Friday, June 28, 2019

अलविदा गिरीश कारनाड : जनपक्षीय संस्कृति की रूह का चले जाना


अलविदा गिरीश कारनाड!
जनपक्षीय संस्कृति की रूह का चले जाना
बहुमुखी प्रतिभावान, बहु-भाषिए, लेखक, नाटककार, अभिनेता, निर्देशक, कवि, अनुवादक, पटकथा लेखक, मुखर सामाजिक एक्टिविस्ट और एक बेहतरीन इंसान, गिरीश कारनाड का पिछली जून 10 को बेंगलुरु में उनके आवास पर निधन हो गया। वे 81 वर्ष के थे। उनकी मौत पर कर्नाटक सरकार ने उनकी अंतेष्टी राजकीय सम्मान के साथ करने की घोषणा की लेकिन परिवार ने गिरीश की इच्छा के अनुसार इसे पूरे तौर पर परिवार तक सीमित रखा। काम के प्रति वे किस हद जुनूनी थे इस का अंदाज़ा इस बात से किया जा सकता है की गंभीर रूप से बीमार होने के बावजूद, मौत से एक दिन पहले तक उन्हों ने लेखक-अनुवादक अर्शिया सत्तार के साथ मौखिक साक्षात्कार रिकॉर्ड कराए थे।
उनकी मौत के साथ आधुनिक भारतीय रंगमंच का वह सुनहरी दौर लगभग समाप्त होता है जिसका आग़ाज़ उनके, बादल सरकार, मोहन राकेश और विजय तेंदुलकर के नाटकों दुवारा हुवा था। यह जानना रोचक होगा की वे अंग्रेज़ी भाषा के कवि बनने की ख़्वाहिश लिए ऑक्सफ़र्ड यूनिवर्सिटी, इंग्लैंड गए थे लेकिन पानी के जहाज़ पर सफर के दौरान उन्हों ने अपना पहला नाटक 'ययाति' (1961) लिख डाला जो महाभारत के एक मिथक पर केंद्रित था। 'ययाति' कैसे लिखा गया इस के बारे में चर्चा करते हुवे एक साक्षात्कार में उन्हों ने बताया था की उन्हें ऐसा लगा की "उनके कानों में संवाद बोले जा रहे हैं और वे तो केवल लिपिबद्ध कर रहे हैं।"   
वे 26 साल के थे जब उन्हों ने आधुनिक भारतीय नाट्य इतिहास में मील का पत्थर बन गए नाटक 'तुग़लक़' (1964) रचा। इस नाटक के केंद्र में 14वीं शताब्दी का शासक सुल्तान मोहम्मद-बिन-तुग़लक (1325-1351) था जो फ़ारसी, अरबी, संस्कृत और तुर्की भाषाओँ का माहिर होने के साथ लीक से हटकर कुछ करना चाहता था। 'तुग़लक़' में सुल्तान को कोई ख़ब्ती शासक न दर्शा कर एक ऐसे आदर्शवादी राजा के तौर पर चित्रित किया गया जो अपनी प्रजा को सुरक्षा और धार्मिक सौहार्द का माहौल उपलब्ध करना चाहता था।  वह इस लिए नाकाम हुवा कियों की उसके आदर्श ज़मीनी सच्चाई से मेल नहीं कहाते थे। कुछ समीक्षकों का यह भी मन्ना है की यह नाटक वास्तविकता में जवाहरलाल नेहरु शासन पर था जो आज़ादी के समय किये गए वादों पर खरा नहीं उतरा था।  याद रहे भारतीय प्रजातंत्र दुवारा किये गए इसी विश्वासघात से विचलित होकर रचनाकारों ने नई कहानी/नई कविता और नुक्कड़ नाटक आंदोलनों को जनम दिया।
गिरीश ने मूल रूप से यह नाटक कन्नड़ भाषा में लिखा था। इस का पहला मंचन उर्दू में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दुवारा एक छात्र परस्तुति के रूप में दिल्ली में 1966 में किया गया, जो बहुत सराहा गया। इस की विख्यात प्रस्तुति पुराने क़िले के विशाल मुख्य दुवार को स्टेज बनाकर 1972 में की गयी जिसमें प्रसिद्ध रंगकर्मी मनोहर सिंह ने तुग़लक़ का बेमिसाल और कभी न भुलायेजाने वाला रोले अदा किया। 1970 में इस नाटक को अंग्रेजी में बंबई में खेला गया।
