्लाम के अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, मराठी, मलयालम, कन्नड़, बंगाली, पंजाबी, गुजराती में लेखन और कुछ वीडियो साक्षात्कार/बहस के लिए देखें :
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