आरएसएस में
सरकारी कर्मचारी: लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत के विनाश का फ़ार्मूला है
9 जुलाई, 2024 को देश की आरएसएस-बीजेपी सरकार द्वारा जारी किए गए एक परेशान करने
वाले निर्देश में कहा गया है कि सरकार ने 1966, 1970 और 1980 में जारी निर्देशों की “समीक्षा” की है, और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का नाम
इन ‘विवादित सरकारी आदेशों’ में से हटाने का निर्णय लिया गया है। ये आदेश दिनांक 30.11.1966, 25.07.1970 और 28.10.1980 को इंदिरा गांधी
के शासन काल के दौरान जारी किये गए थे, जिन के तहत आरएसएस और जमात-ए-इस्लामी की
गतिविधियों में सरकारी कर्मचारियों की भागीदारी पर प्रतिबंध लगाया गया था।। 1966
के आदेश में कहा गया था कि "कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी भी राजनीतिक दल
या राजनीति में भाग लेने वाले किसी भी संगठन का सदस्य नहीं होगा, या अन्यथा उससे जुड़ा
नहीं होगा, न ही वह इसमें
भाग लेगा, न ही उसकी
सहायता के लिए सदस्यता लेगा। या किसी अन्य तरीके से, किसी भी राजनीतिक आंदोलन
या गतिविधि में सहायता करेगा।"
वास्तव में, यह निर्देश देश के पहले ग्रह मंत्री सरदार
पटेल के मंत्रालय द्वारा बनाये गये नियम की ही अगली कड़ी थी। सरकारी सेवक आचरण
नियम 1949 ने सरकारी कर्मचारियों की राजनीतिक गतिविधियों में भागीदारी पर रोक लगा
दी। यह शर्त इस लिये लगायी गई थी कि नौकरशाही का चरित्र गैर-पक्षपातपूर्ण बना रहे
और वे किसी भी सत्ताधारी दल या गुट के मोहरे न बन कर स्वतंत्र रूप से ‘विधि के
शासन’ के प्रति प्रतिबद्ध रहें।
9 जुलाई का निर्देश 23
जुलाई को सार्वजनिक हुआ, जिसने न केवल
आरएसएस को राजनीतिक संगठन की श्रेणी से हटा दिया, बल्कि लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारतीय राजनीति के लिए खतरा
होने से भी हटा दिया। दिलचस्प बात यह है कि मोरारजी देसाई (1977-79) और अटल बिहारी
वाजपेयी (1996 में 16 दिन और 1998-2004) के नेतृत्व वाली आरएसएस समर्थित सरकारों ने कभी भी
आरएसएस पर यह उपकार करना उचित नहीं समझा था। यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि 9
जुलाई के आधिकारिक आदेश में जमात-ए-इस्लामी के बारे में चुप्पी साध ली गई, जिसे इंदिरा सरकार ने आरएसएस के साथ जोड़
दिया था। मोदी सरकार के इस निर्देश से प्रधान मंत्री मोदी और आरएसएस के बीच मतभेद की सभी अटकलें खारिज
हो जानी चाहियें।
हमें आरएसएस को मोदी
सरकार के ज़रिये 9 जुलाई को दिये गये ‘चरित्र प्रमाण पत्र’ की तुलना आरएसएस के
अभिलेखागार में मौजूद तथ्यों से करने की ज़रूरत है। क्या आरएसएस कभी अराजनीतिक
संगठन रहा है और लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत के प्रति वफ़ादार रहा है? ऐसा कभी नहीं था और आज भी नहीं है। नौकरशाही
के लिए आरएसएस के दरवाज़े खोलना मोदी शासन के पिछले 10 वर्षों में दुनिया के सबसे
बड़े लोकतंत्र में जो कुछ भी ठीक-ठाक बचा है उसे नष्ट करने की एक ख़तरनाक चाल है।
आइए हम स्वयं वास्तविकता का मूल्यांकन करें।
क्या RSS एक गैर-राजनीतिक संगठन
है?
