भारत छोड़ो आंदोलन 1942 से ग़द्दारी की कहानी: आरएसएस और सावरकर की ज़बानी
कांग्रेस का आह्वान
इस
9 अगस्त 2025 को
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
के एक अहम मील
के पत्थर, महान अंग्रेज़ों
‘भारत
छोड़ो आंदोलन’ जिसे 'अगस्त क्रांति' भी
कहा जाता है को
83 साल
पूरे हो जायेंगे। 8 अगस्त 1942 को अखिल
भारतीय कांग्रेस समिति ने
बम्बई में अपनी बैठक
में एक क्रांतिकारी प्रस्ताव
पारित किया जिसमें अंग्रेज़ शासकों से तुरंत
भारत छोड़ने की मांग
की गयी थी। इस
प्रस्ताव पर 9 अगस्त से अमल किया जाना था। अंग्रेज़ शासन से लोहा
लेने के लिए स्वयं
गांधीजी ने ‘करो या मरो’
ब्रह्म वाक्य सुझाया और
सरकार एवं सत्ता से
पूर्ण असहयोग करने का
आह्वान किया। कांग्रेस का
यह मानना था कि
अंग्रेज़ सरकार
को भारत की जनता
को विश्वास में लिए
बिना किसी भी जंग
में भारत को झोंकने
का नैतिक और कानूनी
अधिकार नहीं है। अंग्रेज़ों से भारत तुरंत
छोड़ने का यह प्रस्ताव
कांग्रेस द्वारा एक ऐसे
नाजुक समय में लाया
गया था जब दूसरे
विश्वयुद्ध के चलते जापानी
सेनाएं भारत के पूर्वी
तट तक पहुंच चुकी
थी और कांग्रेस ने
अंग्रेज़ शासकों
द्वारा सुझाई ‘क्रिप्स योजना’ को
खारिज कर दिया था। ‘अंग्रेजो
भारत छोड़ो’ प्रस्ताव के
साथ-साथ
कांग्रेस ने गांधी जी
को इस आंदोलन का
सर्वेसर्वा नियुक्त किया और
देश के आम लोगों
से आह्वान किया कि
वे हिंदू-मुसलमान का
भेद त्याग कर सिर्फ़ हिन्दुस्तानी के तौर पर अंग्रेज़ी
साम्राज्यवाद से
लड़ने के लिए एक
हो जाएं।
'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान देश-भक्त हिन्दुस्तानियों की क़ुर्बानियां
भारत
छोड़ो आंदोलन की घोषणा
के साथ ही पूरे
देश में क्रांति की
एक लहर दौड़ गयी।
अगले कुछ महीनों में
देश के लगभग हर
भाग में अंग्रेज़
सरकार के विरुद्ध
आम लोगों ने जिस
तरह लोहा लिया उससे 1857 के
भारतीय जनता के पहले
मुक्ति संग्राम की यादें
ताजा हो गईं। 1942 के भारत
छोड़ो आंदोलन ने इस
सच्चाई को एक बार
फिर रेखांकित किया कि
भारत की आम जनता
किसी भी कुर्बानी से
पीछे नहीं हटती है।
अंग्रेज़ शासकों
ने दमन करने में
कोई कसर नहीं छोड़ी। 9 अगस्त
की सुबह से ही
पूरा देश एक फौजी
छावनी में बदल दिया
गया। गांधीजी समेत कांग्रेस
के बड़े नेताओं को
तो गिरफ्तार किया ही
गया दूरदराज के इलाकों
में भी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं
को भयानक यातनाएं दी
गईं।
सरकारी
दमन और हिंसा का
ऐसा तांडव देश के
लोगों ने झेला जिसके
उदाहरण कम ही मिलते
हैं। स्वयं सरकारी आंकड़ों
के अनुसार पुलिस और
सेना द्वारा सात सौ
से भी ज्यादा जगह
गोलाबारी की गई जिसमें
ग्यारह सौ से भी
ज्यादा लोग शहीद हो
गए। शहीदों की यह
तादाद सफ़ेद झूट थी।
पुलिस और सेना ने
आतंक मचाने के लिए
बलात्कार और कोड़े लगाने
का बड़े पैमाने पर
प्रयोग किया। भारत में
किसी भी सरकार द्वारा
इन कथकंडों का इस
तरह का संयोजित प्रयोग
1857 के बाद शायद पहली
बार ही किया गया
था।
अंग्रेज़ सरकार
के भयानक बर्बर और
अमानवीय दमन के बावजूद
देश के आम हिंदू
मुसलमानों और अन्य धर्म
के लोगों ने हौसला
नहीं खोया और सरकार
को मुंहतोड़ जवाब दिया।
यह आंदोलन ‘अगस्त क्रांति’ क्यों
कहलाता है इसका अंदाजा
उन सरकारी आंकड़ों को
जानकर लगाया जा सकता
है जो जनता की
इस आंदोलन में कार्यवाहियों
का ब्योरा देते हैं।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार 208 पुलिस थानों, 1275 सरकारी दफ्तरों, 382 रेलवे स्टेशनों और 945 डाकघरों को जनता द्वारा नष्ट कर दिया गया। जनता द्वारा
