क्या भारतीय राज्य हिन्दुओं के सैन्यीकरण की ख़तरनाक
हिन्दुत्ववादी योजना का मार्ग प्रशस्त कर रहा है?
वर्तमान समय में, भारतीय सुरक्षा बलों को संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और चीन के बाद दुनिया की चौथी सबसे शक्तिशाली सेना के
रूप में स्थान हासिल है, जिसमें जापान पाँचवें स्थान पर है। इसमें लगभग 3,544,000 फ़ौजी हैं, जिनमें रिज़र्व कर्मियों के रूप में काम करनेवाले 2,100,000
के साथ 1,444,000 सक्रिय ड्यूटी पर हैं।[1]
इसे बांग्लादेश युद्ध 1971, कारगिल
युद्ध 1999,
पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर 2019 में सर्जिकल स्ट्राइक जैसे असंख्य सैन्य अभियानों का श्रेय
दिया जाता है। भारतीय सेना ने तमिल विद्रोहियों लिट्टे (1987-90) को दबाने में श्रीलंका के राज्य की प्रत्यक्ष रूप से मदद
की;
और दुनिया के 43 से अधिक विभिन्न हिस्सों में संयुक्त राष्ट्र शांति-सेना के
सैन्य अभियानों में अभूतपूर्व योगदान दिया। भारतीय सेना की वेबसाइट के अनुसार “भारत
संयुक्त राष्ट्र को योगदान देनेवाली तीसरी सबसे बड़ी सैन्य शक्ति है।”[2]
भारत ने अब तक 2, 00,000 भारतीय
सैनिकों को इन अभियनों में भेजा है।[3]
भारतीय सेना ने एक सुरक्षित दूरी बनाए रखी
है
हालाँकि, यह बहुत दुखद है कि जब भारत एक विनाश से गुज़र रहा है,
जिसकी तुलना केवल 1947 के विभाजन से की जा सकती है; दुनिया की चौथी सबसे ताक़तवर सेना ने जो ‘मदद’ की है उसको दिखावा भी नहीं कहा जा सकता। लगभग पिछले
दो महीनों के अचानक लॉकडाउन ने निर्णायक रूप से साबित कर दिया है कि भारतीय राज्य
ने पूरी तरह से मज़दूर वर्ग और ग़रीब भारतीयों को धोखा दिया है। नौकरी, भोजन, आश्रय, परिवहन और स्वास्थ्य संबंधी देखभाल के अभाव में उनमें से बीसियों
लाखों को भयानक समय और त्रासदियों को भुगतना पड़ा और
अब भी भुगत रहे हैं ।
हृदय विदारक कहानियाँ जो देश के लगभग सभी
भागों से आ रही हैं, उनको शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। इस देश के लाचार
मज़दूर जिस तरह से भूख, पुलिस की बर्बरता का शिकार होकर दर-दर मारे फिर रहे हैं,
मारे जा रहे हैं, और सड़कों और रेल की पटरियों पर कुचले जा रहे हैं, उन्हें देश का
मीडिया और नेता ‘प्रवासी’ मज़दूर बता रहे हैं, मानो
वे विदेशों से आए हों । यह एक तरह का नस्लवाद है । वे भारतीय श्रमिक
जो काम करने के लिए देश के विभिन्न भागों में जाते हैं, उन्हें ‘प्रवासी’ श्रमिक बताया
जा रहा है। इस शब्द का उपयोग उन लोगों के लिए नहीं किया जाता है जो सफ़ेद-पोश
नौकरियाँ करते हैं या राजनेताओं में शामिल होते हैं ।
भारतीय सशस्त्र बलों के तीन विंग; थल सेना, वायु
सेना और नौसेना के पास बेहतरीन नवीतम चिकित्सा, परिवहन और संचार साधन हैं जिनपर ताला पड़ा है। यह आश्चर्यजनक
बात है कि इन सभी राष्ट्रीय सुविधाओं को उग्र कोविड -19 महामारी की सामना करने के लिए लॉकडाउन में रखा गया है जब
भारत को डॉक्टरों, अस्पतालों, वाहनों, हवाई
जहाज़ और उच्च गुणवत्ता वाली पेशेवर संचार सुविधाओं की सख़्त ज़रूरत थी, और है।
भारत के सभी प्रमुख शहरों में अत्याधुनिक सैन्य अस्पताल हैं, जो अगर कोविड -19 के रोगियों के लिए खोले जाते, तो इससे नागरिक स्वास्थ्य
सेवाओं पर असहनीय दबाव कम हो जाता। यदि अति प्रभावित क्षेत्रों में कम संख्या में
ही सैन्य डॉक्टरों और नर्सिंग स्टाफ़ की प्रतिनियुक्ति की जाती, तो कष्टों और मौतों को कम किया जा सकता था।
लॉक-डाउन ने दिखा दिया कि 'प्रवासी'
श्रमिक किस तरह से पीड़ित हैं और अपने मूल स्थानों तक पहुंचने की कोशिश करते हुए उन्हें
कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है; जबकि सड़क, रेल
सेवाएँ उनकी मदद करने में लगभग असमर्थ हैं। संभव है भारतीय सेना के पास जो शक्तिशाली
परिवहन क्षमता उपलब्ध है, और उसका इस्तेमाल किया गया होता तो इस स्थिति में
थोड़ी-बहुत सहायता हो सकती थी। इसी तरह, अंतरिक्ष में सशस्त्र बलों और अपने उपग्रहों की एक
केंद्रीकृत और अत्याधुनिक निगरानी प्रणाली के बावजूद (जिसका उपयोग करके भारत
पाकिस्तान में आतंकवादी केंद्रों की पहचान करने में सक्षम था और जिसकी तबाही को 'सर्जिकल स्ट्राइक' के रूप मनाया था) करोड़ों तबाह हाल लोगों की भीड़, जिनमें
गर्भवती महिलाएँ, बच्चे, बूढ़े और विकलांग व्यक्ति हैं, सड़कों और रेल की पटरियों
पर चल रही है (इनमें से कई लोग इन जोखिम भरी यात्राओं को करते हुए मारे गए) उनकी
पहचान की गई होती और उन्हें सेना के वाहनों या हवाई जहाज़ों में ले जाया गया होता।
भारतीय सेनाओं ने इतनी ज़िम्मेदीरी ज़रूर
निभायी कि उन्होंने जिन अस्पतालों में कोविड-19 के मरीज़ थे पर हेलिकाप्टरों से फूलों
की पंखुड़ियों की बौछार की, अस्पतालों
के बाहर मौजूद थल सेना, नौसेना, वायुसेना के बैंडों ने सार्वजनिक रूप से धुनें
बजायीं। यह सब चिकित्सा वर्ग की इन चेतावनियों के बावजूद किया गया कि फूलों की यह
बौछार वायरस फैलने का एक गंभीर कारण हो सकती है और क़ानूनी रूप से अस्पताल ‘शोर
रहित’ क्षेत्रों में आते हैं। यह ज़ाहिरी तौर पर कोविड -19 के ख़िलाफ़ 'योद्धाओं' का
सम्मान करने के एक ‘महान’ उद्देश्य के साथ किया गया था। अस्ल में तो भारतीय सेना
के हस्तक्षेप का मतलब यह होना चाहिए कि कम से कम रेड ज़ोन में चिकित्सा और
पैरा-मेडिकल कर्मचारियों की एक छोटी संख्या को ही नियुक्त किया जाए। वास्तव में, महामारी से लड़ने के लिए अफ़्रीकी देशों के सशस्त्र बलों
सहित दुनिया के कई देशों को तैनात किया गया है, जिन्होंने इस लड़ाई में ज़बरदस्त
सक्रिय भूमिका निभायी और निभा रहे हैं।[4]
भारतीय सेना ने कोविड-19 महामारी के दौरान
3 वर्षीय सैन्य प्रशिक्षण की योजना सार्वजनिक की
यह आश्चर्यजनक है कि कोविड -19 के समय में अलग-थलग रहे भारतीय सशस्त्र बल भारतीयों को 3 साल की स्वैच्छिक ‘ड्यूटी के दौरे’ के लिए नियोजित करने की योजना के साथ सामने आये।[5]
भारतीय सेना की एक विज्ञप्ति के अनुसार,
“यह प्रस्ताव इंटर्नशिप या तीन साल के अस्थायी अनुभव के रूप
में, सशस्त्र बलों में स्थायी सेवा/नौकरी की अवधारणा में एक बदलाव है। यह उन
युवाओं के लिए है, जो “रक्षा सेवाओं को अपना स्थायी व्यवसाय नहीं बनाना चाहते हैं, लेकिन फिर भी सैन्य कौशल के रोमांच का अनुभव करना चाहते
हैं”।
इस नवोन्मेषी योजना के पीछे के औचित्य को
समझाते हुए विज्ञप्ति में लिखा गया कि यह भारतीय युवाओं के दरमियान जो ‘राष्ट्रवाद
और देशभक्ति का उफान आया है’ और भारत के नवजवान बेरोज़गारी झेल रहे हैं, उसके
मद्देनज़र किया गया है। इस प्रस्ताव में यह भी कहा गया है कि इन तीन वर्षों की कमाई को कर-मुक्त बनाया जा
सकता है और वे सभी जो 'ड्यूटी के
दौरे'
(tour of duty) का हिस्सा
होंगे,
उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों के साथ-साथ
स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में भी वरीयता दी जा सकती है।
इस तरह सरकारी नौकरियों और शिक्षण
संस्थाओं में एक नयी आरक्षण व्यवस्था की नींव डाली जा रही है जिनपर न तो संबंधित
मंत्रालयों और न ही संसद ने चर्चा की है। नोट में इस तथ्य पर भी ज़ोर दिया गया कि
