Thursday, August 14, 2025

राष्ट्रीय तिरंगा झण्डा और आरएसएस की धोखाधड़ी

 

राष्ट्रीय तिरंगा झण्डा और आरएसएस की धोखाधड़ी 

आरएसएस-भाजपा शासकों ने भारत के 79वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर ‘हर घर तिरंगा’ नारा देकर देशवासियों से राष्ट्रीय ध्वज, तिरंगा फहराने का आह्वान किया है।

देशभक्त भारतीयों को यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदुत्ववादी शासक भारत की लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष-समतावादी व्यवस्था को एक धार्मिक हिंदू राज्य में बदलने की अपनी घृणित राष्ट्र-विरोधी परियोजना को छिपाने के लिए तिरंगे का इस्तेमाल कर रहे हैं। अगर हम यह जान लें कि आरएसएस ने तिरंगे का अपमान कैसे किया और कर रहे हैं, तो उनकी असली परियोजना को समझना मुश्किल नहीं होगा।

स्वतंत्रता की पूर्वसंध्या पर जब दिल्ली के लाल किले से तिरंगे झण्डे को लहराने की तैयारी चल रही थी आरएसएस ने अपने अंग्रेज़ी मुखपत्र (आर्गनाइज़र) के 14 अगस्त सन् 1947 वाले अंक में राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर तिरंगे के चयन की खुलकर भर्तसना करते हुए लिखाः

वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झण्डा जिसमें तीन रंग हों बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुक़सानदेय होगा।

स्वतंत्रता के बाद जब तिरंगा झंडा राष्ट्रीय-ध्वज बन गया तब भी आरएसएस ने इसको स्वीकारने से मना कर दिया। गोलवलकर ने राष्ट्रीय झंडे के मुद्दे पर अपने लेखनिरुद्देश गति’ (1970) में लिखाः

उदाहरण स्वरूप, हमारे नेताओं ने हमारे राष्ट्र के लिए एक नया ध्वज निर्धारित किया है। उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह पतन की ओर बहने तथा नक़लचीपन का एक स्पष्ट प्रमाण है। कौन कह सकता है कि यह एक शुद्ध तथा स्वस्थ्य राष्ट्रीय दृष्टिकोण है? यह तो केवल एक राजनीति की जोड़तोड़ थी, केवल राजनीतिक कामचलाऊ तत्कालिक उपाय था। यह किसी राष्ट्रीय दृष्टिकोण अथवा राष्ट्रीय इतिहास तथा परंपरा पर आधारित किसी सत्य से प्रेरित नहीं था। वही ध्वज आज कुछ छोटे से परिवर्तनों के साथ राज्य ध्वज के रूप में अपना लिया गया है। हमारा एक प्राचीन तथा महान राष्ट्र है, जिसका गौरवशाली इतिहास है। तब, क्या हमारा अपना कोई ध्वज नहीं था? क्या सहस्त्र वर्षों में हमारा कोई राष्ट्रीय चिन्ह नहीं था? निःसंदेह, वह था। तब हमारे दिमाग़ों में यह शून्यतापूर्ण रिक्तता क्यों? ”

[गोलवलकर, विचार नवनीत, ज्ञान गंगा प्रकाशन (आरएसएस का प्रकाशन) 1996, प्रष्ठ 237-38]

तिरंगे के प्रति आरएसएस की नफ़रत चिरस्थायी है। अगर आज़ादी की पूर्व संध्या पर इसका अपमान किया गया था, तो हिंदुत्व गिरोह का यह गुरु आज़ादी के 23 साल बाद भी इसके ख़िलाफ़ ज़हर फैलाता रहा। यह लेख आरएसएस ने छापना बंद नहीं किया, पुस्तक के नवीनतम 2022 के संस्करण में ज्यों का त्यों मौजूद है। देशभक्त भारतीयों को संयुक्त बलिदान और संघर्ष के इस प्रतीक के ख़िलाफ़ भड़काने में नाकाम आरएसएस, एक पेशावर धोखेबाज़ संस्था के रूप में, इसका इस्तेमाल तब तक कर रहा है जब तक कि देश के लोग भारत की लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष-समतावादी राजनीति को तहस-नहस करने के उसके राष्ट्र-विरोधी खेल का शिकार नहीं बन जाते।

देश कि आज़ादी की 79 वीं वर्षगांठ पर राष्ट्रविरोधी आरएसएस गिरोह से सावधान रहें!

