Monday, October 18, 2021

वरिष्ठ आरएसएस नेता/रक्षा-मंत्री राजनाथ सिंह का गाँधी जी को अपमानित करने का एक शर्मनाक प्रयास।

 

वरिष्ठ आरएसएस नेता/रक्षा-मंत्री राजनाथ सिंह का गाँधी जी को अपमानित करने का एक शर्मनाक प्रयास

हिन्दुत्वादी विशेषकर आरएसएस से जुड़े लोग गाँधी जी को अपमानित और ज़लील करने के लिए कोई भी अवसर नहीं गंवाते हैं। आरएसएस का जितना क़द्दावर नेता होता है उतनी ही ज़्यादा बदतमीज़ी से वह उन पर कीचड़ उछालता है। गाँधी जी को अपमानित करने की श्रंखला में नवीनतम बढ़-चढ़कर भागीदार बनकर आरएसएस के एक श्रेष्ठ स्वयंसेवक जो देश के रक्षा मंत्री भी हैं, राजनाथ सिंह सामने आये हैं।  उन्हों ने  सावरकर पर एक पुस्तक के विमोचन के एक आयोजन में जहाँ आरएसएस के सर्वसर्वा मोहन भगवत भी मौजूद थे यह ज्ञान साझा किया कि 'वीर' सावरकर ने जो माफ़ीनामे लिखे वे गांधीजी की सलाह पर लिखे गए थे। मज़े की बात यह है की सावरकर पर जिस किताब का विमोचन हो रहा था उस के लेखकों [उदय माहूरकर व चिरायु पंडित] ने इसी आयोजन में बताया कि उनकी किताब में ऐसा कोई ज़िक्र नहीं है!

बेहद चौंकाने वाली यह सूचना आरएसएस या हिन्दुत्वादी ख़ेमे दुवारा देश से पहली बार साझा की जा रही थी। आरएसएस और हिन्दू महासभा से जुड़े लोगों ने सावरकर के जीवन पर लगभग 7 प्राधिकृत जीवनियां लिखी हैं, सावरकर जो ख़ुद एक सफल लेखक थे और जिन्हों ने अपने जीवन के पल-पल का ब्यौरा अपनी लेखनी में पेश किया है और उनके सचिव ए एस भिड़े ने उनके हर रोज़ के कार्यकलापों का संग्रह संयोजित किया है, इन में से किसी में भी सावरकर के मफ़ीनामों में गांघीजी की भूमिका का कहीं भी ज़िक्र नहीं है।      

गाँधी जी को सावरकर के मफ़ीनामों का प्रेरक बताने वाले सफ़ेद झूठ की ग़ैर-ऐतिहासिकता।

सावरकर को 50 साल की क़ैद भुगतने के लिये 4 जुलाई 1911 को काला पानी लाया  गया [वे केवल 10 साल वहां रहे और फिर महाराष्ट्र की जेलों में हस्तांतरित किये गये। कुल मिलाकर 13 साल जेल में रहे अर्थात उन्हें लगभग 37 साल की क़ैद से छूट मिली], चंद महीनों में ही उन्हों ने अपना पहला माफ़ीनामा अँगरेज़ हकूमत को पेश कर दिया। उनका सब से विस्तृत और शर्मनाक माफ़ीनामा 14 नवंबर 1913 को सीधे उस समय के अँगरेज़ ग्रह मंत्री रेजिनाल्ड क्रेडॉक को सौंपा गया। 1914 में वे एक और माफ़ीनामा पेश कर चुके थे। जब कि  गाँधी जी 1915 में ही भारत आये। गाँधी जी किस माध्यम से दक्षिण अफ़्रीका से सावरकर तक पहुंचे इस का कोई सबूत देना राजनाथ सिंह ने ज़रूरी नहीं समझा। गाँधी जी ने 1920 में ज़रूर सावरकर और उनके भाई की रिहाई की मांग उठाई लेकिन उन्हें माफ़ी मांगने की सलाह दी इस का कोई सबूत नहीं है।

सच तो यह हे कि गाँधी जी ने सावरकर और उनके भाई के बारे में जो लिखा वह सावरकर के राष्ट्र-विरोधी चरित्र को ही रेखांकित करता है। गाँधी जी ने लिखा: "वे  स्पष्ट रूप से यह जताते हैं कि अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से देश को आज़ाद करने की उनकी कोई ख़ुवाहिश नहीं है।  उस के बरक्स उन का मानना है कि भारत का भविष्य अँगरेज़ राज में ही उज्जवल हो सकता है।" 