यह युवा वर्ग की ऊर्जा को उनके सकारात्मक उपयोग में लाने
में मदद करेगा। और यह “कठोर सैन्य प्रशिक्षण और अभ्यास स्वस्थ नागरिकता पैदा करने में
सहायक सिद्ध होगा”।[6]
यह उद्घोषणा एक नयी नीति प्रस्तावित करती
है, जिसपर लोकसभा या रक्षा विभाग स्तर के मंत्रालय में न कभी चर्चा हुई न उसके
बारे में सुना गय। इस घोषणा का एक और आश्चर्यचकित करनेवाला पहलू यह है कि देश के
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह या भारत के मुख्य सेनापति जनरल बिपिन रावत द्वारा भारतीय
सेना में भर्ती के नए तरीक़े और कार्यकाल के बारे में सार्वजनिक घोषणा नहीं की गयी, बल्कि सेना के एक प्रेस-नोट के माध्यम से बताया गया। सेना
के प्रवक्ता कर्नल अमन आनंद ने पुष्टि की कि इस तरह के प्रस्ताव पर चर्चा की जा
रही है। विपक्षी राजनैतिक दलों और मीडिया ने इस प्रस्ताव पर प्रतिक्रिया देने का
कष्ट नहीं किया जो कि लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत के भविष्य के लिए एक
निर्णायक क्षण साबित हो सकता है।
कोविड -19 के दौरान उपर्युक्त नोट ने कई महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं, जिनके उत्तर लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारतीय राजनीति के
भविष्य को निर्धारित करने के लिए ढूँढ़ने होंगे। ज़ोरदार दावा किया गया कि 3-वर्ष की स्वैच्छिक ‘टूर ऑफ़ ड्यूटी’ से बेरोज़गारी को कम
करने में मदद मिलेगी। यह दावा यह धारणा देता है कि करोड़ों बेरोज़गार भारतीय युवाओं में से कुछ लाख इस योजना के तहत
अवशोषित होने जा रहे हैं। भारतीय सेना बेरोज़गारी को कम करने में किस तरह से मदद
कर रही है, यह इस तथ्य से
जाना जा सकता है कि यह 1.5 लाख नौकरियों में कटौती करके बल की ताक़त को कम करने की योजना बना रही है।
कुछ वर्गों में कटौती 20% तक होने वाली है।[7]
राष्ट्रवाद, देशभक्ति तथा स्वस्थ नागरिकता का 3 वर्षीय
सैन्य प्रशिक्षण
सेना के नोट ने इस योजना का औचित्य बताते हुए कहा कि यह
“राष्ट्रवाद और देशभक्ति के पुनरुत्थान” के प्रत्युत्तर में है और “कठोर सैन्य
प्रशिक्षण एवं आदतों से स्वस्थ नागरिकता का कारण बनेगा”। इस तरह राष्ट्रवाद, देशभक्ति
और स्वस्थ नागरिकता सैन्य प्रशिक्षण के समतुल्य ठहरी। इस तरह के नारे आमतौर पर
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सुने गये और वर्तमान में उत्तर कोरिया और यहूदी इसराईल
जैसे अधिनायकवादी राज्यों में सुने जाते हैं।
हिन्दू राष्ट्रवाद के
कर्णधारों ने हिन्दुत्व के सैन्यीकरण की योजना हिटलर और मुसोलिनी से ली है
वास्तविकता यह है कि ‘हिन्दू समाज के सैन्यीकरण’ की योजना
हिन्दू राष्ट्रवादियों के बुज़ुर्गों के एक पुराने प्रोजेक्ट का हिस्सा रही है जिस का वे विश्व में नाज़ीवाद और फ़ासीवाद के आगमन के साथ
ज़ोर शोर से प्रचार करते रहे हैं। भारतीय राजनीति की
जानी-मानी इतालवी शोधकर्ता, मरज़िया कासोलारी
ने एक ओर हिंदू महासभा और आरएसएस के संस्थापकों के बीच भ्रातृ संबंधों का पता
लगाने में और दूसरी ओर किस तरह इन हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों ने फ़ासीवाद और
नाज़ीवाद के यहूदियों और कम्युनिस्टों का सफाया करने के लिए जो समाज के सैन्यीकरण
की योजना बनाई थी उस के अनुसरण करने की योजना का खुलासा करने में अग्रणी भूमिका
निभायी है । प्रमुख हिंदू राष्ट्रवादियों के प्राथमिक स्रोतों पर आधारित दस्तावेज़ों के उनके अग्रणी कार्य के अनुसार, फ़ासीवाद और नाज़ीवाद के जिस पहलू ने उनको सब से ज़्यादा प्रभावित किया वह था समाज का सैन्यीकरण। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार के गुरुओं में से
