आरएसएस से स्वतंत्र भाजपा: क्या आप मजाक कर रहे हैं श्रीमान नड्डा?
बीजेपी अध्यक्ष
ने पत्रकारों लिज़ मैथ्यू और पी वैद्यनाथन अय्यर (द इंडियन एक्सप्रेस, दिल्ली, 18 मई, 2024) से बातचीत में दावा किया कि
“आरएसएस
एक सांस्कृतिक संगठन है और हम एक राजनीतिक संगठन हैं...आरएसएस एक वैचारिक मोर्चा
है। आरएसएस और भाजपा के काम करने के अपने-अपने क्षेत्र बहुत स्पष्ट रूप से स्थापित
हैं।”
यह पहली बार नहीं था कि आरएसएस और बीजेपी के रिश्ते को लेकर यह झूठ बोला गया हो. आरएसएस के अंग्रेजी मुखपत्र ऑर्गेनाइजर ने 6 फरवरी 2000 के अपने संपादकीय में इस झूठ का सहारा लेते हुए लिखा:
“आरएसएस कोई राजनीतिक दल नहीं है। यह चुनाव में भाग नहीं लेता है और न ही इसके पदाधिकारियों को किसी राजनीतिक दल का पदाधिकारी बनना है। आरएसएस के पास कोई चुनाव चिह्न नहीं है और न ही इसके नेतृत्व या सदस्यों ने कभी राजनीतिक पद पाने का प्रयास किया है। यह एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है जो सभी राष्ट्रीय गतिविधियों को प्रेरित करने का प्रयास कर रहा है।”
आरएसएस
लगातार यह प्रचार करता रहता है कि वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक
संगठन है और उसका राजनिति से कुछ लेना देना नहीं है। इसी तरह भारतीय जनता पार्टी के श्रेष्ठ नेता जो ज्यादातर संघ के प्रचारक हैं यह कहते नहीं थकते कि भाजपा एक स्वतंत्र राजनैतिक संगठन है। यह एक ऐसा झूठ है (और
ऐसे झूठ सिर्फ़ आरएसएस से जुड़े लोग ही बोल सकते हैं) जिसे
पूरा देश जानता है। स्वयं आरएसएस के दस्तावेज़ों में मौजूद निम्नलिखित सच्चाइयों से भी यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि यह देश की राजनीति को आरएसएस अपने शिकंजे में लेना चाहता है।
आरएसएस
के सब से बड़े दार्शनिक गोलवलकर ने राजनीति को संचालित करने की अपनी योजना की व्याख्या करते हुए उन्होंने 5 मार्च 1960 को इन्दौर में आरएसएस के विभागीय व उच्च
स्तरीय कार्यकर्ताओं के एक अखिल भारतीय सम्मेलन में बताया किः
“हमें यह भी मालूम है, कि अपने कुछ स्वयं सेवक राजनीति में काम करते हैं। वहां उन्हें उस कार्य की आवश्यकताओं के अनुरूप जलसे, जुलूस आदि करने पड़ते हैं, नारे लगाने होते हैं। इन सब बातों का हमारे काम में कोई स्थान नहीं है। परन्तु नाटक के पात्र के समान जो भूमिका ली उसका योग्यता से निर्वाह तो करना ही चाहिए। पर इस नट की भूमिका से आगे बढ़कर काम करते-करते कभी-कभी लोगों के मन में उसका अभिनिवेश उत्पन्न हो जाता है। यहां तक कि फिर इस कार्य में आने के लिए वे अपात्र सिद्ध हो जाते हैं। यह तो ठीक नहीं है। अतः हमें अपने संयमपूर्ण कार्य की दृढ़ता का भलीभांति ध्यान रखना होगा। आवश्यकता हुई तो हम आकाश तक भी उछल-कूद कर सकते हैं, परन्तु दक्ष दिया तो दक्ष में ही खड़े होंगे।”
आरएसएस
राजनीति में किस तरह के स्वंयसेवक भेजता है और उनसे क्या उपेक्षा करता है इसका ब्योरा स्वंय गोलवलकर ने 16 मार्च 1954 को अपने एक भाषण में इन शब्दों में दियाः
“यदि हमने कहा कि हम संगठन के अंग हैं, हम उसका अनुशासन मानते हैं तो फिर ‘सिलेक्टीवनेस’ (पसंद) का जीवन में कोई स्थान न हो। जो कहा वही करना। कबड्डी कहा तो कबड्डी; बैठक कहा, तो बैठक जैसे अपने कुछ मित्रों से कहा कि राजनीति में जाकर काम करो, तो उसका अर्थ यह नहीं कि उन्हें इसके लिए बड़ी रुचि या प्रेरणा है। वे राजनीतिक कार्य के लिए इस प्रकार नहीं तड़पते, जैसे बिना पानी के मछली। यदि उन्हें राजनीति से वापिस आने को कहा तो भी उसमें कोई आपत्ति नहीं। अपने विवेक की कोई ज़रूरत नहीं। जो काम सौंपा गया उसकी योग्यता प्राप्त करेंगे ऐसा निश्चय कर के यह लोग चलते हैं।”
गोलवलकर
के ये वक्तव्य इस सच्चाई को अच्छी तरह जगज़ाहिर कर देते हैं कि आरएसएस कितना गै़र-राजनितिक
संगठन है! इस
वक्तव्य से यह सच्चाई भी उभर कर सामने आती है कि आरएसएस राजनीति पर अपना प्रभुत्व जमाने के लिए किस-किस
तरह के षड्यंत्र करता है और हथकंडे अपनाता है।
भाजपा
आरएसएस का ग़ुलाम संगठन
आरएसएस
के दस्तावेज़ इस बात की गवाही देते हैं कि भाजपा आरएसएस का एक
ग़ुलाम संगठन है। आरएसएस