सावरकर के माफ़ीनामे भारत की जंग-ए-आज़ादी से ग़द्दारी के ऐलान-नामे थे।

   सावरकर के 6 मफ़ीनामों के सन्दर्भ में इस पहलू से अवगत होना ज़रूरी है कि  क़ैदियों को यह अधिकार अँगरेज़ सरकार ने दिया हुआ था कि वे उनके साथ ख़राब बर्ताव, ज़ुल्म या नाइंसाफ़ी को लेकर सरकार का ध्यान आकर्षित करायें।  इसे क़ानूनी भाषा में 'मेर्सी पेटिशन' [रेहम की गुहार] कहा जाता था। काला  पानी जेल में सावरकर के समकालीन 2 क्रांतिकारी क़ैदियों ने जिन के नाम हृषिकेश कांजी और नन्द गोपाल ने अँगरेज़ शासकों के समस्त 'मेर्सी पेटिशन' पेश की थीं। इन में उन्हों ने राजनैतिक क़ैदियों पर ढाये जा रहे ज़ुल्मों की तरफ़ ध्यान दिलाया था जिस की वजह से कई इंक़लाबी दिमाग़ी संतुलन खो बैठे थे या आत्म-हत्या करने पर मजबूर हुए थे। अँगरेज़ शासकों के याद दिलाया गया था की अगर वह सोचते हैं की ज़ुल्म ढाकर क़ैदियों में इन्क़िलाब के विचार नष्ट किये जा सकते हैं तो यह उन की बड़ी भूल थी।   

इस के विपरीत हिन्दुत्वादी 'वीर' सावरकर ने जो माफ़ीनामे लिखे वे शर्मनाक होने से भी बढ़कर थे। अपने क्रांतिकारी इतिहास को एक बड़ी ग़लती मानने  से लेकर अंग्रेज़ों के सामने घुटने टेकने के साथ-साथ देश को ग़ुलाम बनाये रखने में उनको पूरा सहयोग देने का आश्वासन  भी सावरकर ने दिया। सावरकर देश से किस हद तक ग़द्दारी करने के लिए रज़ामंद थे उसकी जानकारी उनके इन शब्दों से लगायी जा सकती है।  14 नवंबर 1913 के माफ़ीनामे का अंत उन्हों ने इन शब्दों से किया:

सरकार अगर अपने विविध उपकारों और दया दिखाते हुए मुझे रिहा करती है तो मैं और कुछ नहीं हो सकता बल्कि मैं संवैधानिक प्रगति और अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादारी का, जो कि उस प्रगति के लिए पहली शर्त है, सबसे प्रबल पैरोकार बनूँगा। जब तक हम जेलों में बंद हैं तब तक महामहिम की वफ़ादार भारतीय प्रजा के हज़ारों घरों में उल्लास नहीं आ सकता क्योंकि खून पानी से गाढ़ा होता है। लेकिन हमें अगर रिहा किया जाता है तो लोग उस सरकार के प्रति सहज ज्ञान से खुशी और उल्लास में चिल्लाने लगेंगे, जो दंड देने और बदला लेने से ज़्यादा माफ़ करना और सुधारना जानती है।

इसके अलावा, मेरे संवैधानिक रास्ते के पक्ष में मन परिवर्तन से भारत और यूरोप के वो सभी भटके हुए नौजवान जो मुझे अपना पथ प्रदर्शक मानते थे वापिस आ जाएंगे। सरकार, जिस हैसियत में चाहे मैं उसकी सेवा करने को तैयार हूँ, क्योंकि मेरा मत परिवर्तन अंतःकरण से है और मैं आशा करता हूँ कि आगे भी मेरा आचरण वैसा ही होगा।

मुझे जेल में रखकर कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि रिहा करने में उससे कहीं ज़्यादा हासिल होगा। ताक़तवर ही क्षमाशील होने का सामर्थ्य रखते हैं और इसलिए एक बिगड़ा हुआ बेटा सरकार के अभिभावकीय दरवाज़े के सिवा और कहाँ लौट सकता है? आशा करता हूँ कि मान्यवर इन बिन्दुओं पर कृपा करके विचार करेंगे।