एक, बालकृष्ण शिवराम मुंजे ने, जो कि हिन्दू राष्ट्रवादी ख़ेमे में ‘धर्मवीर’ के
नाम से जाने जाते थे ने, लंदन राउंड टेबल सम्मेलन (फ़रवरी-मार्च 1931) से लौटते
हुए फ़ासीवादी इटली का दौरा किया, जिस का निमंत्रण उन्हें मुसोलिनी से मिला था । वहां
उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण फ़ासीवादी सैन्य स्कूलों (मिलिट्री कॉलेज, सेंट्रल
मिलिट्री स्कूल ऑफ़ फ़िज़िकल एजुकेशन, फ़ासिस्ट अकेडमी ऑफ़ फ़िज़िकल एजुकेशन; बालिला) का दौरा किया, इस यात्रा का मुख्य कारण मुसोलिनी के साथ मुलाक़ात थी। मुंजे ने मुसोलिनी की सैन्यीकरण परियोजना
की प्रशंसा की और भारत में इसे लागू करने की योजना बनाई।
उन्हों लिखा:
“भारत और
विशेष रूप से हिंदू भारत को हिंदुओं के सैन्य उत्थान के लिए ऐसी कुछ संस्थाओं की आवश्यकता
है, ताकि अंग्रेज़ों द्वारा हिंदुओं के बीच लड़ाकू और
ग़ैर-लड़ाकू (martial और non-martial) जिस कृत्रिम
अंतर पर ज़ोर दिया गया, वह समाप्त हो सके ... हेडगेवार के अधीन नागपुर का हमारा
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसी प्रकार का संगठन है, हालांकि यह काफी स्वतंत्र परिकल्पना है।
मैं अपना पूरा जीवन महाराष्ट्र और अन्य प्रांतों में हेडगेवार के इस संस्थान के
विकास और विस्तार में बिताऊंगा। "[8]
जैसे ही वे
पुणे पहुंचे, उन्होंने ‘द
महाराष्ट्र’ अख़बार को एक इंटरव्यू दिया। हिंदू समुदाय के सैन्य पुनर्गठन के
बारे में, उन्होंने सेना
के ‘भारतीयकरण’ करने की
आवश्यकता पर बल दिया और उम्मीद जताई कि सेना (अँगरेज़) में
जबरन भर्ती अनिवार्ये हो जाएगी और एक भारतीय को रक्षा मंत्रालय का प्रभारी बनाया जाएगा।
उन्होंने अपनी डायरी में इतालवी और जर्मन (सैन्यीकरण के) उदाहरणों का स्पष्ट उल्लेख किया:
“वास्तव में, नेताओं को जर्मनी के युवा आंदोलनों और इटली के बालिला और
फ़ासीवादी संगठनों की नक़ल करनी चाहिए। मुझे लगता है कि वे भारत के लिए अत्यंत रूप
से अनुकूल हैं, उन्हें भारत की विशेष परिस्थितियों के अनुरूप अपना लेना चाहिए ।
मैं इन आंदोलनों से बहुत प्रभावित हुआ हूं और मैंने उनकी गतिविधियों को अंत्यंत
विस्तार से अपनी आँखों से देखा है। ”31 मार्च,
1934 को मुंजे की डायरी के अनुसार, उन्होंने हेडगेवार और लालू गोखले के साथ एक बैठक की जिसका
विषय फिर इतालवी और जर्मनी की तरह फ़ासीवादी और नाजीवादी तर्ज़ पर हिंदुओं का सैन्य
संगठन खड़ा करना था । मुंजे ने बैठक में कहा
“मैंने हिंदू
धर्मशास्त्र पर आधारित एक योजना तैयार की है, जो पूरे भारत में हिंदू धर्म के
मानकीकरण का प्रावधान करती है...लेकिन बात यह है कि इस आदर्श को तब तक लागू नहीं
किया जा सकता जब तक कि हमारे पास वर्तमान के मुसोलिनी या हिटलर या प्राचीन काल के
शिवाजी की तरह का हिन्दू तानाशाह मौजूद न हो...लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जब
तक भारत में ऐसा तानाशाह उभरकर सामने न आए हम हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहें। हमें एक
वैज्ञानिक योजना (सैन्यीकरण के लिए) तैयार करनी चाहिए और
उसे आगे बढ़ाने के लिए प्रचार करना चाहिए... ”
मरज़िया के अनुसार,
मुंजे ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि हिंदू समाज को सैन्य रूप से पुनर्गठित
करने का उनका विचार “इंग्लैंड,
फ़्रांस, जर्मनी और इटली
के सैन्य प्रशिक्षण स्कूलों” से प्रेरित था। मुंजे की ‘सेंट्रल हिन्दू मिलिट्री तथा उसके मिलिट्री स्कूल की योजना की
