Wednesday, April 30, 2025

स्वतंत्रता सेनानी सावरकर: सुप्रीम कोर्ट के माननीय जस्टिस दीपांकर दत्ता और मनमोहन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास फिर से लिखा!

 स्वतंत्रता सेनानी सावरकर: सुप्रीम कोर्ट के माननीय जस्टिस दीपांकर दत्ता और मनमोहन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास फिर से लिखा! 

प्रेस रिपोर्टों के अनुसार, जस्टिस दीपांकर दत्ता [फरवरी 2030 में सेवानिवृत्त होंगे] और जस्टिस मनमोहन [2027 में सेवानिवृत्त होंगे] की सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने विनायक दामोदर सावरकर (1883-1966) के बारे में अपमानजनक टिप्पणी के संबंध में लखनऊ की एक अदालत द्वारा कांग्रेस नेता राहुल गांधी के खिलाफ शुरू की गई कानूनी कार्यवाही को 25 अप्रैल, 2025 को अस्थायी रूप से रोक दिया। राहुल पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 153 ए (शत्रुता को बढ़ावा देना) और 505 (सार्वजनिक शरारत) के तहत अपराध का आरोप लगाया गया था। स्थगन देते समय पीठ ने दर्ज किया कि राहुल को “कानून की सुरक्षा ” हासिल थी, जो उन्हें समन पर स्थगन के आदेश का हकदार बनाती है।  

हालांकि, पीठ ने राहुल को ऐसे बयानों के खिलाफ कड़ी मौखिक चेतावनी दी। न्यायाधीशों ने राहुल को आगाह किया कि अगर इसी तरह के बयान दोहराए गए तो अदालत स्वतः संज्ञान लेकर कार्रवाई शुरू कर सकती है। न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा: “हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने हमें स्वतंत्रता दिलाई है।” लखनऊ मानहानि का मामला 17 नवंबर, 2022 को भारत जोड़ो यात्रा के दौरान गांधी की टिप्पणी के बाद दायर किया गया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि सावरकर ने अंग्रेजों के साथ मिलकर काम किया और पेंशन प्राप्त की। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा समन रद्द करने से इनकार करने के बाद राहुल ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। सुनवाई के दौरान, सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने राहुल के वकीलों अभिषेक मनु सिंघवी और प्रसन्ना एस से पूछा कि क्या “क्या वह [राहुल] जानते हैं कि उनकी दादी ने भी स्वतंत्रता सेनानी को उनकी प्रशंसा करते हुए एक पत्र भेजा था?” उन्होंने कहा, “आप इतिहास को जाने बिना ऐसे बयान नहीं दे सकते…” [‘Supreme Court Stays Summons Against Rahul Gandhi Over Savarkar Remarks’, The Wire, 25-04-2025. https://thewire.in/law/supreme-court-stays-summons-against-rahul-gandhi-over-savarkar-remarks]

एक अन्य प्रेस रिपोर्ट के अनुसार न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने राहुल को फटकार लगाते हुए कहा कि “उनके बयान अन्य लोगों को अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ इसी तरह की टिप्पणी करने के लिए प्रेरित करेंगे”। उन्होंने  राहुल को यह भी याद दिलाया कि महाराष्ट्र में सावरकर को “भगवान के रूप में पूजा जाता है”। न्यायमूर्ति दत्ता ने राहुल के वकीलों से पूछा कि क्या उनके मुवक्किल को पता है कि “महात्मा गांधी ने भी वायसराय को संबोधित करते समय ‘आपका वफादार सेवक’ शब्द का इस्तेमाल किया था… कल, कोई कह सकता है कि महात्मा गांधी अंग्रेजों के सेवक थे… आप इस तरह के बयानों को बढ़ावा दे रहे हैं”।

सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार और शिकायतकर्ता लखनऊ निवासी नृपेंद्र पांडे को नोटिस जारी किया है। मामले की अगली सुनवाई आठ सप्ताह बाद तय की गई है।

