Thursday, February 20, 2020

गाँधी पर ज़हर क्यों उगल रहे मोदी के अफ़सर, सावरकर का इतिहास नहीं जानते?


गाँधी पर ज़हर क्यों उगल रहे मोदी के अफ़सर, सावरकर का इतिहास नहीं जानते?

स्वतंत्रता-संग्राम के ग़द्दारों की संतानों के नए पैंतरे
आरएसएस-भाजपा टोली गांधीजी को अपमानित और नीचा दिखाने का कोई मौक़ा नहीं गंवाती है। इस ख़ौफ़नाक यथार्थ को झुटलाना मुश्किल है कि देश में हिंदुत्व राजनीती के उभार के साथ गांधीजी की हत्या पर ख़ुशी मनाना और हत्यारों का महामंडन, उनहैं भगवन का दर्जा देने का भी एक संयोजित अभियान चलाया जा रहा है। गांधीजी की शहादत दिवस (जनवरी 30) पर गोडसे की याद में सभाएं की जाती हैं, उसके मंदिर जहाँ उसकी मूर्तियां स्थापित हैं में पूजा की जाती है। गांधीजी की हत्या को 'वध' (जिसका मतलब राक्षसों की हत्या है) बताया जाता है।
यह सब कुछ लम्पट हिन्दुत्वादी संगठनों या लोगों दुवारा ही नहीं किया जा रहा है।  मोदी के 2014 में प्रधान मंत्री बनने के  कुछ ही महीनों बाद रएसएस/भाजपा के एक वरिष्ठ विचारक, साक्षी जो संसद सदस्य भी हैं ने गोडसे को 'देश-भक्त' घोषित करने की मांग की। आरएसएस की चहीती साध्वी, प्रज्ञा ठाकुर ने, जो संसद सदस्य भी हैं 2019 में फिर से गोडसे को देशभक्त का दर्जा  दिए जाने की मांग की, हालांकि उनको यह मांग विश्वव्यापी भर्त्स्ना के बाद वापिस लेनी पड़ी। इस तरह का विभत्स प्रस्ताव हिन्दुत्वादी शासकों की गोडसे के प्रति प्यार को ही दर्शाती है।
गांधीजी फिर निशाने पर
गांधीजी के ख़िलाफ़ इस अभियान में नवीनतम योगदान प्रधान-मंत्री के प्रिय, मुख्य आर्थिक सलाहकार, संजीव सन्याल ने किया है । हाल ही में गुजरात विश्विद्यालय में ‘भारत के इतिहास के क्रांतिकारियों की याद' शीर्षक पर बोलते हुए फ़रमाया की "गाँधी ने भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों की जान बचा ने लिए कोई कोशिश नहीं की"। मज़ेदार बात यह है की देश की अर्थव्यवस्था के इस करणधार ने देश की डूबती अर्थव्यवस्था पर कोई सफ़ाई देने के बजाए गांधीजी की नाकामी  को रेखांकित किया।   
अर्थशास्त्री से इतिहासकार बने, मोदी सरकार के उच्चतम अधिकारीयों में से एक, इस क़ाबिल महामहिम ने गाँधीजी के ख़िलाफ़ फ़ैसला अपने इन शब्दों के बावजूद सुना दिया की "यह कहना मुश्किल है की महात्मा गाँधी भगत सिंह या किसी दुसरे इंक़लाबी को फांसी के फंदे से बचा सकते थे कियोंकी हमारे सामने तथ्य मौजूद  नहीं हैं।" गांधीजी ने क्रांतिकारियों के बचाने की कोशिश की या नहीं यह विवाद गाँधी-इरविन बातचीत (मार्च 1931) से जुड़ा एक पुराना विवाद है, लेकिन ऐसा कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है की गांधीजी की इन शहीदों को फांसी दिलाने में कोई भूमिका थी। इस बात को झुटलाया नहीं जा सकता की गांधीजी और शहीदों के बीच गहरे मतभेद थे लेकिन यह कहना की गांधीजी उनकी फांसी के लिए ज़िम्मेदार थे, 2 कारणों से सच नहीं हो सकता। पहली वजह तो यह कि लार्ड इरविन एक उपनिवेशिक हुक्मरान के तौर गांधीजी की किसी सलाह को मानने लिए वचनबद्ध नहीं था, दुसरे, इन्किलाबी  स्वयं जान देने के लिए तैयार थे  और किसी भी तरह की रियायत नहीं चाहते थे।
शहीदों और आज़ाद हिंद फ़ौज से लगाव का ढकोसला
संजीव सन्याल ने गांधीजी को क्रांतिकारियों की फांसी के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हुए शहीदों की दस्तानों और उनके विमर्श को शिक्षा संस्थानों के पाठ्यकर्म में शामिल करने की ज़रुरत पर दिया। उन्हों ने यह भी मांग की कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनके नेतृत्व में बनी 'आज़ाद हिन्द फ़ौज' के बारे में भी देश को अवगत कराया  चाहिए। सन्याल ने प्रधान-मंत्री मोदी को इस बात का श्रेय दिया की "आज़ादी के 71 साल बाद  पहली बार इनको याद गया।" संजीव सन्याल ने गांधीजी को कठघरे में खड़ा करते हुए हिंदुत्व टोली ने किस तरह बेशर्मी से स्वतंत्रता संग्राम के दौरान शहीदों और  नेताजी  के साथ ग़द्दारी  की थी जैसी सच्चाईयों पर मौन रहे।  आइये, हम आरएसएस और महासभा की आज़ादी के आंदोलन के शहीदों और नेताजी के ख़िलाफ़ की गयीं कुछ उन शर्मनाक करतोतों पर नज़र डालें जिन का ज़िक्र स्वयं  हिन्दुत्वादी संगठनों के  दस्तावेज़ों  में मिलता है।
