स्वतंत्रता संग्राम में आरएसएस की भूमिका: पीएम मोदी के दावों से उलट हैं ऐतिहासिक साक्ष्य
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आरएसएस शताब्दी समारोह में संघ की स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका का गुणगान किया, लेकिन ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि आरएसएस ने न तो स्वतंत्रता आंदोलन में संगठित भागीदारी की और न ही अंग्रेजों से टकराव किया.
डॉ. आंबेडकर अंतरराष्ट्रीय केंद्र (दिल्ली) में बुधवार (1 अक्टूबर) को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के शताब्दी समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संघ की स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका का गुणगान किया.
मोदी के अनुसार, ‘डॉक्टर हेडगेवार जी समेत अनेक कार्यकर्ताओं ने स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया, कई बार जेल तक गए’ और ‘1942 में चिमूर में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में अनेक स्वयंसेवकों को अंग्रेजों के भीषण अत्याचार का सामना करना पड़ा.’
यह कोई नया दावा नहीं है. इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने भी 18 मार्च 1999 को डॉ. हेडगेवार की 110वीं जयंती पर स्मारक डाक टिकट जारी करते हुए उन्हें ‘महान स्वतंत्रता सेनानी और देशभक्त’ बताया था, यह दावा करते हुए कि उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में यथोचित स्थान नहीं दिया गया है.
लेकिन इन राजनीतिक दावों के विपरीत, इतिहासकारों और शोधकर्ताओं का एक बड़ा वर्ग इस बात पर जोर देता रहा है कि आरएसएस की वास्तविक भूमिका स्वतंत्रता आंदोलन में सहयोग की नहीं, बल्कि विरोध और विघटन की रही है.
नरेंद्र मोदी खुद आरएसएस के प्रचारक रहे हैं. 30 मार्च 2025 को वह संघ के मुख्यालय (नागपुर) भी गए थे, ऐसा करने वाले वह देश के पहले प्रधानमंत्री हैं. मोदी की पार्टी (भाजपा) का वैचारिक स्रोत भी आरएसएस ही रहा है, जो इस वर्ष अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है. (फोटो: पीआईबी)
इतिहासकार ने पीएम मोदी के दावों का किया खंडन
दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. शम्सुल इस्लाम ने प्रधानमंत्री मोदी के दावों का तीखा खंडन किया है.
उनके अनुसार, ‘आरएसएस दरअसल भारतीय जनता के साम्राज्यवाद विरोधी संग्राम का हिस्सा कभी नहीं रहा है.’
इस्लाम के मुताबिक, 1925 में अपनी स्थापना से ही आरएसएस अपनी पहचान हिंदू राष्ट्रवादी संगठन के रूप में बनाने की कोशिश में लगा हुआ था और ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध भारतीय जनता के साम्राज्यवाद विरोधी संग्राम को विफल बनाने में उसी तरह लगा हुआ था जैसे मुस्लिम लीग कर रही थी.
हेडगेवार की पहली जेल यात्रा: कांग्रेसी या आरएसएस नेता?
प्रधानमंत्री मोदी और पहले वाजपेयी जी ने जिस ‘स्वतंत्रता सेनानी’ हेडगेवार की प्रशंसा की, उनकी जेल यात्राओं का सच थोड़ा भिन्न है.
इस्लाम के अनुसार, डॉ. हेडगेवार ने जो योगदान दिया था, वह उन्होंने एक कांग्रेस कार्यकर्ता की हैसियत से किया था, न कि आरएसएस नेता के रूप में.
हेडगेवार की जीवनी (संघ-वृक्ष के बीज – डॉक्टर केशवराव हेडगेवार) में लिखा है कि उनको पहली बार जेल, आरएसएस के गठन से पहले 1920-21
के खिलाफत आंदोलन के समर्थन में भड़काऊ भाषण देने के आरोप में हुई थी. उन्हें एक साल की सश्रम कारावास की सजा दी गई थी.
