अलविदा मेरे भाई साहब सागर सरहदी!
भाई साहब (सागर सरहदी जी को मैं आम तौर पर इसी नाम से संबोधित करता था, कई बार कॉमरेड भी) का मार्च 22-23, 2021 को मुंबई में 87वें साल में देहांत हो गया। मई 11, 1933 के दिन सूबा सरहद के ज़िले एबटाबाद के
गांव बफ़फ़ा [अब पाकिस्तान में] में जन्मे के वालिद साहब शराब के
ठेकेदार थे। मुल्क के बॅटवारे के शिकार होकर
परिवार के साथ शरणार्थी बनकर बरास्ता श्रीनगर दिल्ली पहुंचे। मोरी गेट, दिल्ली में बस गए। डीएवी स्कूल से हाई
सेकेंडरी की। रोज़गार की तलाश में बम्बई का रुख़ किया, किलरकी की, कपड़े की दुकान की, बड़े भाई ने उन्हें पाला।
वे जन्मे तो गंगा सागर तलवार नाम से थे पर अपना प्रगतिशील राजनैतिक और साहित्यिक जीवन सागर सरहदी के नामकरण से शुरू किया। उन्हों ने एक बार
बताया कि ‘मैं ने अपने नाम से गंगा हटाकर सागर जोड़ लिया और अपने वतन सूबा सरहद की पहचान
ज़िंदा रखने के लिए सरहदी भी जोड़ लिया।‘
वे जीवन भर एक प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट रहे । बंबई में बलराज साहनी और एके हंगल, जो ख़ुद भी देश के बॅटवारे का शिकार थे, जैसी हस्तियों का साथ मिला और जनपक्षीय नाट्यकर्म से पूरे तौर पर जुड़ गए। पहले अपना नाट्य संगठन ‘द कर्टेन’[पर्दा] बनाया और बाद में ‘इप्टा’के साथ जुड़ गए। बंटवारे की त्रासदी को झेलने के बावजूद प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े रहे। हिंदी, उर्दू, पंजाबी नाटक के लिए ख़ूब काम किया और चर्चित हुए। वे उर्दू के लेखक थे और सारा लेखन उर्दू लिपि में ही करते थे । नाटक से फ़िल्मी दुनिया तक पहुंचे और ‘बाज़ार’जैसी फ़िल्म बनाकर अपना अलग स्थान बनाया। वे फ़िल्म जगत की एक ऐसी हस्ती हैं जो निर्माता, निर्देशक एवं लेखक तीनों के रूप में ख़ासे चर्चित रहे ।
‘अनुभव’, ‘चांदनी’, ‘दिवाना’, ‘कभी-कभी,’ ‘नूरी’, ‘दूसरा आदमी’, और ‘सिलसिला’जैसी फ़िल्में उनकी की क़लम का ही कमाल थीं । फ़िल्म जगत में सफलता के बावजूद नाटक के प्रति उनका जुड़ाव कभी कम नहीं हुआ। उनहोंने ‘तन्हाई, ‘भूखे भजन न होए गोपाला, भगतसिंह की वापसी’और ‘दूसरा आदमी’जैसे नाटकों को न केवल रचा बल्कि उनकी सैकड़ों सफल प्रस्तुतियों कीं । मरते दम तक उनका यह सपना था कि जनपक्षीय नाटक के ज़रिए देश पर
जो फ़ासीवादी शिकंजा कसता जा रहा है उस के ख़िलाफ़ देश के आम लोगों और खासकर नौजवानों
को सचेत किया जाए ।
उन्हों ने बहुत शोहरत और दौलत कमाई लेकिन अपने जनपक्षीए विचारों,
आदर्शों और ईमानदारी की वजह से हिंदी फ़िल्मी दुनिया में फल-फूल रहे आदमख़ोर पूंजी लगाने
वाली जमात के हाथों लूट लिए गए। उनके दस्तखत वाले झूठे दस्तावेज़ बनाकर उनकी कई फ़िल्मों
पर उनका क़ब्ज़ा हो गया जो डिब्बों में बंद पड़ी हैं। अपने अंतिम दिनों में मुंबई के सायन
नगर के कोलीवाड़ा के उसी घर में लौटना पड़ा जहाँ से उन्हों ने अपना बम्बई का सफ़र शुरू
किया था। वे किताबों के दीवाने थे, जब भी दिल्ली आना होता उस से पहले किताबों की फ़हरिस्त
आ जाती जिन्हें मैं ने उनके लिए जमा करना होता था। उनके जुदा होने के बाद उनकी बेमिसाल निजी लाइब्रेरी
का किया हाल होगा कोई नहीं जानता। जब तक उनमें चलने-फिरने की ताक़त रही वे सरकारी,