30 मार्च 1920 का माफ़ीनामा

मुझे विश्वास है कि सरकार गौर करगी कि मैं तयशुदा उचित प्रतिबंधों को मानने के लिए तैयार हूं, सरकार द्वारा घोषित वर्तमान और भावी सुधारों से सहमत व प्रतिबद्घ हूं, उत्तर की ओर से तुर्क-अफगान कट्टरपंथियों का खतरा दोनों देशों के समक्ष समान रूप से उपस्थित है, इन परिस्थितयों ने मुझे ब्रिटिश सरकार का इर्मानदार सहयोगी, वफादार और पक्षधर बना दिया है। इसलिए सरकार मुझे रिहा करती है तो मैं व्यक्तिगत रूप से कृतज्ञ रहूंगा। मेरा प्रारंभिक जीवन शानदार संभावनाओं से परिपूर्ण था, लेकिन मैंने अत्यधिक आवेश में आकर सब बरबाद कर दिया, मेरी जिंदगी का यह बेहद खेदजनक और पीड़ादायक दौर रहा है। मेरी रिहार्इ मेरे लिए नया जन्म होगा। सरकार की यह संवेदनशीलता दयालुता, मेरे दिल और भावनाओं को गहरार्इ तक प्रभावित करेगी, मैं निजी तौर पर सदा के लिए आपका हो जाऊंगा, भविष्य में राजनीतिक तौर पर उपयोगी रहूंगा। अक्सर जहां ताकत नाकामयाब रहती है उदारता कामयाब हो जाती है।

गाँधी जी ने सावरकर को रिहाई का रास्ता सुझाया और सावरकर ने उनकी हत्या कराई!

एक क्षण के लिए हम मान लेते हैं कि  गाँधी जी के सुझाव पर सावरकर ने माफ़ीनामे लिखे थे।  इस का साफ़ मतलब हुआ कि गांधी जी सावरकर से हमदर्दी रखते थे, उनके प्रति कोई द्वेष नहीं रखते थे और उनकी रिहाई चाहते थे। इस का सिला या इनाम सावरकर और उनके गुर्गों ने गाँधी जी को किया दिया; उनकी निर्मम हत्या कराई गयी। सावरकर सीधे गाँधी जी की हत्या की साज़िश में शामिल थे इस सच्चाई को किसी और ने नहीं बल्कि आरएसएस के प्रिय, देश के पहले ग्रह-मंत्री सरदार पटेल ने उजागर किया था। उन्हों ने प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू को फ़रवरी 27, 1948 के पत्र और हिन्दू महासभा के वरिष्ठ नेता श्यामा प्रसाद मुकर्जी को जुलाई 18, 1948 के पत्र में साफ़ तौर पर बताया की आरएसएस और हिन्दू महासभा ने सावरकर के नेतृत्व में गाँधी जी की हत्या की साज़िश रची और कार्यान्वित किया। 

इस से पता लग जाता है कि सावरकर और उनके इशारों पर काम कर रहा हिन्दुत्वादी गिरोह कितना पतनशील, आपराधिक मानसिकता वाला और अहसान फरामोश था।

गाँधी जी के प्रति नफ़रत हिन्दुत्वादी गिरोह की रगों में दौड़ती है। 

यह पूरा देश जनता है कि किस तरह आरएसएस से जुड़े ओहदेदार, नेता; राज्यपाल, मंत्री, देश की संसद तथा राज्यों की विधान सभाओं के सदस्य लगातार चिल्ला-चिल्ला कर यह मांग करते रहते हैं कि  गाँधी जी के हत्यारों को स्वतंत्रता सेनानी घोषित किया जाये और उन्हें राष्ट्रीय सम्मान दिये जाएं।  हिन्दुत्वादी संघटनों से जुड़े लोग देश के विभिन्न हिस्सों में गाँधी जी के मुख्य हत्यारे नाथूराम गोडसे की पूजा करने के उद्देश्य से मूर्तियां स्थापित करके मंदिर खड़े करते रहे हैं।

बहुत समय नहीं बीता है जब गाँधी जी की जयंती के अवसर पर भाजपा आईटी-प्रकोष्ठ इंदौर के प्रभारी विक्कि मित्तल [जिन्हें प्रधान मंत्री मोदी फ़ेसबुक पर ' फ़ॉलो' करते हैं ] ने मांग की थी कि अगर यह जानना हो की गांधी और  गोड्से में से कौन अधिक लोकप्रिय है गोड्से की पिस्तौल की नीलामी की जाए। पता चल जाएगा कि के गोड्से आतंकवादी था या देशभक्त? यह लफ़ंगा मुतमइन था कि गांधी का हत्यारा ही जीतेगा।

