Monday, October 14, 2019

आखिर, किस मुंह से संघ-मोदी कहते हैं कि सरदार पटेल उनके थे; इस बात का कहीं कोई प्रमाण तो है नहीं


आखिर, किस मुंह से संघ-मोदी कहते हैं कि सरदार पटेल उनके थे; इस बात का कहीं कोई प्रमाण तो है नहीं
शम्सुल इस्लाम
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा-दोनों सरदार वल्लभ भाई पटेल को अपनी विचारधारा वाला बताने की कोशिश में लगातार लगे रहते हैं। वे यह भी जताने के प्रयास में रहते हैं कि कांग्रेस और पहले प्रधानमंत्री जवाहलाल नेहरू ने सरदार पटेल की लगातार अनदेखी की। संघ से लगातार जुड़े रहे उपराष्ट्रपति ने हाल में कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतिहास के महत्वपूर्ण मोड़ पर देश को एकीकृत करने में पटेल की महत्वपूर्ण भूमिका को कभी उचित ढंग से सम्मान नहीं किया गया। यह सारा कुछ भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू  को बदनाम करने के उद्देश्य से किया जाता है। इतिहास के पन्नों को ठीक ढंग से पलटा जाए, तो दो बातें बिल्कुल साफ होती हैं: पहली, सरदार और नेहरू में कभी प्रतिस्पर्धा नहीं थी और उन दोनों ने सब दिन साथ मिलकर काम किया और दूसरी, सरदार कभी भी संघ की विचारधारा के समर्थक नहीं रहे बल्कि उन्होंने जीते जी संघ की विचारधारा का विरोध किया।
हमें पहले देखना चाहिए कि कैसे नेहरू और पटेल ने कंधे से कंधे मिलाकर काम कियाः
- सरदार पटेल नेहरू के विश्वस्त सहयोगी और मित्र थे। दोनों ने अपने सपनों के भारत को बनाने में मिल-जुलकर काम किया। अगर नेहरू सरदार के विचार और कामकाज के प्रति जरा भी द्वेष भाव रखते, तो उन्होंने महात्मा गांधी की एक हिन्दुत्वादी आतंकी द्वारा हत्या के तत्काल बाद सरदार से गृह मंत्रालय आसानी से ले लिया होता। इसमें शक नहीं कि की उस समय की आम राय यह थी कि सरदार पटेल के नेतृत्व वाला गृह मंत्रालय गांधी जी का जीवन बचाने में पूरी तरह विफल रहा था। यह तथ्य है कि सरदार अपने जीवन के आखिरी क्षण- 15 दिसंबर, 1950, तक गृह मंत्री पद पर रहे। नेहरू के उन पर पूरे विश्वास के बिना यह संभव नहीं था।
- आरएसएस-भाजपा के नेता दावा करते हैं कि सरदार पटेल के विरोध के बावजूद अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान में सम्मिलित करने के लिए जवाहरलाल नेहरू ही पूरी तरह से जिम्मेदार थे। समकालीन सरकारी दस्तावेज़ों के अनुसार उनके इस दावे में लेश मात्र भी सत्य नहीं है।
1946 से 50 तक सरदार पटेल के निजी सचिव रहे वरिष्ठ आईसीएस (इस कैडर को इन दिनों आईएएस कहा जाता है) विद्या शंकर ने दो विशालकाय ग्रंथों में सरदार पटेल के पत्राचार को संकलित और संपादित किया है। सरदार के विचारों और कार्यों के लिए यह संकलन बतौर प्रामाणिक रिकॉर्ड जाना जाता है। इस संकलन के अध्याय 3 में जम्मू-कश्मीर से संबंधित पत्राचार हैं। शंकर ने इस खंड की भूमिका में बताया है कि किस तरह सरदार पटेल ने तमाम बाधाओं के बावजूद अनुच्छेद 370 को संविधान में सम्मिलित करने का प्रस्ताव पारित कराया था। शंकर ने यह भी बताया है कि संविधान सभा द्वारा अनुच्छेद 370 को संविधान में सम्मिलित किए जाने का प्रस्ताव जिस समय पारित हुआ, नेहरू आधिकारिक यात्रा पर अमेरिका गए हुए थे।