धार्मिक, जातिवादी और परुषवादी ज़ुल्मों के ख़िलाफ़ हर आयोजन में हिस्सेदारी करना कभी
नहीं भूलते थे।
उन के साथ निमन्नलिखित बात-चीत दिल्ली में मई 1993 में होई थी। मेरे सवालों के जो जवाब, हिंदी फ़िल्मों, फ़िल्मी दुनिया, उर्दू-हिंदी साहित्य, नाटक के बारे में उन्हों ने दिए वे आज भी प्रसंगकिक हैं बल्कि ज़्यादा शिद्दत से हमारा ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। वे उस पीढ़ी से आते थे जिस ने धर्म के नाम पर देश के बॅटवारे के नतीजे में भयानक ज़ुल्म, हिंसा, और तबाही झेलने के बावजूद इंसानियत, समाजवाद और शोषण से मुक्त सेकुलर समाज बनाने का सपना नहीं ओझल होने दिया और जीवनभर इन सपनों को साकार करने के लिए लामबंद रहे। इस में कोई शुबह नहीं की अगर सागर सरहदी की सेहत इजाज़त देती तो वे दिल्ली की सरहदों पर धरना दे रहे बहदुर किसानों के बीच रह रहे होते।
सवाल: ‘बाज़ार, ‘लोरी, ‘अगला मौसम’जैसी फ़िल्में बनाने के बावजूद बहुत ज़माने से आपने कोई नई फ़िल्म नहीं बनायी। ऐसे क्यों?
जवाब: यह सच है कि मैंने कई वर्षों से कोई फ़िल्म नहीं बनाई हैं इसके बहुत से कारण हैं। एक सृजनकार की तमाम ख़्वाहिशों के बावजूद फ़िल्म बनाने की प्रक्रिया बहुत जटिल और ढेढ़ी खीर की तरह हो गयी है। पैसा लगाने वाले लोग जल्दी से बहुत पैसा बनाना चाहते है। इसलिए किसी भी प्रयोग में पैसा लगाने से कतराते हें। एक वजह कलाकारों का बहुत ज़्यादा मंहगा होना भी है। सबसे महत्वपूर्ण कारण मेरी अंतिम फ़िल्म ‘लोरी’ का नाकाम हो जाना था।
विजय तलवार के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म को जब पेश किया गया तौ एक दिवसीय क्रिकेट मैच उन दिनों छाए हुए थे।
दर्शक हाल में जा ही नहीं रहे थे। इस फ़िल्म की नाकामी ने मेरा घर-बार बिकवा दिया। नई फ़िल्म बनाने का विचार कई बार दिल दिमाग़ में जोश मारता है लेकिन परिस्थतियों उसकी इजाज़त नहीं देतीं।
सवाल: आम अपनी फ़िल्मों में किस फ़िल्म को सबसे बढ़िया मानते हैं?
जवाब: हर लिहाज़ से ‘बाज़ार’मेरी सबसे बेहतरीन फ़िल्म है। मैं अपनी बाक़ी सब फ़िल्मों को दिखावटी मानता हूं। ‘बाज़ार’फ़िल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है, मैं एक शादी में हैदराबाद गया था जहाँ एक भारतीय मूल के
एक अमीर विदेशी से भेंट हुई जिस ने शादी के लिए एक 15 साल की एक बच्ची से दलालों के मार्फ़त शादी की थी। इस ने मुझे हिलाकर रख दिया। इस फिल्म के सब किरदार
मुस्लमान थे लेकिन कोई भी स्टीरिओ-टाइप नहीं। बाजार बनाने के लिए 22 बार हैदराबाद गया,
आम सेकिंड क्लास में। वहां 65 रुपए महीने का
कमरा किराए पर लिया हुवा था।
इस फ़िल्म को प्रतिबद्धता के साथ हम सबने बनया था, सब कलाकार और तकनीशियन बहुत कम मेहनताने और सुविधाओं पर इस फ़िल्म को करने पर सहमत हो गए थे, क्योंकि उन्हें इस बात का एहास था कि मैं इस फ़िल्म को इंसानी एहसासात को उजागर करने के लिए एक जज़्बे के तह बना रहा हूं। उस दौर का अब लौट पाना बहुत मुश्किल है।
सवाल: आख़िर ऐसा क्यों हुआ है कि बंबई की फ़िल्मी दुनिया में ख़्वाजा अहमद अब्बास, गुरूदत्त, बलराज साहनी, पृथ्वीराज कपूर जैसे प्रतिबद्ध और कम बजट की फ़िल्म बनाने वालो की पीढ़ी लुप्त हो गई है?