प्रस्तावना’, जिसे उन्होंने प्रभावशाली हिन्दू
राष्ट्रवादी और अँगरेज़ हस्तियों के बीच
प्रसारित किया, साफ़ तौर पर बताती है:
“इस प्रशिक्षण का मतलब हमारे लड़कों को ऐसी शिक्षा देना और
क़ाबिल बनाना है की वे विजय प्राप्त करने की महात्वाकांक्षा के साथ, दुश्मनों
को ज़्यादा से ज़्यादा घायल होने तथा हताहत
होने की संभावित क्षति के साथ, सामूहिक जनसंहार के खेल के लिए योग्य बनें और
विरोधियों को जितना ज़्यादा नुक़सान हो कर सकें।"
यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि मुंजे की दृष्टि में 'विरोधी' का मतलब बाहरी
दुश्मन, अँगरेज़ नहीं
थे, बल्कि 'ऐतिहासिक' आंतरिक
दुश्मन, मुसलमान था। वास्तव में, इस स्कूल का उद्घाटन बॉम्बे राज्य के तत्कालीन गवर्नर सर
रोजर लुमली ने किया था। इसके अलावा, इस स्कूल ने द्वितीय विश्व युद्ध के लिए हिंदू युवाओं की
आपूर्ति करने में अँगरेज़ सेना की मदद की। इस सैन्य स्कूल को अंग्रेज़ों की दो पुराने
दलाल राजघरानों, भोंसले और सिंधिया द्वारा वित्तपोषित किया गया था। मुंजे ने 'हिंदू समाज का
सैन्यीकरण' के नारे को हिन्दू राष्ट्रवादियों का मुख्य आह्वान बनाने में एहम
भूमिका निभायी।
सावरकर का योगदान
आरएसएस के
'वीर' विनायक दामोदर सावरकर ब्रिटिश सेना में हिंदुओं के लिए 100 से अधिक
भर्ती शिविर आयोजित करने की हद तक गए,
जबकि नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत को विदेशों की सैनिक मदद से मुक्त करने की कोशिश कर
रहे थे। यह भारत के हिंदुओं का सैन्यीकरण करने की सावरकर की रणनीति का हिस्सा था।
सावरकर ने हिंदुओं का आह्वान किया कि “वे [ब्रिटिश] सेना, नौसेना और
हवाई सेनाओं में हिन्दू संघटनवादी मानसिकता से ओतप्रोत लाखों हिंदू योद्धाओं को भर
दें,” और उन्हें आश्वासन दिया कि यदि हिंदू ब्रिटिश सशस्त्र- बलों
में भर्ती होते हैं, तो-
“हमारा हिंदू राष्ट्र युद्ध के बाद के मुद्दों का सामना
करने के लिए अधिक शक्तिशाली, संगठित
और अधिक लाभप्रद स्थिति में होगा। - चाहे वह आंतरिक हिंदू विरोधी नागरिक युद्ध हो
या संवैधानिक संकट या सशस्त्र क्रांति।”[9]
मुसलमानों और ईसाइयों का सफ़ाया करने की आरएसएस
की योजना
आरएसएस
अपनी स्थापना (1925) के समय से ही एक मुख्य
एजेंडे के लिए काम कर रहा है; और
वह है भारत से मुसलमानों और ईसाइयों का सफ़ाया। आरएसएस के संस्थापक हेडगेवार ने
कांग्रेस छोड़ी थी, क्योंकि कांग्रेस
के नेतृत्व में स्वतंत्रता संघर्ष साझे राष्ट्रवाद के लिए देश की आज़ादी
चाहता था, जिसमें मुसलमान राष्ट्र का हिस्सा होंगे। हेडगेवार के
उत्तराधिकारी, माधव सदाशिव गोलवलकर ने
अपनी पुस्तक, ‘वी ऑर अवर नेशनहुड
डिफ़ाइंड’ (1939) में हिटलर
द्वारा यहूदियों के सफ़ाए की प्रशंसा करते हुए स्पष्ट रूप से कहा कि आरएसएस इसका
अनुकरण करना चाहेगा।
“जर्मनों
का नस्ली गर्व अब दिनचर्या का विषय बन गया है। नस्ल और उसकी संस्कृति की शुद्धता
बनाए रखने के लिए, जर्मनी ने सामी नस्ल के यहूदियों
के देश का सफ़ाया करके दुनिया को चौंका दिया। यहाँ नस्ली गर्व अपने उच्चतम स्तर पर
प्रकट हुआ। जर्मनी ने यह भी दिखाया है कि ज़बरदस्त मूलभूत विभेद रखनेवाली नस्लों
और संस्कृतियों को एकजुट करना पूरी तरह असंभव है, इसमें हमारे हिन्दुस्थान के लिए एक सबक़ है जिससे लाभ उठाना
चाहिए। ”[10]
स्वतंत्र
भारत के जन्म के बाद भी मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति घृणा में कोई कमी नहीं आयी।
नफ़रत के गुरु गोलवलकर ने, भारत के 'आंतरिक ख़तरे' नामक एक अध्याय लिखा। आरएसएस के विचारक एम.एस. गोलवलकर के