हिंसा बेकाबू होने के
पीछे मुख्य कारण यह
था कि पूरे देश
में कांग्रेसी नेतृत्व को
जेलों में डाल दिया
गया था और कांग्रेस
संगठन को हर स्तर
पर गैर कानूनी घोषित
कर दिया गया था।
कांग्रेसी नेतृत्व के अभाव
में अराजकता का होना
बहुत ग़ैर-स्वाभाविक नहीं
था। यह सच है
कि नेतृत्व का एक
बहुत छोटा हिस्सा गुप्त
रूप से काम कर
रहा था परंतु आमतौर
पर इस आंदोलन का
स्वरूप स्वतः स्फूर्त बना
रहा।
जिन्ना,
सावरकर और आरएसएस का अँगरेज़ सरकार के साथ आना
यह
जानकर किसी को भी
आश्चर्य नहीं होना चाहिए
कि दमनकारी अंग्रेज़
सरकार का इस
आंदोलन के दरम्यान जिन
तत्वों और संगठनों ने
प्यादों के तौर पर
काम किया वे हिंदू
और इस्लामी राष्ट्र के
झंडे उठाए हुए थे।
ये सच है कि
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
ने भी भारत छोड़ो
आंदोलन से अलग रहने
का निर्णय लिया था।
इसके बारे में सबको
जानकारी है। लेकिन
यह सर्वविदित है कि QIM
से दूर रहने के CPI के आह्वान के बावजूद, बड़ी
संख्या में कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने इसमें भाग लिया। इसके अलावा, CPI ने बाद
में स्वीकार किया कि QIM
का विरोध करना ग़लत था।
लेकिन
आज के देशभक्तों के
नेताओं ने किस तरह
से न केवल इस
आंदोलन से अलग रहने
का फैसला किया था
बल्कि इसको दबाने में
गोरी सरकार की सीधी
सहायता की थी जिस
बारे में बहुत कम
जानकारी है।
जिन्ना की ग़द्दारी
मुस्लिम
लीग के नेता मोहम्मद
अली ने कांग्रेसी घोषणा
की प्रतिक्रिया में
अंग्रेज़ सरकार
को आश्वासन देते हुए
कहा,
"कांग्रेस की असहयोग की धमकी दरअसल श्री गांधी और उनकी हिंदू कांग्रेस सरकार अंग्रेज़ सरकार को ब्लैकमेल करने की है। सरकार को इन गीदड़भभकियों में नहीं आना चाहिए।"
मुस्लिम
लीग और उनके नेता
अंग्रेज़ी सरकार
के बर्बर दमन पर
न केवल पूर्णरूप से खामोश
रहे बल्कि प्रत्यक्ष और
अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेज़ सरकार का सहयोग
करते रहे। मुस्लिम लीग
इससे कुछ भिन्न करे
इसकी उम्मीद भी नहीं
की जा सकती थी
क्योंकि वह सरकार और
कांग्रेस के बीच इस
भिड़ंत के चलते अपना
उल्लू सीध करना चाहती
थी। उसे उम्मीद थी
कि उसकी सेवाओं के
चलते अंग्रेज़ शासक उसे पाकिस्तान
का तोहफा जरूर दिला
देंगे।
भारत छोड़ो आंदोलन के ख़िलाफ़ सावरकर के नेतृत्व में हिन्दू महासभा ने खुले-आम दमनकारी अंग्रेज़ शासकों की मदद की घोषणा की
लेकिन
सबसे शर्मनाक भूमिका हिंदू
महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ की रही जो
भारत माता और हिंदू
राष्ट्रवाद का बखान करते
नहीं थकते थे। भारत
छोड़ो आंदोलन पर अंग्रेज़ी शासकों के दमन का कहर
बरपा था और देशभक्त
लोग सरकारी संस्थाओं को
छोड़कर बाहर आ रहे
थे;
इनमें बड़ी संख्या उन
नौजवान छात्र-छात्राओं की
थी जो कांग्रेस के
आह्वान पर सरकारी शिक्षा
संस्थानों को त्याग कर
यानी अपनी पढ़ाई बीच
में ही छोड़कर बाहर
आ गये थे। लेकिन यह
हिंदू महासभा ही थी
जिसने अंग्रेज़ सरकार के साथ
खुले सहयोग की घोषणा
की। हिंदू महासभा के
सर्वेसर्वा वीर सावरकर ने 1942 में
कानपुर में अपनी इस
नीति का खुलासा करते
हुए कहा,
"सरकारी प्रतिबंध के तहत जैसे ही कांग्रेस एक खुले संगठन के तौर पर राजनीतिक मैदान से हटा दी गयी है तो अब राष्ट्रीय कार्यवाहियों के संचालन के लिए केवल हिंदू महासभा ही मैदान में रह गयी है...हिंदू महासभा के मतानुसार व्यावहारिक राजनीति का मुख्य सिद्धांत अंग्रेज़ सरकार के साथ संवेदनपूर्ण सहयोग की नीति है। जिसके अंतर्गत बिना किसी शर्त के अंग्रेज़ों के साथ सहयोग जिसमें हथियार बंद प्रतिरोध भी शामिल है।"