हमें आरएसएस के इस दावे
की तुलना कि यह एक सांस्कृतिक-सामाजिक संगठन है और इसका राजनीति से कोई लेना-देना
नहीं है, एम. एस. गोलवलकर (जिन्होंने
आरएसएस के संस्थापक केबी हेडगेवार की मृत्यु के बाद आरएसएस का नेतृत्व किया था और
संगठन के अब तक के सबसे महान विचारक माने जाते हैं) के निम्नलिखित दो बयानों से
करना चाहिये। पहला कथन हमें बताता है कि किस प्रकार के आरएसएस के स्वयंसेवकों को राजनीति
को संचालित करने के लिए भेजा जाता है और आरएसएस उनसे क्या अपेक्षा करता है। 16
मार्च, 1954 को सिंदी, वर्धा, महाराष्ट्र में देश भर से आये वरिष्ठ
स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा,
“यदि हमने कहा कि हम संगठन के अंग हैं, हम उसका अनुशासन मानते हैं तो फिर ‘सिलेक्टीवनेस’ (पसंद) का जीवन में कोई स्थान न हो। जो कहा वही करना। कबड्डी कहा तो कबड्डी; बैठक कहा, तो बैठक जैसे अपने कुछ मित्रों से कहा कि राजनीति में जाकर काम करो, तो उसका अर्थ यह नहीं कि उन्हें इसके लिए बड़ी रुचि या प्रेरणा है। वे राजनीतिक कार्य के लिए इस प्रकार नहीं तड़पते, जैसे बिना पानी के मछली। यदि उन्हें राजनीति से वापिस आने को कहा तो भी उसमें कोई आपत्ति नहीं। अपने विवेक की कोई ज़रूरत नहीं। जो काम सौंपा गया उसकी योग्यता प्राप्त करेंगे ऐसा निश्चय कर के यह लोग चलते हैं।”
[Golwalkar, MS, Shri Guruji Samagar
Darshan (collected works of Golwalkar in Hindi), Bhartiya Vichar Sadhna,
Nagpur, vol. 3, p. 33.]
गोलवलकर का दूसरा कथन भी बहुत महत्वपूर्ण है जो इस
प्रकार है:
“हमें यह भी मालूम है, कि अपने कुछ स्वयं सेवक राजनीति में काम करते हैं। वहां उन्हें उस कार्य की आवश्यकताओं के अनुरूप जलसे, जुलूस आदि करने पड़ते हैं, नारे लगाने होते हैं। इन सब बातों का हमारे काम में कोई स्थान नहीं है। परन्तु नाटक के पात्र के समान जो भूमिका ली उसका योग्यता से निर्वाह तो करना ही चाहिए। पर इस नट की भूमिका से आगे बढ़कर काम करते-करते कभी-कभी लोगों के मन में उसका अभिनिवेश उत्पन्न हो जाता है। यहां तक कि फिर इस कार्य में आने के लिए वे अपात्र सिद्ध हो जाते हैं। यह तो ठीक नहीं है। अतः हमें अपने संयमपूर्ण कार्य की दृढ़ता का भलीभांति ध्यान रखना होगा। आवश्यकता हुई तो हम आकाश तक भी उछल-कूद कर सकते हैं, परन्तु दक्ष दिया तो दक्ष में ही खड़े होंगे।” [Ibid, vol. 4, pp. 4-5.]