इस के बाद इस नाटक की प्रस्तुतियों की झड़ी लग गयी और देश की विभिन्न भाषाओँ में इस को लगातार खेला गया। 1982 में इसे लंदन में प्रस्तुत किया गया जहाँ ज़बरदस्त मक़बूलियत हासिल होई। 'तुग़लक़' ने 26 वर्ष की आयु में ही गिरीश को देश का पहली पंक्ति का नाटककार के तौर पर स्थापित कर दिया। इस वाहवाही ने गिरीश के रचना कर्म को मद्धिम नहीं किया बल्कि और तेज़ कर दिया।  उन्हों ने एक के बाद एक बौद्धिक तौर पर झिंझोड़ने वाले यादगार नाटक, जैस की, 'हयवदन' (हयवदन स्त्रीपुरुष के आधेअधूरेपन की त्रासदी, 1972), 'अंजु मल्लिगे' (ख़ौफ़ज़दा मोगरे का फूल, 1977), 'बलि-हित्तिना हुंजा' (बलि, 1980), 'नागमंडल' (कोबरा खेल, 1988), 'तलेडंडा' (रक्त कल्याण 1990), 'अग्नि मत्तू माले' (अग्नि और वर्षा, 995) 'टीपू सुल्तान कांडा कानासू' (टीपू सुल्तान के सपने, 1997), 'ओदाकालू बिम्बा' (बिखरे बिम्ब, 2006), 'माडुवे एल्बम' (शादी का एल्बम, 2006, 'फ़्लोवेर्स' (फूल, 2012) और 'बैनडा कालू ऑन टोस्ट' (टोस्ट पर उबली हुई फलियां, 2012) लिखे। उन्हों ने अपने कई नाटक अंग्रेजी में भी अनुवाद किए जो विश्वभर में खेले गए और विख्यात हुवे।
आधुनिक भारतीय सिनेमा जगत में उन्हों ने कमर्शियल सिनेमा के विपरीत एक समानांतर फिल्म आंदोलन की नींव रखी जिस की शुरुआत श्याम बेनेगल दुवारा निर्देशित फिल्मों, 'निशांत' और 'मंथन' से हुयी। उन्हों ने फिल्मों में एक अदाकार के तौर पर अपना सफ़र 1970 में साथी कन्नड़ लेखक यू.आर. अनंतमूर्ति के उपन्यास पर आधारित फ़िल्म 'समस्कार' से किया जिस की पठकथा भी उन्हों ने ही लिखी थी। उन्हों ने कन्नड़, तमिल, तेलगु, हिंदी, मराठी, मलयालम भाषाओँ की 97 फिल्मों में असरदार किरदार निभाए। भारतीय सिनेमा के इतिहास में गिरीश कर्नाड की तरह के बहुमुखी अदाकार की कोई दूसरी मिसाल मुश्किल से ही मिल सकती है।      
एक नाट्य लेखक के तौर पर गिरीश ने अपने नाटकों में भारतीय इतिहास, प्राचीन मिथक और लोक कथाओं का भरपूर इस्तेमाल किया। उनका यह मानना था की रूढ़िवादी और धार्मिक कट्टरवादी शक्तियां इन  सब का मनमाना प्रयोग इस तरह करती हैं मानो इन सब में कोई विरोध का स्वर नहीं था, लोगों में किसी तरह की चेतना नहीं थी। वे इतिहास का सहारा लेकर आज़ाद भारत की प्रजातान्त्रिक और धर्म-निरपेक्ष वयवस्था के सामने जो संकट थे उन का हल खोजने की कोशिश में लगे रहे।  
'कला अराजनैतिक होती है' गिरीश इस फ़लसफ़े के ज़बरदस्त विरोधी थे। उनका लेखन इस सच्चाई का जीताजागता उधारण था । एक बुद्धजीवी के तौर पर भी वे हिन्दुत्वादी कट्टरवाद और राज्य की दमनकारी नीतियों के ख़िलाफ़ विरोध में सड़क पर निकलने से भी गुरेज़ नहीं करते थे। प्रसिद्द कन्नड़ विद्वान, ऍम. ऍम. कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या  के खिलाफ वे विरोध प्रदर्शनों में शामिल हुए । पिछले साल जब सरकार ने कई प्रमुख वकीलों, सामाजिक एक्टिविस्ट और बुद्धिजीवियों को गिरफ्तार किया तो वे ऑक्सीजन सिलेंडर के साथ व्हील-चेयर पर 'मैं भी अर्बन नक्सल' की तख्ती लिए विरोध में बाहर आये। यही वजह थी की जब भारत और विश्व कला जगत इस महान कलाकार और रचनाकार की मौत के ग़म में डूबा था सोशल मीडिया पर हिन्दुत्वादी तत्व 'अच्छा छुटकारा' और 'एक कम्युनिस्ट के बिना देश बेहतर रहेगा' जैसे पोस्ट लगा रहे थे। यद् रहे की हिन्दुत्वादी कट्टरपंथियों ने जो 'हिट-लिस्ट' बनाई थी,  उस में गिरीश का नाम भी शामिल था।   
गिरीश की मौत की खबर से देश का सांस्कृतिक जगत शोक में डूब गया। देश के शहरों और क़स्बों में शोक सभाएं आयोजित की गयीं।  उनके साथ जिन लोगों ने काम किया था उन्हों ने गिरीश के महान योगदान के जाने और अनजाने पहलुओं का ज़िक्र करते हुवे उन्हें याद किया। गिरीश के क़रीबी दोस्त और कला के क्षेत्र में सहभागी, इतिहासकार रामचंदर गुहा ने उन्हें कला की दुनिया का 'महापुरुष' बताते हुवे इस सच्चाई को रेखांकित किया की वे "इस मायने में विशिष्ट थे कि उन्हों ने भारतीय कलाओं, संस्कृति और सभ्यता की विभिन्ता और फैलाव का अध्ययन किया था। उनमें यह हुनर था की वे उत्तर भारत को दक्षिण भारत, लोक को क्लासिकी और लोकप्रिय को विद्धता, से जोड़ सकते थे। वे 6 भाषाएं (कन्नड़, तमिल, तेलगु, मलयालम, हिंदी और मराठी) जानते थे।"