हेडगेवार की यह जीवनी प्रमाणिक मानी जाती है, क्योंकि इसे आरएसएस से संबद्ध समाचार पत्र ‘तरुण भारत’ के पूर्व प्रधान संपादक और बचपन से स्वयंसेवक,
फिर प्रचारक रहे चन्द्रशेखर परमानन्द भिशीकर ने लिखा है. मूल रूप से मराठी में प्रकाशित इस जीवनी के हिंदी अनुवाद की प्रस्तावना कुप्पहल्ली सीतारामय्या सुदर्शन ने लिखी है, जो संघ के 5वें सरसंघचालक भी रह चुके हैं.
महात्मा गांधी और कांग्रेस का निर्देश था कि खिलाफत आंदोलन में हिस्सा लेने पर गिरफ्तार होने की स्थिति में कोई किसी वकील की सेवा नहीं लेगा. लेकिन हेडगेवार ने उस निर्देश का खुला उल्लंघन किया और वकील की सेवा ली. लेकिन संघ का मानना है कि हेडगेवार ने ऐसा एक रणनीति के तहत किया, क्योंकि वह अदालत के मंच का इस्तेमाल देशभक्ति के विचारों को फैलाने के लिए करना चाहते थे.
1930 की नमक सत्याग्रह: गुप्त उद्देश्य
हेडगेवार की दूसरी जेल यात्रा 1930 के नमक सत्याग्रह के दौरान हुई. लेकिन यहां भी कहानी दिलचस्प है. उनकी जीवनी के अनुसार, हेडगेवार ने सब जगह सूचना भिजवाई थी कि ‘संघ इस सत्याग्रह में भाग नहीं लेगा, किन्तु जिन्हें व्यक्तिगत रूप से इसमें भाग लेना हो उन्हें मनाही नहीं है.’ इसका मतलब था कि संघ में जिम्मेदारी वहन करने वाला कार्यकर्ता सत्याग्रह में भाग नहीं ले सकता था.
लेकिन हैरतअंगेज तरीके से डॉक्टर साहब खुद गांधी जी के डांडी नमक सत्याग्रह में निजी तौर पर शामिल हो गए. आरएसएस के स्वयंसेवक और प्रचारक द्वारा लिखी उनकी जीवनी इसके पीछे के गुप्त उद्देश्य का खुलासा करती है, ‘ऐसा विश्वास भी डॉ. साहब के मन में था कि वहां जो स्वातंत्र्य प्रेमी, त्यागी व प्रतिष्ठित मंडली साथ में रहेगी, उनसे संघ के संबंध में चर्चा कर उन्हें काम के साथ जोड़ा जा सकेगा.’
यानी हेडगेवार नमक सत्याग्रह के प्रति समर्पण की वजह से नहीं, बल्कि संघ में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को शामिल करने के मकसद से डांडी आंदोलन में शामिल हुए थे और इसके परिणामस्वरूप ही उन्हें जेल हुई थी.
संघ-वृक्ष के बीज – डॉक्टर केशवराव हेडगेवार/चन्द्रशेखर परमानन्द भिशीकर
इस बार हेडगेवार एक माह जेल में रहे और उनकी जीवनी में लिखा है कि वह ‘कारगार में भी संघ का कार्य’ करते रहे.
‘डाक्टर साहब ने भी इस पूरी कालावधि में क्षण भर के लिए भी संघ-कार्य को आंखों से ओझल नहीं होने दिया. उन्होंने कारागृह में आये समस्त नेताओं और कार्यकर्ताओं से निकट के संबंध जोड़े, उन्हें संघ कार्य समझाया और उनसे भविष्य में कार्य के लिए सहयोग करने का आश्वासन भी प्राप्त कर लिया. कार्य-विस्तार के लिए एक बड़ी छलांग लगाने की योजना बनाकर ही वे कारागार से बाहर आए.’
1934 में कांग्रेस का प्रतिबंध
कांग्रेस नेतृत्व को जल्द समझ में आ गया कि तमाम सांप्रदायिक और विभाजनकारी संगठन अपनी शातिर साजिशों को अंजाम देने के लिए कांग्रेस कार्यकर्ताओं के गलत इस्तेमाल की कोशिश में लगे हुए हैं. इसलिए 1934 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने बाकायदा एक प्रस्ताव पारित करके कांग्रेस सदस्यों के आरएसएस, हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के सदस्य बनने पर रोक लगा दी.