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग ने साझा सरकारें चलाईं
कांग्रेस
का भारत छोड़ो आंदोलन
दरअसल सरकार और मुस्लिम
लीग के बीच देश
के बंटवारे के लिए
चल रही बातचीत को
भी चेतावनी देना था।
इस उद्देश्य से कांग्रेस
ने सरकार और मुस्लिम
लीग के साथ किसी
भी तरह के सहयोग
का बहिष्कार किया हुआ
था। लेकिन इसी समय
हिंदू महासभा ने मुस्लिम
लीग के साथ सरकारें
चलाने का निर्णय लिया। ‘वीर‘ सावरकर
जो अंग्रेज़ सरकार की खिदमत
में
5-6 माफ़ी-नामे लिखने
के बाद दी गयी
सज़ा का केवल 1/5 हिस्सा भोगने के बाद
हिन्दू महासभा के सर्वोच्च
नेता बन गए थे, ने इस
शर्मनाक रिश्ते के बारे
में सफ़ाई देते हुए 1942 में
कहा,
"व्यावहारिक राजनीति में भी हिंदू महासभा जानती है कि बुद्धिसम्मत समझौतों के जरिए आगे बढ़ना चाहिए। यहां सिंध हिंदू महासभा ने निमंत्रण के बाद मुस्लिम लीग के साथ मिली जुली सरकार चलाने की जिम्मेदारी ली। बंगाल का उदाहरण भी सबको पता है। उद्दंड लीगी जिन्हें कांग्रेस अपनी तमाम आत्मसमर्पणशीलता के बावजूद खुश नहीं रख सकी, हिंदू महासभा के साथ संपर्क में आने के बाद काफी तर्कसंगत समझौतों और सामाजिक व्यवहार के लिए तैयार हो गये। और वहां की मिली-जुली सरकार मिस्टर फजलुल हक को प्रधानमंत्रित्व और महासभा के काबिल व मान्य नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में दोनों समुदाय के फायदे के लिए एक साल तक सफलतापूर्वक चली।"
यहाँ
यह याद रखना ज़रूरी
है कि बंगाल और
सिंध के अलावा NWFP में भी
हिन्दू महासभा और मुस्लिम
लीग की गांठ-बंधन सरकार 1942
में सत्तासीन हुई।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल में मुस्लिम लीग के नेतृत्व वाली सरकार में ग्रह और उप-मुख्य मंत्री रहते हुवे 'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन' को दबाने के लिए गोरे आक़ाओं को उपाए सुझाए
हिन्दू
महासभा के नेता नंबर
दो श्यामा प्रसाद मुखर्जी
ने तो हद ही
करदी। आरएसएस के
प्यारे इस महँ हिन्दू
राष्ट्रवादी ने बंगाल में
मुस्लिम लीग के मंत्री
मंडल में ग्रह मंत्री
और उप-मुख्यमंत्री हुवे अनेक पत्रों
में बंगाल के ज़ालिम
अँगरेज़ गवर्नर को दमन
के वे तरीक़े सुझाये
जिन से बंगाल में
भारत छोड़ो आंदोलन को
पूरे तौर पर दबाया
जा सकता था। मुखर्जी
ने अँगरेज़ शासकों को
भरोसा दिलाया कि कांग्रेस अँगरेज़ शासन
को देश के लिया
अभशाप मानती है लेकिंग
उनकी मुस्लिम लीग और
हिन्दू महासभा की मिलीजुली
सरकार इसे देश के
लिए वरदान मानती है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ग़द्दारी
अगर
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का
रवैया 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन
के प्रति जानना हो
तो इसके दार्शनिक एम.एस. गोलवलकर
के इस शर्मनाक वक्तव्य
को पढ़ना काफी होगा:
"1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आंदोलन था। इस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प लिया।"
इस
तरह स्वयं गोलवलकर, जिन्हें गुरुजी
भी कहा जाता है, से
हमें यह तो पता
चल जाता है कि
संघ ने आंदोलन के
पक्ष में परोक्ष रूप
से किसी भी तरह
की हिस्सेदारी नहीं
की। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ के किसी भी
प्रकाशन या दस्तावेज़
या स्वयं