शंकर के अनुसार, अनुच्छेद 370 को जोड़ने का काम गोपालस्वामी अय्यंगार द्वारा शेख अब्दुल्ला और उनके मंत्रालय के साथ परामर्श करके और नेहरू के अनुमोदन से संपन्न किया गया था। तैयार मसौदे पर नेहरू की पूर्व अनुमति प्राप्त कर ली गई थी लेकिन सरदार से सलाह नहीं ली गई थी। संविधान सभा में कांग्रेस पार्टी की ओर से प्रस्तावित मसौदे के उस भाग का काफी जोरशोर से विरोध किया गया था जिसके अंतर्गत जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की व्यवस्था थी। सैद्धांतिक तौर पर, पार्टी में आम राय यह थी कि संवैधानिक रूप से कश्मीर को भी अन्य राज्यों की तरह एक राज्य के बतौर रखा जाना चाहिए। खास तौर से संविधान के मूल प्रावधान, जैसे कि मौलिक अधिकार वहां लागू नहीं किए जाने का जबरदस्त विरोध था।
गोपालस्वामी अय्यंगार लोगों को सहमत करने में नाकामयाब हुए और उन्होंने सरदार से हस्तक्षेप करने की गुजारिश की। सरदार चिंतित थे कि नेहरू की अनुपस्थिति में ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए जिससे नेहरू को नीचा देखने की नौबत आए। इसलिए नेहरू की गैरमौजूदगी में पार्टी को अपना पक्ष बदलने के लिए राजी करने का दायित्व सरदार ने पूरा किया। यह काम उन्होंने इस खूबी से अंजाम दिया कि संविधान सभा में इस विषय पर अधिक चर्चा नहीं हुई और अनुच्छेद (370) का कोई विरोध नहीं हुआ। इस तथ्य की पुष्टि सरदार पटेल द्वारा नवंबर 3, 1949 को नेहरू को लिखे एक पत्र से भी होती है जिसमें उन्होंने लिखा थाः "कश्मीर से संबंधित प्रावधान को लेकर कुछ कठिनायां थीं ... मैं पार्टी को सभी परिवर्तनों को स्वीकार करने के लिए राजी कर पाया, सिवाय अंतिम एक को छोड़कर जिसे इस प्रकार संशोधित किया गया ताकि उस उद्घोषणा द्वारा नियुक्त न केवल प्रथम मंत्रिमंडल बल्कि बाद में नियुक्त किए जाने वाले किसी भी मंत्रिमंडल को इसमें सम्मिलित किया जा सके।"
संघ की विचारधारा के प्रबल  विरोधी
संघ और भाजपा यह भ्रम फैलाने की कोशिश करते हैं कि सरदार तो भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के पक्षधर थे, नेहरू ने इस काम में बाधा डाली। यह भी कितना गलत है, इसे इतिहास के आईने में देखने की जरूरत है।
- सरदार पटेल ने सब दिन कांग्रेस के नेतृत्व में चले आंदोलन में भागीदारी की। वह हिंदुत्ववादी राजनीति से घृणा करते थे। सरदार पटेल लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत का सपना ही देखते थे। वह तिरंगे से प्यार करते थे और उसे सम्मान देते थे। ब्रिटिश शासन के खिलाफ उन्होंने इसे लहराते हुए ऐतिहासिक संघर्ष किए। जब उनका निधन हुआ, तो उनका पार्थिव शरीर इस तिरंगे में ही लिपटा था। इसके विपरीत, संघ ने तिरंगे की सब दिन आलोचना ही की। आजादी की पूर्व बेला में 14 अगस्त, 1947 को संघ के अंग्रेजी मुखपत्र आर्गनाइजर ने तिरंगे को राष्ट्रीय झंडा बनाने के फैसले पर लिखाः "संयोगवश सत्ता में आ गए लोग हमारे हाथ में भले ही तिरंगा दे दें लेकिन इसे हिंदू न तो कभी सम्मान देंगे, न इसे अंगीकार करेंगे। इसमें शामिल- तीन- शब्द अपने आप में गलत है और तीन रंग वाला झंडा देश पर निश्चित ही बहुत ही बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालेगा और घातक होगा।"