[Krishnadas Rajagopal, ‘Remarks on Savarkar: Supreme Court stays summons to Rahul Gandhi in defamation case’, The Hindu, April, 25, 2025 https://www.thehindu.com/news/national/savarkar-defamation-case-supreme-court-stays-summons-against-rahul-gandhi/article69489931.ece]

आइए हम इन माननीय न्यायाधीशों के इस दावे की कि सावरकर (महान स्वतंत्रता सेनानियों की हिंदूवादी सूची में एकमात्र 'वीर') महान स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने भारत को स्वतंत्रता दिलाई की तुलना हिंदू महासभा और आरएसएस के अभिलेखागारों में उपलब्ध समकालीन दस्तावेजों के साथ करें।


तिरंगे के प्रति सावरकर की नफ़रत

सावरकर, ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय लोगों के एकजुट संघर्ष के हर प्रतीक से नफरत करते थे। उन्होंने तिरंगे (उस समय तिरंगे के बीच में चरख़ा हुआ करता था) को राष्ट्रीय ध्वज या स्वतंत्रता संग्राम का झंडा मानने से इनकार कर दिया। 22 सितंबर, 1941 को हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं के शिक्षण के लिए जारी एक बयान में उन्होंने घोषणा की,

"जहाँ तक ध्वज के प्रश्न का प्रश्न है, हिंदुओं को महासभा के ध्वज 'कुण्डलिनी कृपाणंकित' जिस पर 'ओम और स्वस्तिक' अंकित है, जो हिंदू जाति और नीति के सबसे प्राचीन प्रतीक हैं, के अलावा हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई दूसरा ध्वज नहीं मालूम है। हिंदुओं का ये ध्वज युगों-युगों से चला  आ रहे हैं जिनका पूरे हिंदुस्तान में सम्मान किया जाता है... [यह] हजारों केंद्रों पर हिंदू सभा की हर शाखा पर फहराया जाता है। इसलिए, कोई भी स्थान या समारोह जहाँ इस अखिल हिंदू ध्वज का सम्मान नहीं किया जाता है, उसका हिंदू संगठनों द्वारा किसी भी कीमत पर बहिष्कार किया जाना चाहिए... विशेष रूप से चरख़ा-ध्वज खादी-भंडार का प्रतिनिधित्व कर सकता है, लेकिन चरख़ा कभी भी हिंदुओं जैसे गौरवशाली और प्राचीन राष्ट्र की भावना का प्रतीक और प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है।"

[Bhide, A. S. (ed.), Vinayak Damodar Savarkar’s Whirlwind Propaganda: Extracts from the President’s Diary of his Propagandist Tours Interviews from December 1937 to October 1941, na, Bombay, 1940, p. 470-73.]


सावरकर ने द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन जिन्ना से बहुत पहले किया था। 

मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने मार्च 1940 में पाकिस्तान की मांग की। जिन्ना द्वारा द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को प्रतिपादित करने से बहुत पहले सावरकर ने 1937 में हिंदू महासभा का नेतृत्व संभाला। उसी वर्ष अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा: 

"भारत में दो विरोधी राष्ट्र एक साथ रह रहे हैं, कई बचकाने राजनेता यह मानकर गंभीर ग़लती करते हैं कि भारत पहले से ही एक सामंजस्यपूर्ण राष्ट्र में तब्दील हो चुका है...भारत को आज एक एकीकृत और समरूप राष्ट्र नहीं माना जा सकता है, बल्कि इसके विपरीत भारत में मुख्य रूप से दो राष्ट्र हैं: हिंदू और मुसलमान।"

[Samagra Savarkar Wangmaya: Hindu Rashtra Darshan (Collected works of Savarkar in English), vol. 6, Hindu Mahasabha, Pune, 1963, p. 296.]