शबाना आज़मी जिन्हों ने गिरीश कर्नाड के साथ मिलकर बेहतरीन फ़िल्में (अंकुर, निशांत, स्वामी, चॉक एंड डस्टर) दीं 'अलविदा प्यारे दोस्त' शीर्षक से अपनी श्रद्धांजलि में लिखा की उनसे मेरी मुलाक़ात 1974 हुई थी जब वे श्याम बेनेगल की फ़िल्म अंकुर में काम कर रही थीं। शबाना ने आखरीबार उनके अंग्रेजी नाटक 'ब्रोकन इमेजेज़' में 2016 में काम किया था जब वे गंभीर रूप से बीमार थे लेकिन एक सचेत नागरिक के तोर वे लगन और प्रतिबद्धता से भरपूर थे। वे किसी भी क़िस्म की संकीर्णता और बदले की भावना से परे एक शानदार इंसान थे। जब वे पुणे फिल्म संसथान [FTII] के निर्देशक थे तो छात्रों ने नसीरुद्दीन शाह के नेतृत्व में हड़ताल करदी। इस दौरान गिरीश और शाह के बीच काफी कहासुनी भी हुई।  इस सब के बावजूद यह गिरीश ही थे जिन्हों ने श्याम बेनेगल को उनकी नई फिल्म निशांत के लिए शाह का नाम महत्तपूर्ण भूमिका के लिए सुझाया।  इतिहास इस बात का गवाह है की निशांत ने शाह के फ़िल्मी सफ़र को एक शानदार शरुआत दी और उन्हें एक बेहतरीन अभिनेता के तौर पहचान दिलाई।
यहां यह याद करना भी ज़रूरी है कि वे पुणे फिल्म संसथान के आज तक के इतिहास में सब से काम आयु (35 साल) के निदेशक थे। दिलचस्प बात यह हे कि कई छात्र उनसे ज़्यादा उम्र वाले थे।
शाह ने गिरीश कारनाड को याद करते हुवे कहा की "मैं ने उन्हें बहुत ज़्यादा परेशान किया था। जब फिल्म संसथान बंद हो गया उन्हों ने मेरा एक नाटक देखा और श्याम बेनेगल को मेरा नाम तजवीज़ किया। मैं इस के लिए हमेशा-हमेशा ऋणी और अहसानमंद रहूंगा।"    
श्याम बेनेगल जिन्हों ने गिरीश के साथ अर्ध-शताब्दी से भी ज़्यादा फ़िल्मी सफ़र सहकर्मी के तौर पर जिया था, मौत की ख़बर सुनकर स्तब्ध रहगए और कहा की वे बोलने की स्तिथि में नहीं हैं।
प्रसिद्ध गायिका लता मंगेशकर ने गिरीश को एक क़ाबिल अभिनेता, निर्देशक और लेखक के तौर पर याद करते हुवे उनकी मौत पर गहरा दुःख वयक्त किया। अभिनेता और फ़िल्मकार अमोल पालेकर ने उन्हें याद करते हुवे कहा की गिरीश कर्नाड की मौत उनके लिए कई स्त्रों पर जैसे की सांस्कृतिक, बौद्धिक और राजनैतिक, अपूरणीय क्षति है।  वयवस्था के अत्याचारों के विरुद्ध कुछ ही कलाकार आवाज़ बुलंद करने की हिम्मत दिखाते हैं और गिरीश उनमें से एक थे। इस महान व्यक्ति की याद में हम सब को सर झुकाना चाहिए।
गिरीश के पत्रकार बेटे, रघु कारनाड ने अपने 'अप्पा' को एक ऐसा सांस्कृतिक कर्मी बताया जो " थोड़ा इतिहास, थोड़ा दंतकथा, थोड़ा गीत, थोड़ा लोककथाएं और दर्शन से शिष्टता पूर्वक सराबोर थे।"    
कला और संस्कृति के क्षेत्र में महत्पूर्ण योगदान के लिए उन्हें 1974 में पद्मश्री और 1992 में पद्मभूषण प्रदान किया गए । कालिदास सम्मान 1998 में और 1999 में देश के साहित्य और कला के क्षेत्रों में उनके महान योगदान के लिए मशहूर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाज़ा गया था । फिल्मों में अभूतपूर्ण योगदान के लिए उन्हें 10 राष्ट्रीय पुरस्कार दिए गए। 
शम्सुल इस्लाम
Email: notoinjustice@gmail.com