जवाब: उसकी वजहें बहुत साफ़ हैं। वे लोग सामाजिक और राष्ट्रीय चितांओ के चलते फ़िल्मों का सृजन करते थे। उनकी फ़िल्मी का सृजन उनके जीवन दर्शन का ही एक हिस्सा था। हर कोई उनकी ललक और प्रतिबद्धता को महसूस करके उनके साथ सहयोग करता था। हर फ़िल्म एक सामूहिक कर्म में बदल जाता था। आजकल लोग फ़िल्म नहीं बनाते हैं बल्कि वो तो एक तरह का उद्योग लगा रहे हैं। फ़िल्म निर्माताओं का एक मात्र उद्देश्य पैसा कमाना है तो अभिनेता और तकनीशियन भी कोई क़ुर्बानी क्यों करें। लोकप्रिय सिनेमा के क्षय का एक कारण फ़िल्मी दुनिया पर तस्करों और अपराधियों के पैसे का बढ़ता नियंत्रण भी है। इस तरह के पैसे के दख़ल ने भारतीय फ़िल्म के साथ दो खिलवाड़ किये हैं। एक तो यह कि इन्होंने फ़िल्मी जगत में इतना धन बहाया है कि कलाकारों की क़ीमतें आसमान छूने लगीं हैं दूसरे यह कि अब लोकप्रिय सिनेमा सिर्फ़ हिंसा और सैक्स पर ही निर्भर है। स्मगलर, फाइनेंसर अपनी जीवन शैली की फ़िल्में पर्दे पर चाहते हैं। ज़ाहिर है जिनका खायेंगे, उनका राग अलापना भी पड़ेगा।
सवाल: फ़िल्मी दुनिया में एक लेखक के तौर पर आपने बहुत काम किया है, आपने कई यादगार फ़िल्में लिखी। क्या आप फ़िल्मी जगत में लेखक की हैसियत से संतुष्ट हैं?
जवाब: फ़िल्म के लिए बुन्यादी चीज़ पटकथा है, कहानी कोई भी लिख सकता
है । और हाँ, फ़िल्म की पटकथा कोई बाइबिल नहीं होती के जिसमें कोई तबदीली नहीं हो सकती।
इसे आखरी रूप देने में निर्माता, निर्देशक और लेखक में तालमेल होना ज़रूरी होता है।
हिंदी फ़िल्मों के लिए लिख रहा कोई भी लेखक मौलिक होने की जुर्रत नहीं कर सकता। अगर लेखक मज़बूत होता है तो अपनी बात मनवा लेता है
और अगर लेखक कमज़ोर होता है तो उस के बारे में एक लतीफ़ा मशहूर है।
एक बार शूटिंग के दौरान एक अभिनेत्री ने लेखक से कहा कि फ़लां डायलाग बदल दीजिए। लेखक तैयार नहीं हुआ, जब अभिनेत्री ने ज़िद्द की तो लेखक ने रुहांसा होकर कहा यही तो एक उनका डायलाग है। पटकथा में बचा है बाक़ी तो सब का सब निर्माता और निर्देशक बदल चुके हैं। इस बात को समझना ज़रूरी है कि फ़िल्मों में पैसे लगाने वाले लोग आम तौर पर सिंधी और मारवाड़ी
सरमायादार हैं और डिस्ट्रीब्यूटर सब पैसे वाले लोग हैं । डिस्ट्रीब्यूटर बोलता है,
लड़कियां नंगी दिखाओ, मुजरे डालो, बैडरूम सीन डालो। अब तरक़्क़ी यह होई है की, जैसा के मैं ने पहले भी
कहा है, की तस्करों और अपराधियों के पैसे की भी रेल-पेल हो गयी है। वे अपने किरदारों
की शान में बनाई गयी फ़िल्मों में पैसा लगाने के लिए उतावले रहते हैं ।
लेकिन हिंदी फ़िल्मों में अपवाद भी रहे हैं। सआदत हसन मंटों ने भारतीय फ़िल्मों के लिए यादगार पटकथाएं लिखीं। राजेंद्र सिंह बेदी ने विमल दा और ऋषिकेष के लिए ज़बरदस्त पटकथायें लिखीं। इस सच को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि सलीम-जावेद ने हिंदी फ़िल्म के पटकथा लेखन को एक महत्वपूर्ण दर्जा दिलवाया। इन दोनों ने लेखक को फ़िल्मी सितारों के रूप में उभरने का मौक़ा दिया, कसकर पैसे वसूले। आज हिंदी फ़िल्म में पटकथा, लेखक जो खा कमा रहे हैं उसकी वजह भी सलीम-जावेद ही हैं।
सवाल: फ़िल्म के पटकथा लेखन के क्षेत्र में आप अपनी भूमिका को लेकर संतुष्ट हैं?