आप यदि समझते हैं कि यह सब आरएसएस और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की जानकारी के बिना हो रहा है, तो भारी भूल में है। आरएसएस से संबद्ध एक प्रमुख हिंदूत्ववादी संगठन 'हिंदू जनजागृति समिति' है। भारत में 'हिंदू राष्ट्र की स्थापना' के लिए यह नियमित रूप से अंतरराष्ट्रीय  सम्मेलन आयोजित करती है। इससे सम्बंधित 'सनातन संस्था' के सदस्य अनेक आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त पाए गए हैं। मुस्लमान बहुल क्षेत्रों और उन के धार्मिक स्थलों में बम विस्फोट की घटनाओं के अलावा गोविंद पानसरे, नारायण दाभोलकर, एमएम कलबुर्गी और गौरी लंकेश जैसे प्रसिद्ध बुद्धिजीवियों की हत्या के आरोपों में भी यह जांच के दायरे में है। 'हिंदू जनजागृति मंच' का गोवा सम्मेलन (जून 6-10, 2013) गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्रभाई मोदी के शुभकामना  संदेश के साथ शुरू हुआ था। इसमें भारत को हिंदू राष्ट्र में बदलने की अपनी परियोजना की सफलता की कामना की गई थी। 

इंसानियत की तमाम हदें पर करते हुए, इसी मंच से जून 10 को हिंदुत्व वादी संगठनों, विशेष कर आरएसएस के क़रीबी लेखक केवी सीतारमैया का भाषण हुवा। उन्हों ने आरम्भ में ही घोषणा की कि, "गाँधी भयानक दुष्कर्मी और सर्वाधिक पापी था"। उन्हों ने अपने भाषण का अंत, गाँधीजी के क़ातिल गोडसे का महामण्डन करते हुए, इन शर्मनाक शब्दों से किया: "जैसा की भगवन श्री कृष्ण ने कहा है- 'दुष्टों के विनाश के लिए, अच्छों की रक्षा के लिए और धर्म की स्थापना के लिए, में हर युग में पैदा होता हूँ' 30 जनवरी की शाम, श्री राम, नाथूराम गोडसे के रूप में आए और गाँधी का जीवन समाप्त कर दिया।"

आरएसएस से जुड़े दिमाग़ी तौर पर बीमार इस वयक्ति ने गाँधी जी की हत्या को 'वध' बताते हुए अंग्रेज़ी में एक किताब भी लिखी है जिस का शीर्षक 'गाँधी मर्डरर ऑफ़ गाँधी' (गाँधी का हत्यारा गाँधी) है।  

राजनाथ सिंह के बयान के पीछे का असली मक़्सद। 

सवाल यह उठता है कि राजनाथ सिंह को अचानक सावरकर के थू-थू किये जाने वाले मफ़ीनामों से गाँधी जी को जोड़ने की कियों ज़रुरत पड़ी है। उनका बयान किसी बेवक़ूफ़ी या जल्द बाज़ी का नतीजा नहीं है। हिन्दुत्वादी शासक टोली को गाँधी जी से डर लग रहा है। भारतीय प्रजातान्त्रिक-धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र और समावेशी भारतीय समाज पर ताबड़तोड़ हमलों के बावजूद लोग हिंदुत्वादी शासकों की कॉर्पोरटे-परस्त, हिन्दू धर्म की ब्राह्मणवादी व्याख्या को देश पर थोपने और खुल्लमखुल्ला म जान विरोधी नीतियों के प्रतिरोध में एकजुट हो रहे हैं। गाँधी जी जिन की विरासत को भुला दिया गया था लोगों ने उसे पुनर्जीवित किया है।  गाँधी जी इन संघर्षों के प्रेरणा सरोत्र बन रहै हैं।   

आरएसएस-भाजपा शासक परेशान हैं। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि गाँधी जिन की हत्या हिन्दुत्वादी शासक टोली के हिन्दुत्वादी वालिदैन ने बहुत पहले करदी थी, का भारत का विचार [Idea of India] पूरी तरह नष्ट नहीं हुवा है और उनके हिन्दुत्वादी राष्ट्र के विचार को मूंह-तोड़ जवाब दे रहा है। अब एक ही रास्ता बचा है की गांधी को सावरकर और गोडसे के बराबर ला खड़ा किया जाये। गाँधी को उतना ही बोना बना दिया जाये जितना सावरकर और गोडसे थे। राजनाथ सिंह जैसे आरएसएस के विचारक ऊल-जलूल बयान देकर गाँधी जी की असली पहचान को मलियामेट करना चाहते हैं। फ़िलहाल वे सब यह नहीं समझ पा रहे हैं कि जब गाँधी की हत्या करके उनके विचारों को नहीं मारा जसका तो उनके विचार कैसे मर सकते हैं!

शम्सुल इस्लाम

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