 'आउटलुक'  15 जुलाई, 2019 के अंक में प्रकाशित
https://www.outlookhindi.com/story/1826

Wednesday, June 26, 2019

BETRAYAL OF 1857: KIN OF THOSE WHO SACRIFICED DIE IN PENURY & THOSE WHO SERVED BRITISH CONTINUE RULING INDIA


BETRAYAL OF 1857: KIN OF THOSE WHO SACRIFICED DIE IN PENURY & THOSE WHO SERVED BRITISH CONTINUE RULING INDIA
Delhi as the Capital of India and touted as the heart of India, in fact, is a heartless city. There is endless list of shameful incidents to corroborate this character of the city. This list keeps on expanding at fast rate. The latest is the news that Cyrus,  the last surviving 'prince' of the Oudh (Awadh)dynasty which ruled vast territories later known as United Province and played heroic role in India's War of Independence of 1857 died due to hunger and related issues in the vicinity of the houses of the Delhi elite including Indian rulers, diplomats, businessmen and authors.

According to press reports "the last prince of Awadh, who lived in abject penury, was found dead on September 2 (2017) in Delhi's 'Malcha Mahal', a Tughlak-era hunting lodge, tucked deep inside a patch of forest, overrun by moss and disrepair". Shockingly, the news of the death was broken by a section of the media over two months after a team of police officers found him lying motionless inside the derelict 14th century structure on last September 2.

Ali Raza popularly known as Cyrus and his sister Sakina came to Delhi with their mother, Begum Wilayat Mahal in 1970s. Begum was fighting a long battle with the Uttar Pradesh government for return of their ancestral property in Lucknowand demanding recognition for the sacrifices made by her family during the 1857 War of Independence described as Sepoy Mutiny by the British.With no solution of the problem at Lucknow Begum started camping in a first class waiting room of the New Delhi Railway Station after arriving in Delhi. However, in 1985 she was allotted 'Malcha Mahal' and a paltry monthly allowance of Rs 500 in exchange. Since then family had been staying there.