आरएसएस की शहीदी परम्परा से नफ़रत
कोई भी हिंदुस्तानी जो स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों को सम्मान देता है उसके लिए यह कितने दुःख और कष्ट की बात हो सकती है कि आरएसएस अंगे्रज़ों के विरुद्ध प्राण न्योछावर करने वाले शहीदों को अच्छी निगाह से नहीं देखता था। आरएसएस के प्रमुख विचारक ऍम एस गोलवलकर या गुरुजी ने शहीदी परम्परा पर अपने मौलिक विचारों को इस तरह रखा:
"निःसंदेह ऐसे व्यक्ति जो अपने आप को बलिदान कर देते हैं श्रेष्ठ व्यक्ति हैं और उनका जीवन दर्शन प्रमुखतः पौरुषपूर्ण है। वे सर्वसाधारण व्यक्तियों से, जो कि चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते हैं और भयभीत और अकर्मण्य बने रहते हैं, बहुत ऊंचे हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामने आदर्श के रूप में नहीं रखा है। हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिन्दु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करें, नहीं माना है। क्योंकि, अंततः वे अपना उदे्श्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी।"
यक़ीनन यही कारण है कि आरएसएस का एक भी स्वयंसेवक अंगे्रज़ शासकों के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए शहीद होना तो दूर की बात रही; जेल भी नहीं गया।
गोलवलकर भारत मां पर अपना सब कुछ क़ुर्बान करने वालों को कितनी हीन दृष्टि से देखते थे इसका अंदाज़ा निम्नलिखित शब्दों से भी अच्छी तरह लगाया जा सकता है। श्री गुरुजी वतन पर प्राण न्यौछावर करने वाले महान शहीदों से जो प्रश्न पूछ रहे हैं ऐसा लगता है मानो यह सवाल अंगे्रज़ शासकों की ओर से पूछा जा रहा होः
"अंगे्रज़ों के प्रति क्रोध के कारण अनेकों ने अद्भुत कारनामे किये। हमारे मन में भी एकाध बार विचार आ सकता है कि हम भी वैसा ही करें। वैसा अद्भुत कार्य करने वाले निःसंदेह आदरणीय हैं। उसमें व्यक्ति की तेजस्विता प्रकट होती है। स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिए शहीद होने की सिद्धता झलकती है। परन्तु सोचना चाहिए कि उससे (अर्थात बलिदान से) संपूर्ण राष्ट्रहित साध्य होता है क्या? बलिदान के कारण पूरे समाज में राष्ट्र-हितार्थ सर्वस्वार्पण करने की तेजस्वी वृद्धिगत नहीं होती है। अब तक का अनुभव है कि वह हृदय की अंगार सर्व साधारण को असहनीय होती है।"
1 जून, 1947 को हिन्दू साम्राज्य दिवस के अवसर पर बोलते हुए ‘महान देशभक्त’ गोलवलकर ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ भारतीय जनता की लड़ाई के प्रतीक बहादुर शाह ज़फ़र का जिस तरह मज़ाक उड़ाते हैं वह जानने लायक़ हैः
"1857 में हिन्दुस्थान के तथाकथित अंतिम बादशाह बहादुरशाह ने भी निम्न गर्जना की थी...
‘गाज़ियो में बू रहेगी जबतलक ईमान की।
तख़्ते लंदन तक चलेगी तेग़ हिंदोस्तान की।।’
परंतु आख़िर हुआ क्या? सभी जानते हैं वह।"
यहां पर यह बात भी क़ाबिले जिक्ऱ है कि आरएसएस जो अपने आप को भारत का धरोहर कहता है उसके 1925 से लेकर 1947 तक के पूरे साहित्य में एक वाक्य भी ऐसा नहीं है जिसमें भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को गोरे शासकों द्वारा फांसी दिये जाने के खिलाफ़ किसी भी तरह के विरोध का रिकार्ड हो।         
आरएसएस के 'वीर' सावरकर ने किस तरह नेताजी की पीठ में छुरा घोंपा
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब नेताजी देश की आज़ादी के लिए विदेशी समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे थे और अपनी आज़ाद हिंद फ़ौज़ को पूर्वोत्तर भारत में सैनिक अभियान के लिए लामबंद कर रहे थे, तभी सावरकर अंग्रेजों को पूर्ण सैनिक सहयोग की पेशकश कर रहे थे। 1941 में भागलपुर में हिंदू महासभा के 23वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए सावरकर ने अंग्रेज शासकों के साथ सहयोग करने की अपनी नीति का इन शब्दों में ख़ुलासा किया - 
"देश भर के हिंदू संगठनवादियों (अर्थात हिंदू महासभाइयों) को दूसरा सबसे महत्वपूर्ण और अति आवश्यक काम यह करना है कि हिंदुओं को हथियार बंद करने की योजना में अपनी पूरी ऊर्जा और कार्रवाइयों को लगा देना है। जो लड़ाई हमारी देश की सीमाओं तक आ पहुँची है वह एक ख़तरा भी है और एक मौक़ा भी।" 