शम्सुल इस्लाम

अगस्त 15, 2025

INDIAN NATIONAL FLAG AND FRAUDULENT RASHTRIYA SWAYAMSEVAK SANGH

 

INDIAN NATIONAL FLAG AND FRAUDULENT RASHTRIYA SWAYAMSEVAK SANGH

RSS-BJP rulers have called upon Indians to unfurl Tricolour, our national flag on the eve of 79th Independence Day of India. In RSS-BJP ruled states it is must for madarsaas.

The patriotic Indians must not forget that the Hindutva rulers are using the Tricolour to camouflage their nasty anti-national project of converting democratic-secular-egalitarian polity of India into a theocratic Hindu state. It is not difficult to understand their real project if we get to know how RSS denigrated and continues to spread venom against the Tricolour.

On the very eve of independence, the English organ of the RSS, Organiser, in its issue dated August 14, 1947, expressed brazen hatred against our Tricolour in the following words:

“The people who have come to power by the kick of fate may give in our hands the Tricolour but it will never be respected and owned by Hindus. The word three is in itself an evil, and a flag having three colours will certainly produce a very bad psychological effect and is injurious to a country.”

Even after independence it was RSS which refused to accept it as the National Flag. Golwalkar while denouncing the choice of Tricolour as National Flag in an essay titled ‘Drifting and Drifting’ [penned around 1970 which appeared in Bunch of Thoughts, collection of writings of Golwalkar], wrote:

“Our leaders have set up a new flag for our country. Why did they do so? It is just a case of drifting and imitating….Ours is an ancient and great nation with a glorious past. Then, had we no flag of our own? Had we no national emblem at all these” thousands of years? Undoubtedly we had. Then why this utter void, this utter vacuum in our minds?

      [Golwalkar, M.S., Bunch of Thoughts, Sahitya Sindhu, Bangalore (RSS publication), 1996,    pp. 237-238.]

So the RSS hatred for Tricolour is perennial. If it was denigrated on the eve of  Independence, this Guru of the Hindutva gang continued spreading venom against it even after many decades. RSS has never withdrawn this anti-national article, it is available in the latest edition of Bunch of Thoughts printed in 2022.

RSS despite the use of all dirty tricks against Indian polity has not been able to turn patriotic Indians against this symbol of joint sacrifices and struggle. RSS as master demagogue and fraudster is using the Tricolour till the time Indians fall prey to its anti-national game of undoing democratic-secular-egalitarian polity of India.  

BE ON GUARD AGAINST THE ANTI-NATIONAL RSS GANG!

Shamsul Islam

August 15, 2025

 

 

 