The family chose a life of isolation and rarely interacted with outsiders despite staying in the vicinity of elite of the city which included rulers of India, industrialists, diplomats, authors and administrators. The 700-year-old dilapidated 'Malcha Mahal' had no electricity, no doors, no windows and no water.
In an interview to The Indian Express in 1997, the Prince had spoken of his sister’s deep distress since their mother died, and her obsession with committing suicide. “My sister is in deep distress and since the Begum died, (she) has been wearing black. She has not combed her hair even once.” Sakina died few months ago. At the time, their mother’s ashes were being kept in a crystal vial in the middle of the large room.According to the Prince, his mother had died by consuming crushed diamonds, extracted from ornaments she never wore in 1993.
He was often seen pouring water in the blue ceramic tea set displayed on a broken table. As per the local police version the prince would wander near the forested areas in Chanakyapuri and, for the past two-three days, there was no movement which was suspicious. Police later found that he was lying dead on the floor inside his house. He was taken to a nearby government hospital (RML) for his post-mortem, where no external injuries were found on his body. There were some contact numbers found from the spot but none of them could be reached. After the mandatory wait of 72 hours when no one came to claim the body the body was handed over to Delhi Waqf Boardwhich organized his burial at Delhi gate Cemetery on September 5.
Thus died the last Prince of Oudh Dynastypopularly known as Cyrus. Ironically, Cyrus (600-530 BC) was the founder of one of the greatest empires in the world history, the Achaemenid Empire. Cyrus was described as King of Persia and King of the Four Corners of the World. This Cyrus of the former Oudh ruling dynasty died a pauper.
Presently, there are no details available about Begum Wilayat Mahal's connections with the great Begum Hazrat Mahal and her son Brijis Qadr who played prominent role in leading the 1857 War of Independence against the East India Company rule. Begum Hazrat Mahal carried on the armed struggle till 1860. She did not surrender and took asylum in Nepal where she died in 1879. However, it is true that Begum Wilayat Mahal demanded compensation from Independent India's government for being member of a family of rebels and her claim was not rejected.
The story of Begum Wilayat Mahal and her children who hailed from family of rebels of 1857 armed struggle dying as paupers is not an isolated incident. There are thousands of such stories which no historian has bothered to chronicle. It is no more part of Indian nation's narrative.


The saddest part is that neither on the eve of Independence nor while commemorating the centenary of this event in 1956-57, the Indian State bothered about the injustice done to the families who lost everything in this great struggle. The free India's government should have announced the compensation for kin and families of martyrs and restored to them properties/wealth confiscated by the British for 'crime' of joining 'Mutiny'. It should have been the first order.

It did not happen but a more criminal practice was allowed to continue. Those stooges who helped the British in suppressing the 'Mutiny' like rulers of Gwalior, Hyderabad, Bhopal, Rampur, Kashmir, Patiala, Pataudi, Nabha and many more were allowed to retain their own properties. Not only this, these anti-nationals were allowed to continue to possess properties of the rebels which were confiscated by the British and awarded to these princes as rewards. Sadly, if on the one hand India witnessed children/kin of the freedom fighters living a pathetic lifeand dying like the family of Begum Wilayat Mahal, on the other hand we saw the shocking spectacle of the family members of the stooges enjoying power as chief ministers, ministers, Governors in an independent India. Even the residences of Bahadur Shah (Red Fort etc.), Rani Laxmi Bai (Jhansi fort), Begum Hazrat Hazrat Mahal (Lucknow Residency), to cite few examples out of thousands, were not restored. All these became national properties. Zafar's family ended as being beggars in Burma. But the stooge princes were allowed to own their estates convert many of these into money minting resorts.

Thus the stooges ruled during the British times and continue to rule the Independent India. And the kin of those who sacrificed everything for freedom continue live as paupers. BHARAT MAATAA KEE JAI!

Shamsul Islam
November 13, 2017
For some of S. Islam's writings in English, Hindi, Malayalam, Kannada, Bengali, Punjabi, Urdu & Gujarati see the following link:
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दिसंबर 6, 1992 को हिन्दुत्वादी आतंकवादियों ने अयोध्या में क्या किया था?