गुरुजी के किसी दस्तावेज़ से आज तक
यह पता नहीं लग
पाया है कि संघ
ने अप्रत्यक्ष रूप
से भारत छोड़ो आंदोलन
में किस तरह की
हिस्सेदारी की थी। गुरुजी
का यह कहना कि
भारत छोड़ो आंदोलन के
दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
का रोजमर्रा का काम
ज्यों का त्यों चलता
रहा,
बहुत अर्थपूर्ण है। यह
रोजमर्रा का काम क्या
था इसे समझना जरा
भी मुश्किल नहीं है।
यह काम था मुस्लिम
लीग के कंधे से
कंधा मिलाकर हिंदू और
मुसलमान के बीच खाई
को गहराते जाना।
गोलवलकर साझे स्वतंत्रता आंदोलन
से कितनी नफ़रत करते थे उस का अंदाज़ा उनके निम्न लिखित ब्यान से लगाया जा सकता है।
इस शर्मनाक ब्यान की एक ख़ास बात ये है कि बिहार की जनता को ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’
आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने के लिए कितना ज़लील किया गया है:
"निश्चित रूप से संघर्ष के बुरे परिणाम सामने आते हैं।
1920-21 के [असहयोग] आंदोलन के बाद लड़के बेलगाम हो गए। यह नेताओं पर कीचड़ उछालने
का प्रयास नहीं है। लेकिन संघर्ष के बाद ये अवश्यंभावी परिणाम हैं। बात यह है कि
हम इन परिणामों को ठीक से नियंत्रित नहीं कर पाए। 1942 के बाद, लोग अक्सर यह सोचने लगे कि कानून के बारे में सोचने की कोई
ज़रूरत नहीं है। यह आंदोलन, विशेष रूप से बिहार में, व्यापक रूप से फैला। आज हम देखते हैं कि वहाँ रेलगाड़ियाँ रोकी जाती हैं,
जंजीरें खींची जाती हैं और बिना टिकट यात्रा आम बात है... यह सारी
अव्यवस्था और विचित्र स्थिति इसी संघर्ष की उपज है।"
आरएसएस के संस्थापक, डा. के.बी. हेडगेवार (डाक्टरजी) और उनके उत्तराधिकारी, गोलवलकर (गुरुजी) ने अंगे्रज़ शासकों के विरुद्ध किसी भी आंदोलन अथवा कार्यक्रम में कोई भागीदारी नहीं की। भारत छोड़ो आंदोलन ही नहीं अँगरेज़ सरकार के विरुद्ध किसी भी आंदोलन को वे कितना नापसन्द करते थे इसका अंदाज़ा श्री गुरुजी के इन शब्दों से लगाया जा सकता हैः
"नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने के विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है। समय-समय पर देश में उत्पन्न परिस्थिति के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती ही रहती है। सन् 1942 में ऐसी उथल-पुथल हुई थी। उसके पहले सन् 1930-31 में भी आंदोलन हुआ था। उस समय कई लोग डाक्टर जी के पास गये थे। इस ‘शिष्टमंडल’ ने डाक्टर जी से अनुरोध किया कि इस आंदोलन से स्वातंत्रय मिल जायेगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिए। उस समय एक सज्जन ने जब डाक्टर जी से कहा कि वे जेल जाने के लिए तैयार हैं, तो डाक्टर जी ने कहा-‘ज़रूर जाओ। लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलायेगा?’ उस सज्जन ने बताया: ‘दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं तो आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है।’ तो डाक्टर जी ने कहा-‘आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलो।’ घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गये न संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले।"
गोलवलकर द्वारा प्रस्तुत इस ब्यौरे से यह बात स्पष्ट रूप से सामने आ जाती है कि आरएसएस का मक़सद आम लोगों को निराश व निरुत्साहित करना था। ख़ासतौर से उन देशभक्त लोगों को जो अंगे्रज़ी शासन के ख़िलाफ़ कुछ करने की इच्छा लेकर घर से आते थे। सच तो यह है कि गोलवलकर ने स्वयं भी कभी यह दावा नहीं किया कि आरएसएस अंगे्रज़ विरोधी था। अंगे्रज़ शासकों के चले जाने के बहुत बाद गोलवलकर ने 1960 में इंदौर (मध्य प्रदेश) में अपने एक भाषण में कहाः