- सरदार पटेल ने ही संघ पर पहली बार प्रतिबंध लगाया था। गांधी जी की हत्या के बाद 4 फरवरी, 1948 को सरदार पटेल के नेतृत्व वाले गृह मंत्रालय द्वारा संघ पर प्रतिबंध को लेकर जारी प्रेस बयान स्वयंसिद्ध है कि सरदार पटेल संघ की विचारधारा के किस तरह विपरीत थे। इस बयान में कहा गयाः "2 फरवरी, 1948 को पारित अपने प्रस्ताव में सरकार ने घृणा और हिंसा फैलाने वाले उन तत्वों का पूरी तरह सफाया करने के अपने निश्चय की घोषणा की जो अपने देश में सक्रिय हैं और देश की आजादी को संकट में डाल रहे हैं तथा उसकी साफ छवि को काला कर रहे हैं। इस नीति का पालन करते हुए भारत सरकार ने आरएसएस को गैरकानूनी घोषित करने का फैसला किया। इस बयान में बताया गया कि आरएसएस पर प्रतिबंध इसलिए लगाया गया क्योंकि संघ के सदस्य अनपेक्षित और यहां तक कि खतरनाक गतिविधियां कर रहे थे। यह पाया गया है कि आरएसएस के कार्यकर्ता देश के विभिन्न हिस्सों में आगजनी, लूटपाट, डकैती, और हत्या में शामिल हैं और उनलोगों ने अवैध हथियार और गोला-बारूद इकट्ठा कर लिए हैं। वे लोगों को आतंकवादी गतिविधियां अपनाने, हथियार जमा करने, सरकार के खिलाफ असंतोष फैलाने और पुलिस तथा सेना के खिलाफ दुष्प्रेरित करने वाले लीफलेट्स प्रसारित करते पाए गए हैं।"
- यह सरदार पटेल ही थे जिन्होंने गृह मंत्री के तौर पर, आरएसएस के तब के सुप्रीमो गुरु गोलवलकर को यह कहने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई कि उनका संगठन ही गांधी जी की हत्या और हिंसा फैलाने के लिए उत्तरदायी है। 11 सितंबर, 1948 को गोलवलकर को लिखी चिट्ठी में सरदार ने कहाः "हिंदुओं को संगठित करना और उनकी मदद करना एक बात है लेकिन अपने दुःख के लिए मासूम और बेसहारा लोगों, महिलाओं और बच्चों से बदला लेना... इसके अलावा कांग्रेस के प्रति अपने विरोध के लिए इस तरह का द्वेष रखना, सभी बड़े व्यक्तित्वों को अपमानित करना, मर्यादा और शिष्टता न रखना, लोगों के बीच असंतोष पैदा करना दूसरी बात है। उनके सभी भाषण सांप्रदायिक जहर से भरे हुए थे। हिंदुओं में जोश भरने और उनकी सुरक्षा के लिए उन्हें संगठित करने के लिए जहर फैलाना जरूरी नहीं था। इस तरह जहर फैलाने की वजह से अंततः देश को गांधी जी के अमूल्य जीवन से हाथ धोने का दुःख भोगना पड़ा। सरकार और लोगों की संघ के प्रति जरा भी सहानुभूति नहीं रह गई। बल्कि उसके प्रति विरोध ही बढ़ा। जब आरएसएस के लोगांे ने गांधी जी के निधन के बाद खुशी जाहिर की और मिठाइयां बांटीं, तो यह विरोध और भी बढ़ गया।"
आरएसएस और भाजपा सदस्यों को पटेल का 18 जुलाई, 1948 को श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लिखा पत्र भी पढ़ना चाहिए। मुखर्जी हिंदू महासभा के नेता थे, फिर भी नेहरू ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में जगह दी थी। सरदार पटेल ने जिस वक्त उन्हें यह पत्र लिखा था, उस वक्त मुखर्जी नेहरू मंत्रिमंडल में शामिल थे। इस चिट्ठी में कहा गया हैः "जहां तक आरएसएस और हिंदू महासभा का सवाल है, गांधी जी की हत्या से संबंधित केस अभी न्यायालय के अधीन है और इन दोनों संगठनों की उसमें हिस्सेदारी को लेकर मैं अभी कुछ नहीं कहना चाहता लेकिन हमारी रिपोट्र्स यह बात जरूर पुष्ट करती है कि इन दोनों संगठनों की गतिविधियों के परिणामस्वरूप, खास तौर पर पहले संगठन (संघ) की गतिविधियों के कारण देश में ऐसा वातावरण बना जिसने ऐसी भयावह दुर्घटना को संभव बनाया।"
शर्म इनको मगर नहीं आती!
[Sunday Navjivan, Delhi, October 13, 2019]

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