हम यहां गुरु गोलवलकर को
राजनीतिक शाखा को उधार दिए गए स्वयंसेवकों को 'नट' या अभिनेता के
रूप में संदर्भित करते हुए पाते हैं जो आरएसएस के इशारों पर नाचने के लिये राजनीति
में भेजे गए हैं। यहां इस तथ्य को नज़र-अंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए कि गोलवलकर की
राजनीतिक शाखा को नियंत्रित करने की उपरोक्त योजना 1951 में जनसंघ (भाजपा के
अग्रदूत) की स्थापना के लगभग नौ साल बाद मार्च 1960 में सार्वजनिक की गई थी।
अब ज़रा आरएसएस
के दस्तावेज़ों की रोशनी में इस
दावे को भी परखें
कि भाजपा आरएसएस से स्वतंत्रा एक राजनैतिक
दल है। आरएसएस के केन्द्रीय प्रकाशन संस्थान, सुरुचि प्रकाशन ने
1997 में एक पुस्तक छापी जिसका शीर्षक था ‘परम वैभव के पथ पर’।यह पुस्तक अब ग़ायब है। इस किताब की भूमिका में इस
प्रकाशन के महत्त्व को इन
शब्दों में बयान किया गयाः
“स्वंय सेवक जितने प्रकार के कार्य करते हैं उनके परिचय के बिना संघ का कार्य अपूर्ण है इस बात को ध्यान में रखते हुए स्वंयसेवकों द्वारा किये जा रहे विविध कार्यों की संक्षिप्त जानकारी इस पुस्तक में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। इसमें वर्णित संघठनात्मक स्थिति 1996 तक की है। किसी स्थायी कार्य को प्रारम्भ किए बिना जो सामायिक महत्व के कार्य स्वंयसेवकों ने किए हैं, पुस्तक के अन्त में उन्हें भी सम्मिलित किया गया है। विश्वास है कि स्वंयसेवकों के साथ जो संघ को समझना चाहते हैं, यह पुस्तक उनके लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी।”
[Sapre,
SD, Parm Vaibhav ke Path Per, Suruchi, Delhi, 1997, p. 7.]
इस पुस्तक में आरएसएस
द्वारा पैदा किए गए 30 से ज़्यादा
संगठनों का वृत्तांत है। इन
संगठनों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विश्व हिन्दू परिषद्, सेवा
भारती, स्वदेशी जागरण मंच,
और हिन्दू जागरण मंच के साथ-साथ तीसरे नम्बर पर भारतीय जनता पार्टी
को रखा गया है। आरएसएस ने 1951 में भाजपा
के पहले रूप जनसंघ को एक राजनैतिक
दल के रूप में
किस तरह खड़ा किया, इसका भी
विश्लेषण इस पुस्तक में किया
गया है। भाजपा आरएसएस की छत्रछाया में जिस
तरह काम करती रही है इसे इन
शब्दों में बयान किया गया हैः
“भाजपा ने कुछ महत्त्वपूर्ण विषयों पर राष्ट्रव्यापी जनजागरण करने की दृष्टि से समय समय पर रथ यात्राओं का सफल आयोजन किया है। इनमें प्रमुख हैं श्री लाल कृष्ण अडवाणी की 1990 की ‘राम रथ यात्रा’, डा0 मुरली मनोहर जोशी की 1991 की ‘एकता यात्रा’ (श्रीनगर यात्रा)। इन यात्राओं ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा को जन-जन तक पहुंचाने का और जनता में राष्ट्रभाव-जागरण का कार्य किया है।”
आरएसएस एक हिंदू
राज्य के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध है
यदि सरकारी कर्मचारियों
को आरएसएस की शाखाओं में शामिल होने की अनुमति दी जाती है, तो उनके लिए प्रार्थना (प्रार्थना) और
प्रतिज्ञा (शपथ) पढ़ना अनिवार्य होगा,
जिसका
पाठ प्रत्येक शाखा में होता है।
प्रार्थना
“हे वत्सल मातृभूमि! मैं तुम्हें निरंतर प्रणाम करता हूं! हे हिन्दूभूमि! तूने ही मुझे सुख में बढ़ाया है। हे महामंगलमयी पुण्यभूमि! तेरे हित मेरी यह काया अर्पित हो। तुम्हें मैं अनन्त बार प्रणाम करता हूं। हे सर्वशक्तिमान् परमेश्वर! ये हम हिन्दूराष्ट्र के अंगभूत घटक, तुम्हें आदरपूर्वक प्रणाम करते हैं। तुम्हारे ही कार्य के लिए हमने अपनी कमर कसी है, उसी की पूर्ति के लिए हमंे शुभ आशीर्वाद दो। विश्व के लिए ऐसी अजेय शक्ति, जिसे विश्व में कोई जीत न सके,जिसके समक्ष सारा जगत् विनम्र हो-ऐसा विशुद्ध शील तथा बुद्धिपरक स्वीकृति हमारे कण्टकमय मार्ग को सुगम करें, ऐसा ज्ञान हमें दो।”
[RSS, Shakha Darshika, Gyan Ganga,
Jaipur, 1997, p.1.]