सावरकर के नेतृत्व में हिंदू महासभा ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ब्रिटिश सरकार को बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा की। 

9 अगस्त 1942 को गांधी जी के 'करो या मरो' के आह्वान के साथ भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई, ताकि अंग्रेजों को भारत से बाहर निकाला जा सके। ब्रिटिश शासकों ने 8 अगस्त को ही बड़े पैमाने पर लोगों को हिरासत में लेकर तुरंत हमला बोला ।  गांधी जी और कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व सहित 100,000 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया, सामूहिक जुर्माना लगाया गया और प्रदर्शनकारियों को सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे गए। हिंसा में सैकड़ों नागरिक मारे गए, जिनमें से ज़्यादातर पुलिस और सेना की गोलियों से मारे गए। कांग्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अंग्रेज़ शासकों के देश व्यापी दमन और क़त्लेआम के काल में सावरकर ने ब्रिटिश शासकों को पूर्ण समर्थन देने की घोषणा की थी। 1942 में कानपुर में हिंदू महासभा के 24वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए, सावरकर ने शासकों के साथ सहयोग करने की हिंदू महासभा की रणनीति को निम्नलिखित शब्दों में रेखांकित किया:

“हिंदू महासभा का मानना है कि सभी व्यावहारिक राजनीति का प्रमुख सिद्धांत उत्तरदायी सहयोग (अंग्रेजों के साथ Responsive Cooperation) की नीति है।” उन्होंने “हिंदू महासभा के पार्षदों, मंत्रियों, विधायकों और किसी भी नगरपालिका या किसी भी सार्वजनिक निकाय के हिन्दू महासभाई नेत्रत्व से उत्तरदायी सहयोग की पेशकश करने का आह्वान किया, जिसमें बिना शर्त सहयोग से लेकर सक्रिय और यहां तक कि सशस्त्र प्रतिरोध तक देशभक्ति गतिविधियों का पूरा दायरा शामिल है…”


[V. D. Savarkar, Hindu Rashtra Darshan, vol. 6, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, p. 112.]


सावरकर के नेतृत्व में हिंदू महासभा ने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान मुस्लिम लीग के साथ साझा सरकारें चलायीं 

जब भारत छोड़ो आंदोलन के आह्वान के बाद काँग्रेस पर पाबंदी लगा दी गई और इस की सरकारें गिरा दी गयीं तब हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग ने बंगाल और सिंध (और बाद में उत्तर-पश्चिम बंगाल) में गठबंधन सरकार चलाने के लिए हाथ मिलाया। हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के बीच कांग्रेस के खिलाफ इस मिलीभगत का बचाव करते हुए सावरकर ने कहा, 

"व्यावहारिक राजनीति में भी महासभा जानती है कि हमें उचित समझौतों के माध्यम से आगे बढ़ना चाहिए। इस तथ्य को देखें कि हाल ही में सिंध में, सिंध-हिंदू-सभा ने निमंत्रण पर गठबंधन सरकार चलाने के लिए लीग के साथ हाथ मिलाने की जिम्मेदारी ली थी। बंगाल का मामला अच्छी तरह से जाना जाता है। जंगली लीगर्स... जैसे ही वे हिंदू महासभा और गठबंधन सरकार के संपर्क में आए, श्री फजलुल हक के प्रधानमंत्रित्व (उस समय CM को प्रधान मंत्री कहा जाता था) और हमारे सम्मानित महासभा नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कुशल नेतृत्व में, दोनों समुदायों के लाभ के लिए एक साल या उससे अधिक समय तक सफलतापूर्वक काम किया।"


[Samagra Savarkar Wangmaya: Hindu Rashtra Darshan (Collected works of Savarkar in English), Hindu Mahasabha, Pune, 1963, pp. 479-80.]