Friday, August 8, 2025

भारत छोड़ो आंदोलन 1942 से ग़द्दारी की कहानी: आरएसएस और सावरकर की ज़बानी

 भारत छोड़ो आंदोलन 1942 से ग़द्दारी की कहानी: आरएसएस और सावरकर की ज़बानी 

कांग्रेस का आह्वान

इस 9 अगस्त 2025 को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक अहम मील के पत्थर, महान अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलनजिसे 'अगस्त क्रांति' भी कहा जाता है को 83 साल पूरे हो जायेंगे। 8 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने बम्बई में अपनी बैठक में एक क्रांतिकारी प्रस्ताव पारित किया जिसमें अंग्रेज़  शासकों से तुरंत भारत छोड़ने की मांग की गयी थी। इस प्रस्ताव पर 9 अगस्त से अमल किया जाना था। अंग्रेज़ शासन से लोहा लेने के लिए स्वयं गांधीजी ने करो या मरो ब्रह्म वाक्य सुझाया और सरकार एवं सत्ता से पूर्ण असहयोग करने का आह्वान किया। कांग्रेस का यह मानना था कि अंग्रेज़  सरकार को भारत की जनता को विश्वास में लिए बिना किसी भी जंग में भारत को झोंकने का नैतिक और कानूनी अधिकार नहीं है। अंग्रेज़ों  से भारत तुरंत छोड़ने का यह प्रस्ताव कांग्रेस द्वारा एक ऐसे नाजुक समय में लाया गया था जब दूसरे विश्वयुद्ध के चलते जापानी सेनाएं भारत के पूर्वी तट तक पहुंच चुकी थी और कांग्रेस ने अंग्रेज़  शासकों द्वारा सुझाईक्रिप्स योजनाको खारिज कर दिया था।अंग्रेजो भारत छोड़ोप्रस्ताव के साथ-साथ कांग्रेस ने गांधी जी को इस आंदोलन का सर्वेसर्वा नियुक्त किया और देश के आम लोगों से आह्वान किया कि वे हिंदू-मुसलमान का भेद त्याग कर सिर्फ़ हिन्दुस्तानी के तौर पर अंग्रेज़ी  साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए एक हो जाएं।

'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान देश-भक्त हिन्दुस्तानियों की क़ुर्बानियां

भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा के साथ ही पूरे देश में क्रांति की एक लहर दौड़ गयी। अगले कुछ महीनों में देश के लगभग हर भाग में अंग्रेज़  सरकार के विरुद्ध आम लोगों ने जिस तरह लोहा लिया उससे 1857 के भारतीय जनता के पहले मुक्ति संग्राम की यादें ताजा हो गईं। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन ने इस सच्चाई को एक बार फिर रेखांकित किया कि भारत की आम जनता किसी भी कुर्बानी से पीछे नहीं हटती है। अंग्रेज़  शासकों ने दमन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 9 अगस्त की सुबह से ही पूरा देश एक फौजी छावनी में बदल दिया गया। गांधीजी समेत कांग्रेस के बड़े नेताओं को तो गिरफ्तार किया ही गया दूरदराज के इलाकों में भी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को भयानक यातनाएं दी गईं।

सरकारी दमन और हिंसा का ऐसा तांडव देश के लोगों ने झेला जिसके उदाहरण कम ही मिलते हैं। स्वयं सरकारी आंकड़ों के अनुसार पुलिस और सेना द्वारा सात सौ से भी ज्यादा जगह गोलाबारी की गई जिसमें ग्यारह सौ से भी ज्यादा लोग शहीद हो गए। शहीदों की यह तादाद सफ़ेद झूट थी। पुलिस और सेना ने आतंक मचाने के लिए बलात्कार और कोड़े लगाने का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया। भारत में किसी भी सरकार द्वारा इन कथकंडों का इस तरह का संयोजित प्रयोग 1857 के बाद शायद पहली बार ही किया गया था।

अंग्रेज़ सरकार के भयानक बर्बर और अमानवीय दमन के बावजूद देश के आम हिंदू मुसलमानों और अन्य धर्म के लोगों ने हौसला नहीं खोया और सरकार को मुंहतोड़ जवाब दिया। यह आंदोलनअगस्त क्रांतिक्यों कहलाता है इसका अंदाजा उन सरकारी आंकड़ों को जानकर लगाया जा सकता है जो जनता की इस आंदोलन में कार्यवाहियों का ब्योरा देते हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 208 पुलिस थानों, 1275 सरकारी दफ्तरों, 382 रेलवे स्टेशनों और 945 डाकघरों को जनता द्वारा नष्ट कर दिया गया। जनता द्वारा हिंसा बेकाबू होने के पीछे मुख्य कारण यह था कि पूरे देश में कांग्रेसी नेतृत्व को जेलों में डाल दिया गया था और कांग्रेस संगठन को हर स्तर पर गैर कानूनी घोषित कर दिया गया था। कांग्रेसी नेतृत्व के अभाव में अराजकता का होना बहुत ग़ैर-स्वाभाविक नहीं था। यह सच है कि नेतृत्व का एक बहुत छोटा हिस्सा गुप्त रूप से काम कर रहा था परंतु आमतौर पर इस आंदोलन का स्वरूप स्वतः स्फूर्त बना रहा।