अंग्रेजों की मदद का आह्वान

सावरकर ने आगे कहा, "इन दोनों का तकाजा है कि सैन्यीकरण आंदोलन को तेज़ किया जाए और हर गाँव-शहर में हिंदू महासभा की शाखाएँ हिंदुओं को थल सेना, वायु सेना और नौ सेना में और सैन्य सामान बनाने वाली फ़ैक्ट्रियों में भर्ती होने की प्रेरणा के काम में सक्रियता से जुड़ें।" सावरकर ने अपने इस भाषण में किस शर्मनाक हद तक सुभाष चंद्र बोस के ख़िलाफ़ अंग्रेजों की मदद करने का आह्वान किया वह इन शब्दों से बखू़बी स्पष्ट हो जाएगा। सावरकर ने कहा,
"जहाँ तक भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिंदू समाज को भारत सरकार के युद्ध संबंधी प्रयासों में सहानुभूति पूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए जब तक यह हिंदू हितों के फायदे में हो। हिंदुओं को बड़ी संख्या में थल सेना, नौसेना और वायुसेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद, और जंग का सामान बनाने वाले कारखानों वग़ैरह में प्रवेश करना चाहिए।"
सावरकर ने हिंदुओं का आह्वान किया कि हिंदू सैनिक हिंदू संगठनवाद की भावना से लाखों की संख्या में ब्रिटिश थल सेना, नौ सेना और हवाई सेना में भर जाएँ। जब सुभाष चंद्र बोस सैन्य संघर्ष के जरिए अंग्रेज़ी राज को उखाड़ फेंकने की रणनीति बना रहे थे तब ब्रिटिश युद्ध प्रयासों को सावरकर का पूर्ण समर्थन एक अच्छी तरह सोची-समझी हिंदुत्ववादी रणनीति का परिणाम था।
सावरकर का पुख़्ता विश्वास था कि ब्रिटिश साम्राज्य कभी नहीं हारेगा और सत्ता एवं शक्ति के पुजारी के रूप में सावरकर का साफ़ मत था कि अंग्रेज़ शासकों के साथ दोस्ती करने में ही उनकी हिंदुत्ववादी राजनीति का भविष्य निहित है। 
मदुरा में उनका अध्यक्षीय भाषण ब्रिटिश साम्राज्यवादी चालों के प्रति पूर्ण समर्थन का ही जीवंत प्रमाण था। उन्होंने भारत को आज़ाद कराने के नेताजी के प्रयासों को पूरी तरह खारिज कर दिया। उन्होंने घोषणा की
"कि व्यावहारिक राजनीति के आधार पर हम हिंदू महासभा संगठन की ओर से मजबूर हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में किसी सशस्त्र प्रतिरोध में ख़ुद को शरीक न करें।" 
युद्ध प्रयासों में अंग्रेज़ों को सहयोग देने के हिंदू महासभा के फ़ैसले की आलोचनाओं को उन्होंने यह कहकर खारिज कर दिया कि इस मामले में अंग्रेजों का विरोध करना एक ऐसी राजनैतिक गलती है जो भारतीय लोग अकसर करते हैं। 
संजीव सन्याल जैसे हिन्दुत्वादी प्यादे चाहे जितनी भी लफ़्फ़ाज़ी या लीपापोती कर लें लेकिन अंग्रेज़ों के खिलाफ भारतीय जनता के महान स्वतंत्रता संग्राम आरएसएस-भाजपा और इनके सावरकरवादी पूर्वजों की ग़द्दारी की दस्तानों पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। आज़ादी के लिए जिन हज़ारों-हज़ार लोगों ने अपनी जानों की आहूती दी उन के खून के छींटे किन की आस्तीनों पर पड़े थे उनको कोई भी धुलाई मिटा नहीं पाएगी। 
शम्सुल इस्लाम
फ़रवरी 16, 2020
शम्सुल इस्लाम के अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, मराठी, मलयालम, कन्नड़, बंगाली, पंजाबी, गुजराती में लेखन और कुछ वीडियो साक्षात्कार/बहस के लिए देखें :
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