प्रतिज्ञा
“सर्वशक्तिमान् श्री परमेश्वर तथा अपने पूर्वजों का स्मरण कर मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि अपने पवित्र हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दू समाज का संरक्षण कर हिन्दू राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने के लिए मैं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का घटक बना हूं। संघ का कार्य मैं प्रामाणिकता से, निःस्वार्थ बुद्धि से तथा तन, मन, धन पूर्वक करूंगा और इस व्रत का मैं आजन्म पालन करूंगा। भारत माता की जय।” [Ibid, p. 66.]
इस प्रकार, सरकारी कर्मचारी उस
लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत के प्रति वफ़ादार नहीं होंगे जिसकी सेवा और सुरक्षित
करने की उन्होंने शपथ ली थी, बल्कि वे इसे एक
हिन्दू राज्य में बदलने के लिए प्रतिबद्ध होंगे।
आरएसएस
राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे से नफ़रत करता है
यह हिंदू राष्ट्र के
निर्माण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का परिणाम है कि आरएसएस हमारी
धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक राजनीति के दो महान प्रतीकों, तिरंगे और भारत के संविधान
से नफरत करता है।
1925 में अपनी स्थापना
के बाद से ही आरएसएस की मांग थी कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है और इसका राष्ट्रीय
ध्वज भगवा झंडा ही होना चाहिए। जब संविधान सभा ने तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप
में अपनाया, तो आरएसएस ने
दिल्ली में लाल किले की प्राचीर पर भगवा झंडा फहराने की मांग की और खुले तौर पर
निम्नलिखित शब्दों में तिरंगे की पसंद का अपमान किया:
“वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा न अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झण्डा जिसमें तीन रंग हों बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुक़सानदेय होगा।” [‘Mystery behind the bhagwa dhwaj’ in
Organizer (RSS English organ), August 14, 1947.]
आरएसएस
लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारतीय संविधान को मनुस्मृति से बदलने के लिए प्रतिबद्ध
है
आरएसएस भारत के संविधान
के प्रति कितना वफ़ादार है, यह गोलवलकर के
निम्नलिखित कथन से जाना जा सकता है,
जिसे
बंच ऑफ थॉट [Bunch of Thoughts] पुस्तक से पुन: प्रस्तुत किया जा रहा है, जो एमएस गोलवलकर के लेख/भाषणों का संग्रह है
और आरएसएस कैडरों के लिये गीता की हैसियत रखती है।
“हमारा संविधान भी पश्चिमी देशों के विभिन्न संविधानों में से लिए गए विभिन्न अनुच्छेदों का एक भारी-भरकम तथा बेमेल अंशों का संग्रह मात्र है। उसमें ऐसा कुछ भी नहीं, जिसको कि हम अपना कह सकें। उसके निर्देशक सिद्धान्तों में क्या एक भी शब्द इस संदर्भ में दिया है कि हमारा राष्ट्रीय-जीवनोद्देश्य तथा हमारे जीवन का मूल स्वर क्या है? नहीं।”
[Golwalkar, MS, Bunch of Thoughts,
Sahitya Sandhu, Bangalore, 1996, p. 238.]