जिन्ना, सावरकर और आरएसएस का अँगरेज़ सरकार के साथ आना

यह जानकर किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दमनकारी अंग्रेज़  सरकार का इस आंदोलन के दरम्यान जिन तत्वों और संगठनों ने प्यादों के तौर पर काम किया वे हिंदू और इस्लामी राष्ट्र के झंडे उठाए हुए थे। ये सच है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी भारत छोड़ो आंदोलन से अलग रहने का निर्णय लिया था। इसके बारे में सबको जानकारी है। लेकिन यह सर्वविदित है कि QIM से दूर रहने के CPI के आह्वान के बावजूद, बड़ी संख्या में कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने इसमें भाग लिया। इसके अलावा, CPI ने बाद में स्वीकार किया कि QIM का विरोध करना ग़लत था।

लेकिन आज के देशभक्तों के नेताओं ने किस तरह से केवल इस आंदोलन से अलग रहने का फैसला किया था बल्कि इसको दबाने में गोरी सरकार की सीधी सहायता की थी जिस बारे में बहुत कम जानकारी है।

जिन्ना की ग़द्दारी

मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली ने कांग्रेसी घोषणा की प्रतिक्रिया में अंग्रेज़  सरकार को आश्वासन देते हुए कहा,

"कांग्रेस की असहयोग की धमकी दरअसल श्री गांधी और उनकी हिंदू कांग्रेस सरकार अंग्रेज़ सरकार को ब्लैकमेल करने की है। सरकार को इन गीदड़भभकियों में नहीं आना चाहिए।"

मुस्लिम लीग और उनके नेता अंग्रेज़ी  सरकार के बर्बर दमन पर केवल पूर्णरूप से खामोश रहे बल्कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेज़  सरकार का सहयोग करते रहे। मुस्लिम लीग इससे कुछ भिन्न करे इसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी क्योंकि वह सरकार और कांग्रेस के बीच इस भिड़ंत के चलते अपना उल्लू सीध करना चाहती थी। उसे उम्मीद थी कि उसकी सेवाओं के चलते अंग्रेज़  शासक उसे पाकिस्तान का तोहफा जरूर दिला देंगे।

भारत छोड़ो आंदोलन के ख़िलाफ़  सावरकर के नेतृत्व में हिन्दू महासभा ने खुले-आम दमनकारी अंग्रेज़ शासकों की मदद की घोषणा की 

लेकिन सबसे शर्मनाक भूमिका हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रही जो भारत माता और हिंदू राष्ट्रवाद का बखान करते नहीं थकते थे। भारत छोड़ो आंदोलन पर अंग्रेज़ी शासकों के दमन का कहर बरपा था और देशभक्त लोग सरकारी संस्थाओं को छोड़कर बाहर रहे थे; इनमें बड़ी संख्या उन नौजवान छात्र-छात्राओं की थी जो कांग्रेस के आह्वान पर सरकारी शिक्षा संस्थानों को त्याग कर यानी अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर बाहर गये थे। लेकिन यह हिंदू महासभा ही थी जिसने अंग्रेज़  सरकार के साथ खुले सहयोग की घोषणा की। हिंदू महासभा के सर्वेसर्वा वीर सावरकर ने 1942 में कानपुर में अपनी इस नीति का खुलासा करते हुए कहा,