लेखन के संकलन ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’
में एक लंबा अध्याय है, जिसका शीर्षक है, 'आंतरिक ख़तरे' जिसमें मुसलमानों और ईसाइयों को क्रमशः नंबर एक और नंबर दो
का ख़तरा बताया गया है। कम्युनिस्टों को 'आंतरिक ख़तरा' नंबर तीन होने का ‘सम्मान’ मिला।[11]
2014 में मोदी के सत्ता में आने के साथ ही हिंदुत्व का रथ बेलगाम दौड़ने लगा और आरएसएस के नेताओं
ने बेशर्मी से घोषणा की कि 2021 तक भारत में मुसलमानों और ईसाइयों का सफ़ाया हो जाएगा।[12]
‘लव-जिहाद’, ‘घर-वापसी’
और गाय के नाम पर एक आक्रामक अभियान शुरू
हुआ, जिसमें मुसलमानों, दलितों और ईसाइयों की
लिंचिंग की गयी। मोदी के शासन के एक साल से भी कम समय में हिंदुत्व के इस उन्माद
से परेशान होकर, रोमानिया के पूर्व
राजदूत और पद्मभूषण से सम्मानित भारत के सबसे सुशोभित पुलिसकर्मियों में से एक, जूलियो रिबेरो ने 17 मार्च, 2015 को लिखाः
“आज, 86 वर्ष की आयु में, मुझे ख़तरा महसूस होता है, अनचाहे ही मैं अपने ही देश में एक अजनबी से भी कम हो गया...मैं अब एक भारतीय नहीं हूं, कम से कम हिंदू राष्ट्र के समर्थकों की नज़र में। यह मात्र संयोग है या सोची समझी योजना कि नरेंद्र मोदी की बीजेपी सरकार के मई (2014) में सत्ता में आने के बाद ही एक छोटे-से और शांतिपूर्ण समुदाय को निशाना बनाना शुरू हो जाता है? यह दुखद है कि यह चरमपंथी [हिंदुत्व उन्मादी] हद से बढ़े घृणा और अविश्वास के माहौल में स्वीकार्य परिधि से बाहर सीना ज़ोरी पर उतर आए हैं । कुल आबादी का मात्र 2 प्रतिशत ईसाई आबादी पर सोचे-समझे सीधे हमलों की छड़ी लग गयी है। अगर ये चरमपंथी बाद में मुसलमानों को निशाना बनाते हैं जो कि उनका लक्ष्य प्रतीत होता है, तो वे ऐसे परिणामों को आमंत्रित करेंगे जिनके बारे में सोच कर ही यह लेखक डर जाता है ।[13]
क्या
आरएसएस को पता था कि सेना में 3 साल की भर्ती की योजना शरू होने वाली है?
देश के एक प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार
की जुलाई 29, 2019 की रपट के अनुसार, आरएसएस जो एक सांस्कृतिक संगठन है, अप्रैल
2020 से अपना पहला सैनिक स्कूल उत्तर रदेश के बुलंदशहर मेंशुरू करने जा रहा
है। इस के पहले जत्थे में 160 लड़के दाखिल
किए जायेंगे। आरएसएस के वरिष्ठ नेता रज्जू
भैया के नाम पर बना यह स्कूल में प्रवेश परीक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन भी शुरू हो
गया है। 'रज्जू भैय्या सैनिक विद्या मंदिर' (आरबीएसवीएम) नामक यह सैनिक स्कूल
आरएसएस द्वारा संचालित अपने तरह का पहला स्कूल है। आरएसएस के एक वरिष्ठ नेता अजय
गोयल के अनुसार स्कूल की इमारत 20,000 वर्ग मीटर के क्षेत्र में लगभग बन चुकी है
और स्कूल में कक्षा छह में 160 बच्चों के पहले बैच के लिए आवेदन शुरू हो गए हैं।
आरबीएसवीएम के निदेशक कर्नल शिव प्रताप सिंह ने कहा, 'हम छात्रों को एनडीए, नेवल
अकादमी और भारतीय सेना की प्रौद्योगिकी परीक्षा की तैयारी कराएंगे। हम 6 अप्रैल
(2020) से सत्र शुरू कर देंगे। गोयल ने यह भी चौंकानेवाली जानकारी दी कि “देश के
बहुत सारे सैनिक अधिकारी आरएसएस और उस से जुड़े संगठनों के संपर्क में हैं। मज़े के
एबॉट यह है की यह सैनिक स्कूल जो जंग लड़ने का प्रशिक्षण देगा उसका संचालन 'राजपाल
सिंह जनकल्याण सेवा समिति' करेगी।xiv
इस स्कूल के वेबसाइट जिसे मई 26,
2020 को देखा गया के अनुसार इस स्कूल का
पहला सत्र 75 छात्रों के दाख़ले से आरम्भ हो गया है।[14]
इस सूची में सिर्फ एक ही धर्म से जुड़े छात्रों का नाम है।
एक
राज्यपाल की गृहयुद्ध की इच्छा