के केन्द्रीय प्रकाशन संस्थान का नाम सुरुचि प्रकाशन है। इस प्रकाशन ने 1997 में
एक पुस्तक छापी जिसका शीर्षक था, ‘परम वैभव के पथ पर’, इस
किताब की भूमिका में इस प्रकाशन के महत्त्व को इन शब्दों में बयान किया गयाः
“स्वंय सेवक जितने प्रकार के कार्य करते हैं उनके परिचय के बिना संघ का कार्य अपूर्ण है इस बात को ध्यान में रखते हुए स्वंयसेवकों द्वारा किये जा रहे विविध कार्यों की संक्षिप्त जानकारी इस पुस्तक में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। इसमें वर्णित संघठनात्मक स्थिति 1996 तक की है। किसी स्थायी कार्य को प्रारम्भ किए बिना जो सामायिक महत्व के कार्य स्वंयसेवकों ने किए हैं, पुस्तक के अन्त में उन्हें भी सम्मिलित किया गया है। विश्वास है कि स्वंयसेवकों के साथ जो संघ को समझना चाहते हैं, यह पुस्तक उनके लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी।”
इस
पुस्तक में आरएसएस द्वारा जनम दिए गए 30 से ज़्यादा संगठनों का वृत्तांत है। इन संगठनों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विश्व
हिन्दू परिषद्, सेवा
भारती, स्वदेशी
जागरण मंच, और
हिन्दू जागरण मंच के साथ-साथ
तीसरे नम्बर पर भारतीय जनता पार्टी को रखा गया है। आरएसएस ने 1951 में
भाजपा के पहले रूप जनसंघ को एक राजनैतिक दल के रूप में किस तरह खड़ा किया, इसका
भी विश्लेषण इस पुस्तक में किया गया है। भाजपा आरएसएस की छत्रछाया में जिस तरह काम करती रही है इसे इन शब्दों में बयान किया गया हैः
“भाजपा ने कुछ महत्त्वपूर्ण विषयों पर राष्ट्रव्यापी जनजागरण करने की दृष्टि से समय समय पर रथ यात्राओं का सफल आयोजन किया है। इनमें प्रमुख हैं श्री लाल कृष्ण अडवाणी की 1990 की ‘राम रथ यात्रा’, डा0 मुरली मनोहर जोशी की 1991 की ‘एकता यात्रा’ (श्रीनगर यात्रा)। इन यात्राओं ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा को जन-जन तक पहुंचाने का और जनता में राष्ट्रभाव-जागरण का कार्य किया है।”
हमें इस बात का जवाब ढूंढना होगा कि आखिर क्यों अचानक नड्डा ने बीजेपी की आरएसएस से आजादी की घोषणा कर दी है। वास्तव में, ऐसी स्थिति की कल्पना गोलवलकर ने 1960 में ही कर ली थी जब उन्होंने कहा था कि “कभी-कभी स्वयंसेवक एक कलाकार (नट) को सौंपी गई भूमिका से आगे बढ़ जाते हैं क्योंकि उनके दिलों में अति-उत्साह विकसित हो जाता है, इस हद तक कि वे इसके लिए बेकार हो जाते हैं। यह अच्छा नहीं है।"
आज आरएसएस का नेतृत्व कर रहे मोहन भागवत और उनके प्रमुख विश्वासपात्रों का गोलवलकर से कोई मुकाबला नहीं है जो अपने राजनीतिक बच्चे, भाजपा को नियंत्रित कर सकते थे। मोदी (एक राजनीतिक नेता के रूप में गोलवलकर द्वारा प्रशिक्षित), एक विश्व गुरु, हिंदू हृदय सम्राट और हिंदुत्व आइकन ने हिंदुत्व के झण्डा बरदार आरएसएस को निरर्थक बना दिया है। अब मोदी आरएसएस हैं!
आरएसएस ने एक ऐसे जिन्न की परवरिश की है जो इस को भी निगल
जाएगा। नड़ड़ा ने साफ़ कहा है कि “शुरू में हम अक्षम होंगे, थोड़ा कम होंगे, आरएसएस की
जरूरत पड़ती थी। आज हम बढ़ गए हैं, सक्षम हैं तो भाजपा अपने आप को चलाती है।"
आरएसएस को यह समझ जाना चाहिये कि राजनीति के साथ धर्म के घालमैल
का यह एक स्वाभाविक परिणाम है जिस की क़ीमत उस ने चुकनी ही होगी। गोलवलकर ने 1940 में ही घोषणा कर दी थी कि "आरएसएस
एक ध्वज, एक नेता और एक विचारधारा से प्रेरित होकर इस महान भूमि के हर कोने में
हिंदुत्व की लौ जला रहा है"। मोदी ने आरएसएस के इस सपने को पूरी तरह से पूरा किया। जब
मोदी धर्मनिरपेक्षता, संवैधानिक आरक्षण, राष्ट्रीय संस्थानों और
सांप्रदायिक सद्भाव को ध्वस्त करने के लिए आगे बढ़े तो हिंदुत्व के कट्टरपंथियों
ने जश्न मनाया, लेकिन यह भूल गए कि अगर एक हिन्दू सम्राट बनना
है तो मोहन भागवत और उनके हिंदुत्व साम्राज्य को भी जाना होगा। मोदी के
अश्वमेध-यज्ञ का शिकार आरएसएस को होना ही होगा!
शम्सुल इस्लाम
मई 19, 2024
लेखक के अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, मराठी, मलयालम, कन्नड़, बंगाली, पंजाबी, गुजराती में लेखन और कुछ वीडियो साक्षात्कार/बहस के लिए
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