"सरकारी प्रतिबंध के तहत जैसे ही कांग्रेस एक खुले संगठन के तौर पर राजनीतिक मैदान से हटा दी गयी है तो अब राष्ट्रीय कार्यवाहियों के संचालन के लिए केवल हिंदू महासभा ही मैदान में रह गयी है...हिंदू महासभा के मतानुसार व्यावहारिक राजनीति का मुख्य सिद्धांत अंग्रेज़ सरकार के साथ संवेदनपूर्ण सहयोग की नीति है। जिसके अंतर्गत बिना किसी शर्त के अंग्रेज़ों  के साथ सहयोग जिसमें हथियार बंद प्रतिरोध भी शामिल है।"

 

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग ने साझा सरकारें चलाईं

कांग्रेस का भारत छोड़ो आंदोलन दरअसल सरकार और मुस्लिम लीग के बीच देश के बंटवारे के लिए चल रही बातचीत को भी चेतावनी देना था। इस उद्देश्य से कांग्रेस ने सरकार और मुस्लिम लीग के साथ किसी भी तरह के सहयोग का बहिष्कार किया हुआ था। लेकिन इसी समय हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ सरकारें चलाने का निर्णय लिया।वीरसावरकर जो अंग्रेज़  सरकार की खिदमत में 5-6 माफ़ी-नामे लिखने के बाद दी गयी सज़ा का केवल 1/5 हिस्सा भोगने के बाद हिन्दू महासभा के सर्वोच्च नेता बन गए थे, ने इस शर्मनाक रिश्ते के बारे में सफ़ाई देते हुए 1942 में कहा,

"व्यावहारिक राजनीति में भी हिंदू महासभा जानती है कि बुद्धिसम्मत समझौतों के जरिए आगे बढ़ना चाहिए। यहां सिंध हिंदू महासभा ने निमंत्रण के बाद मुस्लिम लीग के साथ मिली जुली सरकार चलाने की जिम्मेदारी ली। बंगाल का उदाहरण भी सबको पता है। उद्दंड लीगी जिन्हें कांग्रेस अपनी तमाम आत्मसमर्पणशीलता के बावजूद खुश नहीं रख सकी, हिंदू महासभा के साथ संपर्क में आने के बाद काफी तर्कसंगत समझौतों और सामाजिक व्यवहार के लिए तैयार हो गये। और वहां की मिली-जुली सरकार मिस्टर फजलुल हक को प्रधानमंत्रित्व और महासभा के काबिल मान्य नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में दोनों समुदाय के फायदे के लिए एक साल तक सफलतापूर्वक चली।"

यहाँ यह याद रखना ज़रूरी है कि बंगाल और सिंध के अलावा NWFP में भी हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग की गांठ-बंधन सरकार 1942 में सत्तासीन हुई।

 

श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल में मुस्लिम लीग के नेतृत्व वाली सरकार में ग्रह और उप-मुख्य मंत्री रहते हुवे 'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन' को दबाने के लिए गोरे आक़ाओं को उपाए सुझाए

हिन्दू महासभा के नेता नंबर दो श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तो हद ही करदी।  आरएसएस के प्यारे इस महँ हिन्दू राष्ट्रवादी ने बंगाल में मुस्लिम लीग के मंत्री मंडल में ग्रह मंत्री और उप-मुख्यमंत्री  हुवे अनेक पत्रों में बंगाल के ज़ालिम अँगरेज़ गवर्नर को दमन के वे तरीक़े सुझाये जिन से बंगाल में भारत छोड़ो आंदोलन को पूरे तौर पर दबाया जा सकता था। मुखर्जी ने अँगरेज़ शासकों को भरोसा दिलाया कि  कांग्रेस अँगरेज़ शासन को देश के लिया अभशाप मानती है लेकिंग उनकी मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की मिलीजुली सरकार इसे देश के लिए वरदान मानती है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ग़द्दारी

अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का रवैया 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति जानना हो तो इसके दार्शनिक एम.एस. गोलवलकर के इस शर्मनाक वक्तव्य को पढ़ना काफी होगा:

"1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आंदोलन था। इस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ करने का संकल्प लिया।"