"कई लोग पहले इस प्रेरणा से काम करते थे कि अंगे्रज़ों को निकाल कर देश को स्वतंत्र करना है। अंगे्रज़ों के औपचारिक रीति से चले जाने के पश्चात् यह प्रेरणा ढीली पड़ गयी। वास्तव में इतनी ही प्रेरणा रखने की आवश्यता नहीं थी। हमें स्मरण होगा कि हमने प्रतिज्ञा में धर्म और संस्कृति की रक्षा कर राष्ट्र की स्वतंत्रता का उल्लेख किया है। उसमें अंगे्रज़ों के जाने न जाने का उल्लेख नहीं है।"
आरएसएस ऐसी गतिविधियों से बचता था जो अंगे्रज़ी सरकार के खि़लाफ़ हों। संघ द्वारा छापी गयी डाक्टर हेडगेवार की जीवनी में भी इस सच्चाई को छुपाया नहीं जा सका है। स्वतंत्रता संग्राम में डाक्टर साहब की भूमिका का वर्णन करते हुए बताया गया हैः "संघ-स्थापना के बाद डा. साहब अपने भाषणों में हिन्दू संगठन के संबंध में ही बोला करते थे। सरकार पर प्रत्यक्ष टीका नहीं के बराबर रहा करती थी।"
अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ संघर्ष में जो
भारतीय शहीद हुए उनके
बारे में गुरुजी क्या
राय रखते थे वह
इस वक्तव्य से बहुत
स्पष्ट है-
‘हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिंदु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करे नहीं माना है क्योंकि अंततः वह अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी।’
शायद
यही कारण है कि
भारत के स्वतंत्रता संग्राम
में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
का एक भी कार्यकर्ता
अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए
शहीद नहीं हुआ। शहीद
होने की बात तो
दूर रही, आरएसएस के
उस समय के नेताओं
जैसे की गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय, बलराज
मधोक, लाल कृष्ण अडवाणी, के आर
मलकानी या अन्य किसी
आरएसएस सदस्य ने किसी
भी तरह इस महान
मुक्ति आंदोलन में हिस्सा
नहीं लिया कियों
कि आरएसएस
अँगरेज़ सरकार और सावरकर
का पिछलग्गू बनी थी।
भारत
छोड़ो आंदोलन के 83 साल गुज़रने के बाद भी
कई महत्वपूर्ण सच्चाईयों
से पर्दा उठना बाक़ी है।
दमनकारी अंग्रेज़ शासक और
उनके मुस्लिम लीगी प्यादों
के बारे में तो
सच्चाईयां जगजाहिर है लेकिन
अगस्त क्रांति के हिंदुतवादी गुनहगार जो अंग्रेज़ी सरकारी द्वारा
चलाए गए दमन चक्र
में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
रूप से शामिल थे
अभी भी कठघरे में
खड़े नहीं किए जा
सके हैं। सबसे शर्मनाक
बात तो यह है
कि वे भारत पर
राज कर रहे हैं।
हिंदू राष्ट्रवादियों की
इस भूमिका को जानना
इसलिए भी ज़रूरी है
ताकि आज उनके द्वारा
एक प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष भारत
के साथ जो खिलवाड़
किया जा रहा है
उसके आने वाले गंभीर
परिणामों को समझा जा
सके।
[आरएसएस और
सावरकर के तमाम उद्धरण
उनके दस्तावेज़ों से
लिए गए हैं।]
शम्सुल
इस्लाम
अगस्त
9, 2025
एस. इस्लाम के अंग्रेज़ी , हिंदी, उर्दू, मराठी, मलयालम, कन्नड़, बंगाली, पंजाबी, गुजराती में लेखन और कुछ वीडियो साक्षात्कार/बहस के लिए देखें :
http://du-in.academia.edu/ShamsulIslam
Facebook: shamsul
Twitter: @shamsforjustice
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Email: notoinjustice@gmail.com
शम्सुल इस्लाम की अँग्रेज़ी, हिन्दी और
उर्दू किताबों के लिये देखें:
https://tinyurl.com/shams-books