वास्तव में, आरएसएस चाहता था कि इस संविधान को मनुस्मृति
या मनु संहिता द्वारा प्रतिस्थापित किया जाए जो अछूतों और महिलाओं के लिए अपमानजनक
और अमानवीय संदर्भों के लिए जाना जाता है। जब भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर, 1949 को भारत के संविधान का अनुमोदन किया, तो आरएसएस खुश नहीं था। इसके अँग्रेज़ी
मुखपत्र ऑर्गनाइज़र ने 30 नवंबर,
1949
को एक संपादकीय में शिकायत की,
“हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुस या पर्सिया के सोलोन के बहुत पहले लिखी गयी थी। आज तक इस विधि की जो ‘मनुस्मृति’ में उल्लिखित है, विश्वभर में सराहना की जाती रही है और यह स्वतःस्फूर्त धार्मिक नियम-पालन तथा समानुरूपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है।”
इसमें कोई संदेह नहीं है
कि ऐसे संगठन की गतिविधियों में सरकारी कर्मचारियों की भागीदारी जो खुले तौर पर
राष्ट्रीय ध्वज और संविधान की निंदा करती है,
केवल
लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत के अंत को तेज़ करेगी।
लोकतंत्र विरोधी
आरएसएस, लोकतंत्र के सिद्धांतों के विपरीत, लगातार मांग करता रहा है कि भारत पर एक
अधिनायक-वादी शासन के तहत शासन किया जाए। 1940 में आरएसएस के मुख्यालय, रेशम बाग़
में 1350 शीर्ष स्तर के कार्यकर्ताओं के सामने भाषण देते हुए गोलवलकर ने घोषणा की,
"एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से प्रेरित होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने-कोने में प्रज्जवलित कर रहा है।" [Shri Guruji Samagar Darshan, vol. 1, p. 11.]
एक झंडा, एक नेता और एक विचारधारा का यह नारा सीधे
तौर पर यूरोप की नाज़ी और फ़ासीवादी पार्टियों के कार्यक्रमों से लिया गया था। इस
प्रकार, वे सभी जो आरएसएस की
टोली में शामिल होंगे, स्वाभाविक रूप
से लोकतांत्रिक भारत के विरोधी होंगे।
संघवाद के
ख़िलाफ़
आरएसएस संविधान के संघीय
ढांचे के भी ख़िलाफ़ है, जो देश के उच्चतम न्यायालय के अनुसार
भारतीय प्रजातान्त्रिक ढांचे का एक बुनियादी स्तम्भ है। यह गोलवलकर के निम्नलिखित
संचार से स्पष्ट है, जो उन्होंने
1961 में राष्ट्रीय एकता परिषद को भेजा था। इस के अनुसार,
“आज की संघात्मक (फे़डरल) राज्य पद्धति पृथकता की भावनाओं का निर्माण तथा पोषण करने वाली, एक राष्ट्र भाव के सत्य को एक प्रकार से अमान्य करने वाली एवं विच्छेद करने वाली है। इसको जड़ से ही हटा कर तदनुसार संविधान शुद्ध कर एकात्मक शासन प्रस्थापित हो।”
[Golwalkar, MS, Shri
Guruji Samagar Darshan (collected works of Golwalkar in Hindi), Bhartiya
Vichar Sadhna, Nagpur, vol. 3, p. 70.]
कल्पना कीजिए कि जिस
नौकरशाही को भारत की संघीय व्यवस्था के प्रति प्रतिबद्ध माना जाता है और उसे लागू
करने की ज़िम्मेदारी है, वह आरएसएस की
इच्छा के अनुसार इसे नष्ट करने का काम करेगी।
गांधी जी की
हत्या में RSS की भूमिका
यह शर्म की बात है कि
भारत में सरकारी कर्मचारियों को उस संगठन की गतिविधियों में भाग लेने की अनुमति दी
जा रही है, जिसे राष्ट्र-पिता
महात्मा गांधी की हत्या के लिए किसी और ने नहीं बल्कि सरदार पटेल ने ज़िम्मेदार
ठहराया था। भारत के पहले गृह मंत्री के रूप में सरदार ने 18 जुलाई, 1948 को हिंदू महासभा के एक प्रमुख नेता
श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लिखे एक पत्र में लिखा:
“जहां तक आरएसएस और हिंदू महासभा की बात है, गांधी जी की हत्या का मामला अदालत में है और मुझे इसमें इन दोनों संगठनों की भागीदारी के बारे में कुछ नहीं कहना चाहिए। लेकिन हमें मिली रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि इन दोनों संस्थाओं का, ख़ासकर आरएसएस की गतिविधियों के फलस्वरूप देश में ऐसा माहौल बना कि ऐसा बर्बर काण्ड संभव हो सका। मेरे दिमाग़ में कोई संदेह नहीं है कि हिंदू महासभा का अतिवादी भाग साज़िश में शामिल था। आरएसएस की गतिविधियां सरकार और राज्य-व्यवस्था के अस्तित्व के लिए ख़तरा थीं। हमें मिली रिपोर्टें बताती हैं कि प्रतिबंध के बावजूद वे गतिविधियां समाप्त नहीं हुई हैं। दरअसल, समय बीतने के साथ आरएसएस की टोली अधिक उग्र हो रही है और विनाशकारी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही है।”
[Letter 64 cited in Sardar Patel: Select
Correspondence19450-1950, vol. 2, Navjivan Publishing House, Ahmedabad,
1977, pp. 276-277.]