जवाब: नहीं, पटकथा लेखन बहुत चीजों से तय होता है। मैंने यह ईमानदार प्रयास ज़रूर किया है कि अपनी पसन्द की फ़िल्में लूं, मेरे थैले में हर तरह का माल नहीं है। मैं किसी भी ऐसी फ़िल्म के लिए काम नहीं करता जो औरत के खिलाफ़ हो। मेहनतकशों के खिलाफ़ हो, या जातिवादी और साम्प्रदायिक घृणा का शिकार हो। मैं अपने लेखन में मद्रासी फ़ार्मूले और अश्लील लटकों का इस्तेमाल
नहीं करता । यह सचेतन प्रयास होता है कि मैं अपनी फ़िल्मों में इंसानी मान्यताओं को उभारुं। आप देखेंगे कि मेरी फ़िल्मों में महिला पात्र बहुत सशक्त होते हैं।
सवाल: फ़िल्म और रंगकर्म में आपको ज़्यादा क्या पसंद है?
जवाब: मैं दरअसल थियेटर का ही आदमी हूं, हमेशा नाटक ही करना चाहता था। मैंने अपना गु्रप ‘द कर्टेन’और बलराज साहनी ने अपना ड्रामा संगठन ‘जुहू थियेटर’बंद करके बंम्बई में ‘इप्टा’शुरू किया था। हम लोग बस्तियों में जाते, छोटे-मोटे हॉलों में जाकर नाटक करते। जब पैसे की बहुत तंगी होने लगी तो मैने थियेटर को नहीं त्यागने का फ़ैसला किया और ख़र्चा निकालने के लिए टैक्सी ड्राइवर बनना तय किया। उसके लिए लाईसेंस भी बनवाया। दोस्तों के मजबूर करने पर मैंने बसु भट्टाचार्य की पहली फ़िल्म ‘अनुभव’के डायलाग लिखना मंजूर किया। फ़िल्मी दुनिया में मैं इसलिए आया कि मैं सार्थक रंगमंच करना चाहता था। अपने उसी लगाव के चलते मैंने यह भी फ़ैसला कर लिया था कि मैं शादी नहीं करूंगा।
सवाल: प्रगतिशील नाट्यकर्मियों के सामने आज क्या चुनौतियां हैं?
जवाब: मुझे लगता है कि प्रगतिशील नाट्य आंदोलन की समस्याएं संगठन सम्बंधी उतनी नहीं है जितनी कि बौद्धिक और वैचारिक हैं। हम मैं से ज्यादातर लोग भूतकाल में ही जी रहे हैं। हम सच्चाई की आंखों मे ऑंखें डालने से कतराते हैं। पढ़ना-लिखना तो हम लोगों ने बंद ही कर दिया है। ज़्यादातर
नाट्यकर्मियों की समस्या यह है कि वे यूरोपीय नमूनों की नक़ल करते हैं। इब्सन से शुरू करते हैं और अलगाववाद से होते हुए एब्सर्ड थियेटर तक पहुंचते हैं और अंत सनसनी फैलाने वाले नाटकों पर होता है। हमें इन सबसे बचना है। हमारे देश के नाट्य कर्मियों की इस देश की सच्चाई सच्चाई से सबक़ सीखने होंगे ।। हमें अपने देश की परिस्थतियों के संदर्भ में ही एक वैकल्पिक थियेटर विकसित करना होगा। मैं अपना बाकी समय इसी काम में लगाना चाहता हूं।
सवाल: मुल्क
में और ख़ासतौर पर बम्बई में जो मज़हबी दंगों का दौर चल रहा है इस पर आप की क्या राय है?
जवाब: इसे में ने बहुत क़रीब से देखा है। बम्बई शहर का जलना अब आम बात
हो गयी है इस के लिए में कांग्रेस को सब से ज़्यादा ज़िम्मेदार मानता हूँ। इस ने हमारे
मुल्क को ऐसे तबाह किया है जिस का ब्यान नहीं किया जा सकता। यह दंगे कराती है फिर बंद
कराती है। शिव सेना पैदावार किस की है? कांग्रेस के चीफ़ -मिनिस्टर वी पी नायक ने पैदा
कराई ताकि मज़दूर तहरीक पर कम्युनिस्टों का असर ख़तम कराया जा सके।
शम्सुल इस्लाम