यह ध्यान देने योग्य बात है कि सावरकर के दायें हाथ, श्यामा प्रसाद मुखर्जी मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की बंगाल की मिली-जुली सरकार में उप प्रधानमंत्री-गृह मंत्री थे और उनके पास बंगाल में भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने की ज़िम्मेदारी थी जिस को उन्हों ने सफलता-पूर्वक अंजाम भी दिया।। 

सावरकर ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की पीठ में छुरा घोंपा 

जब नेताजी भारत से पलायन करके सैन्य रूप से स्वतंत्र करने की योजना बना रहे थे, तो सावरकर ने ब्रिटिश आक़ाओं को पूर्ण सैन्य सहयोग की पेशकश की। 1941 में भागलपुर में हिंदू महासभा के 23वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए उन्होंने घोषणा की:

“हमारे सर्वोत्तम राष्ट्रीय हितों की मांग है कि जहां तक भारत की रक्षा का सवाल है, हिंदुओं को बिना किसी हिचकिचाहट के, भारतीय सरकार के युद्ध प्रयासों के साथ उत्तरदायी सहयोग की भावना से गठबंधन करना चाहिए, जहां तक यह हिंदू हितों के अनुरूप है, सेना, नौसेना और हवाई बलों में यथासंभव बड़ी संख्या में शामिल होकर और सभी आयुध, गोला-बारूद और युद्ध शिल्प कारखानों में प्रवेश सुनिश्चित करके…यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि युद्ध में जापान के प्रवेश ने हमें सीधे और तुरंत ब्रिटेन के दुश्मनों के हमले के लिए उजागर कर दिया है…इसलिए, हिंदू महासभाइयों को, विशेष रूप से बंगाल और असम के प्रांतों में हिंदुओं को बिना एक मिनट भी गंवाए सभी हथियारों के सैन्य बलों में प्रवेश करने के लिए यथासंभव प्रभावी ढंग से जगाना चाहिए।”

[Samagra Savarkar Wangmaya: Hindu Rashtra Darshan (Collected works of Savarkar in English), vol. 6, Hindu Mahasabha, Pune, 1963, pp.]

हिंदू महासभा के दस्तावेजों के अनुसार सावरकर एक लाख हिंदुओं को ब्रिटिश सशस्त्र बलों में शामिल होने के लिए प्रेरित करने में सफल रहे, जिन्होंने पूर्वी भारत में आजाद हिन्द सेना के देश-भक्त सिपाहियों को मारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

सावरकर की दया याचिकाएँ अंग्रेज़ शासकों के सामने पूर्ण समर्पण की दस्तावेज़े हैं।

वीर सावरकर ने 1911, 1913, 1914, 1918 और 1920 में कम से कम 5 दया याचिकाएँ गोरे हुक्मरानों की सेवा में प्रस्तुत कीं। सावरकरवादियों का दावा है कि ये कायरता के कार्य के रूप में नहीं बल्कि “शिवाजी के एक उत्साही अनुयायी के रूप में प्रस्तुत की गई थीं; सावरकर युद्ध में मरना चाहते थे। इसे एकमात्र रास्ता पाते हुए, उन्होंने अपनी रिहाई के लिए अंग्रेजों को छह पत्र लिखे”। उपलब्ध दो दया याचिकाओं का अवलोकन यह साबित करेगा कि इस दावे से बदतर कोई झूठ नहीं हो सकता कि सावरकर की दया याचिकाएँ शिवाजी द्वारा मुग़ल शासकों को सफलतापूर्वक धोखा देने के लिए इस्तेमाल की गई चालों से मेल खाती थीं। 14 नवंबर 1913 की दया याचिका निम्नलिखित शब्दों के साथ समाप्त हुई:

“अगर सरकार अपनी अनेक कृपा और दया से मुझे रिहा कर देती है, तो मैं संवैधानिक प्रगति और अंग्रेज़ीसरकार के प्रति वफादारी का सबसे बड़ा समर्थक बन सकता हूँ, जो उस प्रगति की सबसे बड़ी शर्त है। …इसके अलावा, संवैधानिक मार्ग पर मेरा धर्मांतरण भारत और विदेशों में उन सभी गुमराह युवाओं को वापस लाएगा जो कभी मुझे अपने मार्गदर्शक के रूप में देखते थे। मैं सरकार की किसी भी क्षमता में सेवा करने के लिए तैयार हूँ, क्योंकि मेरा धर्मांतरण कर्तव्यनिष्ठ है, इसलिए मुझे उम्मीद है कि मेरा भविष्य का आचरण भी ऐसा ही होगा। मुझे जेल में रखने से वह सब कुछ नहीं मिल सकता जो अन्यथा मिल सकता है। केवल शक्तिशाली ही दयालु हो सकता है और इसलिए भटका हुआ बेटा [prodigal son] सरकार के माता-पिता के दरवाजे के अलावा और कहाँ लौट सकता है?”


[Reproduced from RC Majumdar, Penal Settelment in Andamans, Government of India, Delhi, 1975, pp-211-213.]


ब्रिटिश स्वामियों के इस ‘भटके  हुए पुत्र’ की 30 मार्च 1920 की याचिका निम्नलिखित शब्दों के साथ समाप्त हुई: 

"मेरे शुरुआती जीवन की शानदार संभावनाओं को बहुत जल्दी खत्म कर दिया गया, मेरे लिए इतने दर्दनाक खेद का स्रोत बन गया है कि अगर मुझे रिहा किया जाता है तो यह मेरे लिए एक नया जन्म होगा और यह मेरे संवेदनशील और विनम्र हृदय को इतनी गहराई से छूएगा कि मैं भविष्य में व्यक्तिगत रूप से जुड़ जाऊँगा और राजनीतिक रूप से उपयोगी बन जाऊँगा। क्योंकि अक्सर उदारता वहाँ भी जीत जाती है जहाँ ताकत विफल हो जाती है।"


[National Archives, Delhi]

कला पानी बंदियों द्वारा अंग्रेज़ोँ को दया याचिका लिखना कोई गलत बात नहीं थी। यह कैदियों को उपलब्ध एक महत्वपूर्ण कानूनी अधिकार था। सावरकर के अलावा, बारिन घोष (Aurobindo घोष के भाई), एच.के. कांजीलाल और नंद गोपाल ने भी दया याचिकाएँ प्रस्तुत की थीं। हालाँकि, ये केवल सावरकर और बारिन ही थे जिन्होंने अपने क्रांतिकारी अतीत के लिए क्षमा मांगी और रिहा होकर गोरे शासकों की सेवा करने का बिना शर्त वचन दिया। कांजीलाल और नंद गोपाल ने कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं मांगा, बल्कि आज़ादी की लड़ाई को ज़रूरी बताते हुए राजनीतिक कैदियों का दर्जा मांगा।


सावरकर को 50 साल की सज़ा में से 37.5 साल की छूट मिली 

सावरकर को 4 जुलाई, 1911 को अंडमान में दो आजीवन कारावास [50 साल] के लिए क़ैद  किया गया था। 2 मई, 1921 को [नौ साल दस महीने के बाद] उन्हें अपने बड़े भाई बाबाराव के साथ मुख्य भूमि पर स्थानांतरित कर दिया गया। उन्हें अंततः बारह साल छह महीने की कुल सज़ा काटने के बाद 6 जनवरी, 1924 को यरवदा जेल से सशर्त रिहा कर दिया गया। अँग्रेज़ी जाइलों में उन्हों ने कुल 12.5 साल गुजारे जो पूरी सज़ा का केवल ¼ हिस्सा थे। 

रिहाई के बाद सावरकर को मासिक पेंशन मिलती थी

सावरकर के पहले आधिकारिक जीवनीकार धनंजय कीर, जिन्हें सावरकर के परिवार नियुक्त किया था,  ने इस तथ्य की पुष्टि की कि “रत्नागिरी के ज़िला मजिस्ट्रेट ने 50 रुपये मासिक गुज़ारा भत्ता तय किया था और बाद में इसे बढ़ाकर 60 रुपये कर दिया था।”