जूलियो रिबेरो सही थे, जब उन्होंने लिखा
था कि मुसलमानों का सफ़ाया आरएसएस के कार्यकर्ताओं का लक्ष्य है । यह किसी और के द्वारा नहीं, बल्कि आरएसएस
के एक वरिष्ठ विचारक और त्रिपुरा के राज्यपाल तथागत रॉय द्वारा अनुमोदित किया गया
। 18 जून 2017 को, आरएसएस के
इस पूजनीय हस्ती ने आरएसएस के एक अन्य पूजनीय
हस्ती श्यामा प्रसाद मुकर्जी
की बात को उद्धृत करते हुए, लिखा:
“श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 10/1/1946 को अपनी डायरी में लिखा: ‘हिंदू-मुस्लिम समस्या बिना
गृहयुद्ध के हल नहीं होगी’। यह लिंकन के विचारों जैसा था!”
ध्यान दीजिए; यह कोई सड़क छाप व्यक्ति नहीं था, जो भारत के मुसलमानों के ख़िलाफ़ गृहयुद्ध के लिए
ललकार रहा था, बल्कि सर्वोच्च संवैधानिक पदों
में से एक पर विराजमान त्रिपुरा राज्य का
राज्यपाल है । जब इस बात को लेकर उनकी आलोचना की गई, तो उन्होंने यह
कहते हुए टिप्पणी वापस लेने से इनकार कर दिया कि वह केवल एस.पी. मुखर्जी को उद्धृत
कर रहे थे। इसके अलावा, मोदी
सरकार ने उन्हें संरक्षण देना जारी रखा, क्योंकि उनसे कोई स्पष्टीकरण नहीं मांगा
गया था।[15]
आरएसएस ने भारत के आस-पास के क्षेत्र में मुस्लिमों और ईसाइयों के विरुद्ध एक नेटवर्क तैयार किया
अंतर्राष्ट्रीय मीडिया रिपोर्टों के
अनुसार,
आरएसएस दक्षिण एशिया में मुसलमानों और ईसाइयों के ख़िलाफ़
फ़ासीवादी बौद्ध संगठनों के साथ मिलकर एक
चरमपंथी गठबंधन बना रहा है। 15 अक्टूबर, 2014 को ‘डेडली
अलायन्स अगेंस्ट मुस्लिम्स’ नामक एक संपादकीय में न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस संबंध में
सनसनीख़ेज़ तथ्यों का खुलासा किया।[16]
बाबा रामदेव ने देश की सम्पत्ति की
सुरक्षा के लिए सुरक्षा एजेंसी का श्री-गणेश किया
यह कोई संयोग नहीं था कि एक हिन्दूवादी
संत और विवादास्पद प्रसिद्ध योग गुरु, भारत में सबसे अमीर व्यक्तियों में से एक तथा आरएसएस-भाजपा
शासकों के प्रिय, बाबा रामदेव
ने अपने पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट के तहत एक निजी सुरक्षा एजेंसी शुरू करने का फ़ैसला
किया। इस की के अनुसार,
“भारत भर में अपने 11 लाख योग केंद्रों से सुरक्षा कर्मियों
की सूची बनाई जाएगी। पराक्रम सुरक्षा प्राइवेट लिमिटेड नामक कंपनी युवाओं को रोज़गार
प्रदान करेगी और देश की संपत्ति की रक्षा करेगी, पतंजलि योगपीठ के प्रवक्तास
एस.के. तिजारवाला ने कहा कि ... भारत में 50 लाख सुरक्षा कर्मियोंकी आवश्यकता है।”[17]
रामदेव ने सिक्योरिटी बिज़नेस में क़दम क्यों रखा, यह समझना
मुश्किल नहीं है। वे आरएसएस और आरएसएस-भाजपा दुवारा चलाई जा रही कई सरकारों के के ब्रांड एंबेसडर हैं और
हमलावर हिन्दू राष्ट्र-वाद का प्रचार लगातार करते रहते हैं । मार्च 1916 में
उन्होंने ‘भारत माता की जय’ का जाप करने से इनकार करने वाले लोगों की मुंडी काटने
का आह्वान किया था ।[18]
यह कोई साधारण सुरक्षा एजेंसी नहीं है। रामदेव ने इसे “युवाओं को रोज़गार प्रदान करने और देश की संपत्ति की रक्षा करने” के लिए शुरू किया है । इसपर एक हिंदू राष्ट्रवादी उद्यम होने का आरोप है। ऐसे निर्गमों (outlets) के रहते आरएसएस और अन्य हिंदुत्व संगठनों को ख़ुफ़िया तौर पर आर्म्स ट्रेनिंग कैंप आयोजित करने की आवश्यकता नहीं होगी थी। रामदेव के 11 लाख योग केंद्रों में से किसी में भी प्रवेश करें और सभी प्रकार के हथियारों का प्रशिक्षण प्राप्त करें। दुर्भाग्य से, ऐसे हिंदुत्व उपक्रमों की किसी राज्य या ग़ैर-राज्य स्तर पर कोई जाँच नहीं हुई है और ना हीं यह पता है की इन को प्रशिक्षण के लिए कौन-कौन से शास्त्रों का लिसेंसे मिला है।