इस तरह स्वयं गोलवलकर, जिन्हें गुरुजी भी कहा जाता है, से हमें यह तो पता चल जाता है कि संघ ने आंदोलन के पक्ष में परोक्ष रूप से किसी भी तरह की हिस्सेदारी नहीं की। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी भी प्रकाशन या दस्तावेज़ या स्वयं गुरुजी के किसी दस्तावेज़  से आज तक यह पता नहीं लग पाया है कि संघ ने अप्रत्यक्ष रूप से भारत छोड़ो आंदोलन में किस तरह की हिस्सेदारी की थी। गुरुजी का यह कहना कि भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का रोजमर्रा का काम ज्यों का त्यों चलता रहा, बहुत अर्थपूर्ण है। यह रोजमर्रा का काम क्या था इसे समझना जरा भी मुश्किल नहीं है। यह काम था मुस्लिम लीग के कंधे से कंधा मिलाकर हिंदू और मुसलमान के बीच खाई को गहराते जाना।

गोलवलकर साझे स्वतंत्रता आंदोलन से कितनी नफ़रत करते थे उस का अंदाज़ा उनके निम्न लिखित ब्यान से लगाया जा सकता है। इस शर्मनाक ब्यान की एक ख़ास बात ये है कि बिहार की जनता को ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने के लिए कितना ज़लील किया गया है:

"निश्चित रूप से संघर्ष के बुरे परिणाम सामने आते हैं। 1920-21 के [असहयोग] आंदोलन के बाद लड़के बेलगाम हो गए। यह नेताओं पर कीचड़ उछालने का प्रयास नहीं है। लेकिन संघर्ष के बाद ये अवश्यंभावी परिणाम हैं। बात यह है कि हम इन परिणामों को ठीक से नियंत्रित नहीं कर पाए। 1942 के बाद, लोग अक्सर यह सोचने लगे कि कानून के बारे में सोचने की कोई ज़रूरत नहीं है। यह आंदोलन, विशेष रूप से बिहार में, व्यापक रूप से फैला। आज हम देखते हैं कि वहाँ रेलगाड़ियाँ रोकी जाती हैं, जंजीरें खींची जाती हैं और बिना टिकट यात्रा आम बात है... यह सारी अव्यवस्था और विचित्र स्थिति इसी संघर्ष की उपज है।"

 

आरएसएस के संस्थापक, डा. के.बी. हेडगेवार (डाक्टरजी) और उनके उत्तराधिकारी, गोलवलकर (गुरुजी) ने अंगे्रज़ शासकों के विरुद्ध किसी भी आंदोलन अथवा कार्यक्रम में कोई भागीदारी नहीं की। भारत छोड़ो आंदोलन ही नहीं  अँगरेज़ सरकार के विरुद्ध किसी भी आंदोलन को वे कितना नापसन्द करते थे इसका अंदाज़ा श्री गुरुजी के इन शब्दों से लगाया जा सकता हैः

"नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने के विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है। समय-समय पर देश में उत्पन्न परिस्थिति के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती ही रहती है। सन् 1942 में ऐसी उथल-पुथल हुई थी। उसके पहले सन् 1930-31 में भी आंदोलन हुआ था। उस समय कई लोग डाक्टर जी के पास गये थे। इसशिष्टमंडलने डाक्टर जी से अनुरोध किया कि इस आंदोलन से स्वातंत्रय मिल जायेगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिए। उस समय एक सज्जन ने जब डाक्टर जी से कहा कि वे जेल जाने के लिए तैयार हैं, तो डाक्टर जी ने कहा-‘ज़रूर जाओ। लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलायेगा?’ उस सज्जन ने बताया: दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं तो आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है।तो डाक्टर जी ने कहा-‘आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलो।घर जाने के बाद वह सज्जन जेल गये संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले।"