[Dhananjay Keer, Veer Savarkar, Popular Prakashan, Bombay, 1950, p. 219]

सावरकर ने हिंदू राजाओं जो ब्रिटिशों के पिट्ठू थे का खुलकर बचाव किया 

सावरकर देशी भारत पर शासन करने वाले हिंदू राजाओं के महान पक्षधर थे बल्कि यह कहना सही होगा कि उनके दिल से वफ़ादार थे।। सावरकर के अनुसार, “हिंदू राजकुमार न केवल सह-धर्मी थे, बल्कि अतीत में बहादुर हिंदू राजाओं के वंशज भी थे”। हिंदू महासभा और आरएसएस दोनों ने गर्व से देशी भारत पर ब्रिटिश शासकों के साथ मिलकर शासन करने वाले हिंदू राजकुमारों को हिंदू धर्म के 'शक्ति-स्थान' (सत्ता के केंद्र) के रूप में वर्णित किया। इसका निश्चित रूप से मतलब था कि हिंदू संप्रदायवादी नेतृत्व को न तो मेहनतकश हिंदू जनता की आकांक्षाओं के बारे में कोई जानकारी थी और न ही उनका मानना था कि हिंदू राजकुमार भारत में ब्रिटेन के पांचवें स्तंभ के अलावा कुछ नहीं थे। यहां महत्वपूर्ण तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि केवल वे राजकुमार (हिंदू और मुस्लिम दोनों) जो 'विद्रोह' को दबाने में सेना और युद्ध सामग्रियों का योगदान देकर विदेशी शासकों के प्रति वफादार रहे, उन्हें 1857 के बाद की अवधि में औपनिवेशिक आकाओं द्वारा देशी शासकों के रूप में बनाए रखा गया।

ये हिंदू शासक गोरे आकाओं के सच्चे और प्रतिबद्ध गुर्गे थे, जिन्होंने अपने राज्यों में कभी भी किसी लोकतांत्रिक गतिविधि की अनुमति नहीं दी, यही बात सरदार पटेल ने कई बार रेखांकित की थी। इन देशी राज्यों में बुनियादी मानवाधिकारों की मांग करने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ बलात्कार, हत्या, अपंगता और भयानक उत्पीड़न के अनगिनत मामले थे। मैसूर एक हिंदू रियासत थी जो सावरकर की प्रिय थी, जहाँ तिरंगे को सलामी देने की हिम्मत करने पर शासक की पुलिस ने 26 देशभक्त भारतीयों की हत्या कर दी थी। चौंकाने वाली बात यह है कि इस नरसंहार के बचाव में, जिसने पूरे भारत में आक्रोश की लहर फैला दी थी, सावरकर ने 17 अप्रैल, 1941 को शिमोगा में मैसूर हिंदू सभा सत्र को निम्नलिखित संदेश भेजा था:

"मैसूर राज्य हिंदू सभा का मुख्य उद्देश्य हिंदू राज्य में हिंदू शक्ति को मजबूत करना और महाराजा और हिंदू राज्य के सुख-दुख में उनके साथ खड़ा होना और राजा  और रजवाड़े की रक्षा के लिए उन्हें सबसे वफादार और भक्तिपूर्ण समर्थन देना होना चाहिए, ताकि किसी भी गैर-हिंदू ताकतों या छद्म राष्ट्रवादी संगठनों के हिंदू अनुयायियों द्वारा की गई किसी भी विध्वंसक गतिविधि के खिलाफ़ उनका बचाव किया जा सके।"

[AS Bhide, Vinayak Damodar Savarkar’s Whirlwind Propaganda: Extracts from the President’s Diary of his Propagandist Tours Interviews from December 1937 to October 1941, na, Hindu Mahasabha, Bombay, p. 343]