यदि आरएसएस की दार्शनिक
प्रतिबद्धताएं और गतिविधियां ऐसी हैं तो किसी भी देशभक्त भारतीय, सरकारी कर्मचारियों की तो बात ही क्या, को आरएसएस की गतिविधियों में भाग लेने की
अनुमति कैसे दी जा सकती है। अब समय आ गया है कि धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक भारत में
विश्वास रखने वाले सभी संगठनों और व्यक्तियों को यह सवाल पूछना चाहिए कि जब 'माओवादी', 'खालिस्तानी'
और
'इस्लामवादी', 'अर्बन नक्सल' आदि को नियमित रूप से राष्ट्र-विरोधी घोषित किया जाता है, जेल में डाल दिया जाता है और फाँसी पर लटका
दिया जाता है, क्योंकि उनका उद्देश्य भारत की संवैधानिक व्यवस्था को नष्ट करना है, ऐसा क्यों है कि आरएसएस हमारी जांच से बाहर
है? यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि
हिंदू अलगाववाद के झण्डा-बरदार आरएसएस को उसके भयानक राष्ट्रविरोधी और मानवता
विरोधी रिकॉर्ड के बावजूद अभी तक भारतीय लोकतंत्र के लिए एक गंभीर खतरे के रूप में
स्वीकार नहीं किया गया है बल्कि जो बंदिशें अभी तक लागू थीं उन्हें भी ख़त्म किया
जा रहा है।
जल्द ही केंद्र सरकार के
कार्यालय और संस्थान आरएसएस की शाखाओं और बौद्धिक शिविरों जहां लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष
राजनीति के खिलाफ नफ़रत का प्रचार किया जाएगा के गवाह बनने जा रहे हैं। ऐसा नहीं है
कि सरकारी संस्थाओं का हिंदुतवादी-करण बिना किसी चुनौती के हो पाएगा। इन जगहों पर ऐसे देश-भक्त सरकारी कर्मचारी
भी होंगे ही जो देश के प्रजातान्त्रिक-धर्मनिरपेक्ष निज़ाम के प्रति वफ़ादार रहते
हुए आरएसएस की इस शर्मनाक योजना को ज़ोरदार चुनौती देंगे। 9 जुलाई के निर्देश की
बदौलत हर कार्यालय दो ख़ेमों में बंट जाएगा। इस तरह मोदी सरकार देश की शासकीय
गतिविधियों के सुचारु संचालन को नष्ट करने जा रही है।
यदि कांग्रेस और अन्य
लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संगठन धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक भारत को बचाने के लिए
गंभीर हैं, तो उन्हें
उपरोक्त दस्तावेजों के साथ कानूनी और राजनीतिक रूप से राष्ट्र और इंसानियत विरोधी आरएसएस
गिरोह का सामना करना होगा। उन्हें हिंदुत्व तत्वों को भी अपने ख़ेमे से बाहर करने
की ज़रूरत है। अगर अब भी नहीं जागे तो आने वाली नसलें कभी माफ़ नहीं करेंगी!
शम्सुल इस्लाम
July 31, 2024
शम्सुल इस्लाम के अंग्रेज़ी, हिंदी, उर्दू
तथा मराठी, मलयालम, कन्नड़, बंगाली, पंजाबी, गुजराती में अनूदित लेखन और कुछ वीडियो साक्षात्कार/बहस के लिए देखें :
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