1942 का भारत छोड़ो आंदोलन: आरएसएस की भूमिका
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान आरएसएस की भूमिका सबसे विवादास्पद रही है. प्रधानमंत्री मोदी ने चिमूर आंदोलन का जिक्र करते हुए दावा किया कि ‘अनेक स्वयंसेवकों को अंग्रेजों के भीषण अत्याचार का सामना करना पड़ा.’ लेकिन इतिहासकारों के अनुसार वास्तविकता अलग है.
आरएसएस अपने प्लेटफॉर्म्स व पत्रिकाओं में कभी-कभी चिमूर आंदोलन का ज़िक्र करता है, पर संघ की इस आंदोलन में संगठित भूमिका का ऐतिहासिक सबूत नहीं मिलता है. इतिहासकारों के अनुसार, 1942 में चिमूर विद्रोह स्वतंत्रता सेनानियों और आम जनता का था, वहां मौजूद कुछ स्वयंसेवकों की व्यक्तिगत भागीदारी संभव रही हो पर यह संघ की नीतिगत, संगठित भागीदारी नहीं थी.
शम्सुल इस्लाम बताते हैं कि आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने खुद स्वीकार किया था कि ‘1942 में भी स्वयंसेवकों के मन में उथल-पुथल तो थी, लेकिन संघ ने कुछ भी प्रत्यक्ष नहीं किया.’ उन्होंने यह भी माना कि ‘न केवल बाहरी लोग बल्कि हमारे कई स्वयंसेवक भी यह कहने लगे कि संघ निष्क्रिय व्यक्तियों का संगठन है, इनकी बातों में कोई दम नहीं है.’
ब्रिटिश सरकार के अभिलेखागारों में मिले दस्तावेज़ स्पष्ट रूप से बताते हैं कि आरएसएस को कोई राष्ट्रीय खतरा नहीं माना जाता था. बॉम्बे सरकार की एक रिपोर्ट में लिखा था: ‘संघ ने सावधानीपूर्वक खुद को कानून की सीमा के भीतर रखा है, और विशेष रूप से, अगस्त 1942 में फूट पड़ी गड़बड़ियों में भाग लेने से बचा रहा.’
क्या इतिहास बदलने की कोशिश हो रही है?
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी आरएसएस की भूमिका पर सवाल उठाए जाते रहे. पीएम मोदी के हालिया बयान के बाद मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने सोशल मीडिया पर एक लंबा पोस्ट साझा किया है:
‘1942 में अंग्रेजों के खिलाफ शुरू हुए ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में जब पूरा देश जेल जा रहा था, तब आरएसएस इस आंदोलन को दबाने में अंग्रेजों की मदद कर रहा था. आरएसएस की इस गद्दारी पर एक नारा सबकी जुबान पर था- जो देशभक्त थे, वो जंग में गए, जो गद्दार थे, वो संघ में गए.’
आज जब प्रधानमंत्री मोदी ने आरएसएस के शताब्दी समारोह में स्वतंत्रता संग्राम में संघ की भूमिका का गुणगान किया और एक विशेष डाक टिकट तथा 100 रुपये का स्मारक सिक्का जारी किया, तो इसे ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करने का प्रयास माना जा रहा है.
इतिहासकार शम्सुल इस्लाम के शब्दों में कहें तो ‘भारत के स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक भी कार्यकर्ता अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करते हुए शहीद होने की बात तो दूर रही, आरएसएस के उस समय के नेताओं जैसे कि गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय, बलराज मधोक, लाल कृष्ण अडवाणी, के आर मलकानी या अन्य किसी आरएसएस सदस्य ने किसी भी तरह इस महान मुक्ति आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया.’
आज जब आरएसएस अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है और सरकार उसे स्वतंत्रता संग्राम का योद्धा बताने की कोशिश कर रही है, तो क्या इतिहास को फिर से लिखा जा रहा है? क्या उन तथ्यों को दबाया जा रहा है जो आरएसएस की वास्तविक भूमिका को उजागर करते हैं?
अंकित राज,
02/10/2025
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