सावरकर चाहते थे कि अगर अंग्रेज़ भारत छोड़ने का फैसला करते हैं तो नेपाल के राजा भारत पर शासन करें। 

सावरकर ने यहां तक कहा कि अगर अंग्रेज़ भारत छोड़ देते हैं तो नेपाल के राजा को 'स्वतंत्र हिंदुस्तान के भावी सम्राट' के रूप में नियुक्त करना वैध है। ब्रिटिश शासकों को उनकी सलाह बहुत स्पष्ट थी: "अगर आज के सभी कारकों में से एक अकादमिक संभावना पर विचार किया जाए, तो महामहिम नेपाल के राजा, शिसोदिया के वंशज, के पास ही भारत का शाही ताज जीतने का सबसे अच्छा मौका है। यह अजीब लग सकता है, लेकिन अंग्रेज़ इसे हम हिंदुओं से बेहतर जानते हैं...यह असंभव नहीं है कि नेपाल को भारत के भाग्य को नियंत्रित करने के लिए भी बुलाया जा सकता है। यहां तक कि ब्रिटेन भी इसे अधिक सम्मानजनक मानेगा कि भारतीय साम्राज्य का प्रभुत्व, अगर कभी उसकी पकड़ से फिसल भी जाए, तो उसे महामहिम नेपाल के राजा जैसे ब्रिटेन के समान और स्वतंत्र सहयोगी को सौंप दिया जाना चाहिए, न कि निज़ाम जैसे ब्रिटेन के एक जागीरदार और पराजित शक्तिशाली व्यक्ति को।" [मूल के अनुसार इटैलिक]


[Bhide, AS, (ed.), Vinayak Damodar Savarkar’s Whirlwind Propaganda: Extracts from the President’s Diary of his Propagandist Tours Interviews from December 1937 to October 1941, na, Bombay, 1940, pp. 256-57.]

भारत के पहले गृह मंत्री सरदार पटेल ने गांधी की हत्या के लिए हिंदू महासभा और आरएसएस दोनों को जिम्मेदार ठहराया था। 

सरदार पटेल ने 18 जुलाई, 1948 को हिंदू महासभा के प्रमुख नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लिखे पत्र में स्पष्ट रूप से कहा:

“जहां तक आरएसएस और हिंदू महासभा का सवाल है, गांधीजी की हत्या से जुड़ा मामला अदालत में विचाराधीन है और मैं दोनों संगठनों की भागीदारी के बारे में कुछ नहीं कहना चाहूंगा, लेकिन हमारी रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि इन दोनों संगठनों, खासकर पूर्व की गतिविधियों के परिणामस्वरूप देश में ऐसा माहौल बना, जिसमें इतनी भयावह त्रासदी संभव हो सकी। मेरे मन में इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं है कि हिंदू महासभा का एक अतिवादी वर्ग इस साजिश में शामिल था। आरएसएस की गतिविधियां सरकार और राज्य के अस्तित्व के लिए एक स्पष्ट खतरा थीं। हमारी रिपोर्टें बताती हैं कि प्रतिबंध के बावजूद ये गतिविधियां कम नहीं हुई हैं। दरअसल, जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, आरएसएस के लोग और अधिक विद्रोही होते जा रहे हैं और अपनी विध्वंसक गतिविधियों में तेजी से शामिल हो रहे हैं।”

[Letter 64 in Sardar Patel: Select Correspondence1945-1950, volume 2, Navjivan Publishing House, Ahmedabad, 1977, pp. 276-77.]