दिसंबर 6, 1992 को हिन्दुत्वादी आतंकवादियों ने अयोध्या में क्या किया था?
इस दुखद सच को झुटलाना मुश्किल है कि हमारा देश जिस को दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र माना जाता है वहां दो तरह की न्यायक पद्धतियांकाम करती हैं। एक है जब बहुमत धर्म और ऊंची जातियों से जुड़े लोग/संगठन अल्पसंखयकों और दलितों के खिलाफ हिंसा करते हैं तो  हिंसा करने वाले मुजरिमों को सज़ा मिलना तो दूर की बात है उनकी पहचान भी नहीं हो पाती है।  यह चाहे बांग्ला भाषी मुसलमानों का नेल्ली जनसंहार (1983), सिख जनसंहार (1984०), बाबरी मस्जिद के विध्वंस (से पहले और बाद में 1992-93 के दौरान मुसलमान विरोधी हिंसा), गुजरात जनसंहार (2002), कंधमाल ईसाई जनसंहार (2007) या दलितों के अनगिनित जनसंहारों में से कुछ जैसे कि बथानी टोला (1996),लक्ष्मणपुर बाथे (1997), मिर्चपुर (2010) खैरलांजी (2006) किलवेलमानी (1968) किलविलमणिहों। क़ातिलों, बलात्कारियों और लुटेरों की पहचान नहीं हो पाती है और राज्य आयोग पर आयोग बिठाकर अल्पसंखयक और दलित विरोधी जनसंहारों को रफ़ा-दफ़ा करने के काम में ही जुटा रहता है। 
लेकिन अगर अल्पसंखयकों या दलितों दुवारा 'हिंसा' की गयी हो तो तुरंत फांसी और उम्रक़ैद दे कर 'इंसाफ़' किया जाता है।
यही खेल बाबरी मस्जिद के विध्वंस वाले मामले में खेला जा रहा है। 25 साल के बाद भी मस्जिद के गिराने वालों जिन्हों ने ऐलान करके इसे गिराया था को सज़ा नहीं दी गयी बल्कि वे देश के प्रधान-मंत्री, उप प्रधान मंत्री और मंत्री बने।  इस के बरअक्स मस्जिद की मिल्कियत को लेकर क़ानूनी लड़ाई की जा रही है।
दिसंबर 6, 1992 के दिन अयोध्या में मस्जिद और मुसलमानों के साथ किया हुवा था इस को जानना ज़रूरी है। देश की प्रजांतरिक-धर्मनिरपेक्ष वयवस्था के साथ हिन्दुत्वादी संगठनों ने जो शर्मनाक खेल खेला था उस की एक रपट पेश है जो नीलिमा शर्मा और शम्सुल इस्लाम ने बाबरी विध्वंस के एक महीने बाद वहां जाकर तैयार की थी। 
यह रपट जनवरी 31, 1993 को दैनिक जनसत्ता में छपी थी।  

AYODHYA IN 1857 & NOW


AYODHYA IN 1857 & NOW
After independence, the town of Ayodhya has emerged as a place which caused the growth of immense hatred between sections of Hindus and Muslims. Babri Masjid-Ram Janmbhoomi dispute at Ayodhya has played significant role in creating an environment of violence and mistrust between the two largest religious communities of India. But in 1857, it was the same Ayodhya where Maulvis and Mahants and common Hindu-Muslims stood united in rebelling against the British rule and kissed the hangman’s noose together. Maulana Ameer Ali was a famous Maulvi of Ayodhya and when Ayodhya’s well-known Hanuman Garhi’s (Hanuman Temple) priest Baba Ramcharan Das took lead in organizing the armed resistance to the British rule, Maulana also joined the revolutionary army. In one battle with the British and their stooges, both of them were captured and hanged together on a tamarind tree at the KuberTeela in Ayodhya.
Baba Ramcharan Das and Maulana Ameer Ali were no exception in Ayodhya. This region also produced two more great friends, belonging to different religions who made life hell for the British sponsored armies. Acchhan Khan and Shambhu Prasad Shukla were two such friends who lead the army of Raja Devibaksh Singh in the district of Faizabad. Both of them were able to defeat the Firangee army in many battles, inflicting heavy losses on them. It was due to the treachery again that they were captured. In order to desist anyone from such companionships between Hindus and Muslims both these friends were publicly inflicted prolonged torture and their heads were cruelly filed off.
It is not difficult to understand that why the same Ayodhya where blood of both Hindus and Muslims flowed for liberating the motherland in 1857 later became a permanent source of friction between the two communities. The joint heritage of Ayodhya needed to be erased and only then the British Indian Empire could survive. It was meticulously done by the British rulers and the heritage of communal unity at Ayodhya was turned upside down.