गोलवलकर द्वारा प्रस्तुत इस ब्यौरे से यह बात स्पष्ट रूप से सामने जाती है कि आरएसएस का मक़सद आम लोगों को निराश निरुत्साहित करना था। ख़ासतौर से उन देशभक्त लोगों को जो अंगे्रज़ी शासन के ख़िलाफ़ कुछ करने की इच्छा लेकर घर से आते थे। सच तो यह है कि गोलवलकर ने स्वयं भी कभी यह दावा नहीं किया कि आरएसएस अंगे्रज़ विरोधी था। अंगे्रज़ शासकों के चले जाने के बहुत बाद गोलवलकर ने 1960 में इंदौर (मध्य प्रदेश) में अपने एक भाषण में कहाः

"कई लोग पहले इस प्रेरणा से काम करते थे कि अंगे्रज़ों को निकाल कर देश को स्वतंत्र करना है। अंगे्रज़ों के औपचारिक रीति से चले जाने के पश्चात् यह प्रेरणा ढीली पड़ गयी। वास्तव में इतनी ही प्रेरणा रखने की आवश्यता नहीं थी। हमें स्मरण होगा कि हमने प्रतिज्ञा में धर्म और संस्कृति की रक्षा कर राष्ट्र की स्वतंत्रता का उल्लेख किया है। उसमें अंगे्रज़ों के जाने जाने का उल्लेख नहीं है।"

आरएसएस ऐसी गतिविधियों से बचता था जो अंगे्रज़ी सरकार के खि़लाफ़ हों। संघ द्वारा छापी गयी डाक्टर हेडगेवार की जीवनी में भी इस सच्चाई को छुपाया नहीं जा सका है। स्वतंत्रता संग्राम में डाक्टर साहब की भूमिका का वर्णन करते हुए बताया गया हैः "संघ-स्थापना के बाद डा. साहब अपने भाषणों में हिन्दू संगठन के संबंध में ही बोला करते थे। सरकार पर प्रत्यक्ष टीका नहीं के बराबर रहा करती थी।"

अंग्रेज़ी  राज के ख़िलाफ़  संघर्ष में जो भारतीय शहीद हुए उनके बारे में गुरुजी क्या राय रखते थे वह इस वक्तव्य से बहुत स्पष्ट है-

हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिंदु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करे नहीं माना है क्योंकि अंततः वह अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी।

शायद यही कारण है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक भी कार्यकर्ता अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़  संघर्ष करते हुए शहीद नहीं हुआ। शहीद होने की बात तो दूर रही, आरएसएस के उस समय के नेताओं जैसे की गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय, बलराज मधोक, लाल कृष्ण अडवाणी, के आर मलकानी या अन्य किसी आरएसएस सदस्य ने किसी भी तरह इस महान मुक्ति आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया कियों कि आरएसएस अँगरेज़ सरकार और सावरकर का पिछलग्गू बनी थी। 

भारत छोड़ो आंदोलन के 83 साल गुज़रने के बाद भी कई महत्वपूर्ण सच्चाईयों से पर्दा उठना बाक़ी है। दमनकारी अंग्रेज़ शासक और उनके मुस्लिम लीगी प्यादों के बारे में तो सच्चाईयां जगजाहिर है लेकिन अगस्त क्रांति के हिंदुतवादी गुनहगार जो अंग्रेज़ी सरकारी द्वारा चलाए गए दमन चक्र में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल थे अभी भी कठघरे में खड़े नहीं किए जा सके हैं। सबसे शर्मनाक बात तो यह है कि वे भारत पर राज कर रहे हैं। हिंदू राष्ट्रवादियों की इस भूमिका को जानना इसलिए भी ज़रूरी है ताकि आज उनके द्वारा एक प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष भारत के साथ जो खिलवाड़ किया जा रहा है उसके आने वाले गंभीर परिणामों को समझा जा सके।

[आरएसएस और सावरकर के तमाम उद्धरण उनके दस्तावेज़ों से लिए गए हैं।] 

शम्सुल इस्लाम

अगस्त 9, 2025

एस. इस्लाम के अंग्रेज़ी , हिंदी, उर्दू, मराठी, मलयालम, कन्नड़, बंगाली, पंजाबी, गुजराती में लेखन और कुछ वीडियो साक्षात्कार/बहस के लिए देखें :

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