यदि भारतीय सेना वास्तव में बहुसंख्यक समुदाय अर्थात हिन्दुओं के सैन्यीकरण की इस परियोजना में शामिल हो जाती है, तो यह लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए एक दुखद दिन होगा, जिससे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिंदुत्व संगठनों की भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के ख़िलाफ़ गृह युद्ध की लम्बे समय से रुकी हुई परियोजना का रास्ता प्रशस्त हो जायेगा । यह जानना महत्वपूर्ण है कि धार्मिक संघर्ष के लिए हिंदुत्व प्रेम भारत के अंतर्राष्ट्रीय दुश्मनों के लिए भी अनुकूल है। भारत के दुश्मन लम्बे समय से चाहते हैं कि हमारा देश आपस में लड़कर नष्ट हो जाए जिस को पूरा करने के लिए हिन्दुत्वादी लगे हैं । यह भारत की वर्तमान लोकतांत्रिक राजनीति के लिए एक और गंभीर ख़तरे का प्रतिनिधित्व करता है। यह एक और मायने में भी खतरनाक है। मान लीजिए अगर आरएसएस-भाजपा सत्ता खो देते हैं, तो भी जंग के माहिर और आधुनिक हथियारों में प्रशिक्षित ऐसे कैडरों का इस्तेमाल लोकतांत्रिक प्रणाली को कुचलने के लिए किया जा सकता है। शम्सुल इस्लाम
20 मई, 2020
Link for some of S. Islam's writings in English,
Hindi, Urdu, Marathi, Malayalam, Kannada, Bengali, Punjabi, Gujarati and video
interviews/debates:
Facebook: shamsul
Twitter: @shamsforjustice
http://shamsforpeace.blogspot.com/
Email: notoinjustice@gmail.com
[2]https://indianarmy.nic.in/Site/FormTemplete/frmTempSimple.aspx?MnId=UNWK52erCeNK7/NAT/WtRg==&ParentID=zIwzDgCoslo5XP9swlEvSw==&flag=Hgxuy/qWNIMlPwZXSv9xLQ==
[3] https://www.mea.gov.in/articles-in-foreign-media.htm?dtl/32011/UN_Peacekeeping_Indias_Contributions
[4] https://www.iiss.org/blogs/analysis/2020/04/easia-armed-forces-and-covid-19
[5] https://indianexpress.com/article/india/army-proposes-3-year-voluntary-tour-of-duty-cites-patriotism-unemployment-6408863/]
[6] https://theprint.in/defence/indian-army-now-worlds-largest-ground-force-as-china-halves-strength-on-modernisation-push/382287/
[7] https://economictimes.indiatimes.com/news/defence/army-wants-more-on-field-plans-to-reduce-headquarters-strength/articleshow/66701327.cms?from=mdr
[8] Casolari, Marzia, ‘Hindutva’s Foreign
Tie-up in the 1930’s: Archival Evidence’, The
Economic and Political Weekly, January 22, 2000, pp. 218-228. All other
quotes on Moonje are from this article.
[9] Cited
in Savarkar, V. D., Samagra Savarkar Wangmaya: Hindu Rashtra Darshan,
vol. 6, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, pp. 461.
[13] https://indianexpress.com/article/opinion/columns/i-feel-i-am-on-a-hit-list/
[14] http://www.rbsvm.in/
[15] https://thewire.in/politics/tripura-governor-slammed-on-twitter-for-quoting-prophecy-of-hindu-muslim-civil-war
[16] https://www.nytimes.com/2014/10/16/opinion/deadly-alliances-against-muslims.html
&
https://www.hastakshep.com/old/india-its-neighbourhood-rss-building-a-deadly-alliance-against-muslims-christians/
[17] https://www.bloombergquint.com/pursuits/baba-ramdev-patanjali-enters-private-security-business-with-parakram-suraksha