यह हैरान करने वाली बात है कि राहुल को मौखिक रूप से निंदक घोषित करने के बावजूद पीठ ने उन्हें राहत दे दी। क्या वे अपने मौखिक हस्तक्षेप के बारे में सुनिश्चित नहीं थे? इस तथ्य के लिए धन्यवाद कि फिलहाल मौखिक तौर पर सावरकर के समर्थन में दिए गई टिप्पणियों  को 25 तारीख़ वाले आदेश में नहीं डाला गया है, लेकिन अगर भविष्य में ऐसा किया जाता है तो हम न्यायिक आदेश के माध्यम से सावरकर को एक पवित्र व्यक्ति का दर्जा देते हुए देखेंगे, जिस पर कभी सवाल नहीं उठाया जाएगा। भारत को डॉ. बीआर अंबेडकर सहित असंख्य लेखन को कूड़ेदान में डालना होगा और उन शोधकर्ताओं के खिलाफ मुकदमा दायर करना होगा जो असली सावरकर को जानना चाहते हैं।

न्यायमूर्ति दत्ता ने राहुल को एक और अजीब सबक़ भी दिया।  सावरकर और एमके गांधी दोनों ही स्वतंत्रता सेनानी थे क्योंकि "महात्मा गांधी ने भी वायसराय को संबोधित करते समय 'आपका वफ़ादार सेवक' कहा था"। लॉर्डशिप संबोधित करने के तरीके को तो पढ़ कर बताते हैं (औपनिवेशिक काल के दौरान शासितों द्वारा इन शब्दों सभी संचारों में उपयोग किया जाता था) और उनके द्वारा लिखे गए पत्रों को पढ़ने की जहमत नहीं उठाते। सावरकर ने अपने क्रांतिकारी अतीत को त्यागते हुए रिहाई की भीख मांगी, उनकी कारावास की अवधि 50 साल से घटाकर केवल 12.5 साल [3/4 छूट] कर दी गई और उन्हें मासिक पारिवारिक पेंशन दी गई, जैसा कि हमने ऊपर चर्चा की है। न्यायमूर्ति दत्ता ने यह तर्क देकर केवल महात्मा गांधी को बदनाम किया है कि जहां तक ब्रिटिश आकाओं के प्रति दृष्टिकोण का सवाल है, तो महात्मा गांधी और सावरकर एक ही ज़मीन पर खड़े थे। 

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने सही कहा कि राहुल की दादी, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सावरकर की प्रशंसा की थी। उन्हों ने राहूल की “इतिहास जाने बिना” सावरकर के बारे में बोलने पर फटकार लगाई। असल मसला यह ही है। असली सावरकर को जाने बिना इंदिरा गांधी ने सावरकर की प्रशंसा की और माननीय न्यायाधीश दीपांकर दत्ता और मनमोहन उन्हें अपना आदर्श मन रहे हैं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कहानी की त्रासदी यह रही है कि हिंदू राष्ट्रवाद को भारतीय राष्ट्रवाद के बराबर माना गया। स्वतंत्रता के बाद के अधिकांश इतिहासकारों ने ऊपर प्रस्तुत किए गए सावरकर के बारे में स्पष्ट तथ्यों को छिपाए रखा। दोनों लॉर्ड्स को स्वतंत्रता संग्राम के वास्तविक इतिहास को जानने के लिए रिफ्रेशर कोर्स का सहारा लेना चाहिए। वे साधारण लोग नहीं हैं, देश के संविधान की सुरक्षा करना उन का फ़र्ज़ है। उन्हें हिन्दुत्ववादी प्रचार से भ्रमित नहीं होना चाहिये। 

दोनों महामहिम अगर इस एक सवाल का ही जवाब देदें तो देश पर बाद अहसान होगा: यदि सावरकर ‘वीर’ थे और उन्होंने भारत को स्वतंत्रता दिलाई, तो भगत सिंह, राजगुर, सुखदेव, अशफ़ उल्लाह, चंदेरशेखर आज़ाद,राजेन्द्र लहीरी, रोशन सिंह, उधम सिंह जैसे  हज़ारों शहीद कौन थे!


Shamsul Islam

April 28, 2025

शम्सुल इस्लाम के अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, मराठी, मलयालम, कन्नड़, बंगाली, पंजाबी, गुजराती में लेखन और कुछ वीडियो साक्षात्कार/बहस के लिए देखें :

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