भारत
छोड़ो आंदोलन 1942 के ख़िलाफ़ हिंदुत्व टोली-अंग्रेज़ शासक- मुस्लिम लीग हमजोली थे : जानिये
हिन्दुत्व अभिलेखागार की ज़ुबानी
इस
9 अगस्त
2022 को
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
के एक अहम मील
के पत्थर, ऐतिहासिक ‘भारत छोड़ो
आंदोलन’ को 80 साल पूरे हो
जायेंगे। 7 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय
कांग्रेस समिति ने बम्बई
में अपनी बैठक में
एक क्रांतिकारी प्रस्ताव
पारित किया जिसमें अंग्रेज़
शासकों से तुरंत भारत
छोड़ने की मांग की
गयी थी। कांग्रेस का
यह मानना था कि
अंग्रेज़ सरकार को भारत
की जनता को विश्वास
में लिए बिना किसी
भी जंग में भारत
को झोंकने का नैतिक
और क़ानूनी अधिकार नहीं है।
अंग्रेज़ों से भारत तुरंत छोड़ने
का यह प्रस्ताव कांग्रेस
द्वारा एक ऐसे नाज़ुक
समय में लाया गया
था जब दूसरे विश्वयुद्ध
के चलते जापानी सेनाएं
भारत के पूर्वी तट
तक पहुंच चुकी थीं और
कांग्रेस ने अंग्रेज़ शासकों
द्वारा सुझाई ‘क्रिप्स योजना’ को
ख़ारिज कर दिया था। ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ प्रस्ताव के
साथ-साथ
कांग्रेस ने गांधी जी
को इस आंदोलन का
सर्वेसर्वा नियुक्त किया और
देश के आम लोगों
से आह्वान किया कि
वे हिंदू-मुसलमान का
भेद त्याग कर सिर्फ
हिदुस्तानी के तौर पर
अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद
से लड़ने के लिए
एक हो जाएं। अंग्रेज़
शासन से लोहा लेने
के लिए स्वयं गांधीजी
ने
‘करो या मरो’ ब्रह्म वाक्य
सुझाया और सरकार एवं
सत्ता से पूर्ण असहयोग
करने का आह्वान किया।
'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान देश-भक्त हिन्दुस्तानियों की क़ुर्बानियां
भारत
छोड़ो आंदोलन की घोषणा
के साथ ही पूरे
देश में क्रांति की
एक लहर दौड़ गयी।
अगले कुछ महीनों में
देश के लगभग हर
भाग में अंग्रेज़ सरकार
के विरुद्ध आम लोगों
ने जिस तरह लोहा
लिया उससे 1857 के
भारतीय जनता के पहले
मुक्ति संग्राम की यादें
ताजा हो गईं। 1942 के
भारत छोड़ो आंदोलन ने
इस सच्चाई को एक
बार फिर रेखांकित किया
कि भारत की आम
जनता किसी भी कुर्बानी
से पीछे नहीं हटती
है। अंग्रेज़ शासकों ने
दमन करने में कोई
कसर नहीं छोड़ी। 9 अगस्त की
सुबह से ही पूरा
देश एक फौजी छावनी
में बदल दिया गया।
गांधीजी समेत कांग्रेस के
बड़े नेताओं को तो
गिरफ्तार किया ही गया
दूरदराज के इलाकों में
भी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं
को भयानक यातनाएं दी
गईं।
सरकारी
दमन और हिंसा का
ऐसा तांडव देश के
लोगों ने झेला जिसके
उदाहरण कम ही मिलते
हैं। स्वयं सरकारी आंकड़ों
के अनुसार पुलिस और
सेना द्वारा सात सौ
से भी ज़्यादा
जगह गोलाबारी
की गई जिसमें ग्यारह
सौ से भी अधिक लोग
शहीद हो गए। पुलिस
और सेना ने आतंक
मचाने के लिए बलात्कार
और कोड़े लगाने का
बड़े पैमाने पर प्रयोग
किया। भारत में किसी
भी सरकार द्वारा इन
कथकंडों का इस तरह
का संयोजित प्रयोग 1857 के
बाद शायद पहली बार
ही किया गया था। 1942
के भारत छोड़ो आंदोलन
को ‘अगस्त क्रांति’ भी कहा
जाता है। अंग्रेज़ सरकार
के भयानक बर्बर और
अमानवीय दमन के बावजूद
देश के आम हिंदू
मुसलमानों और अन्य धर्म
के लोगों ने हौसला
नहीं खोया और सरकार
को मुंहतोड़ जवाब दिया।
यह आंदोलन ‘अगस्त क्रांति’
क्यों कहलाता है इसका
अंदाजा उन सरकारी आंकड़ों
को जानकर लगाया जा
सकता है जो जनता
की इस आंदोलन में
कार्यवाहियों का ब्योरा देते
हैं। सरकारी आंकड़ों के
अनुसार 208 पुलिस थानों, 1275 सरकारी
दफ्तरों, 382 रेलवे स्टेशनों और 945 डाकघरों
को जनता द्वारा नष्ट
कर दिया गया। जनता
द्वारा हिंसा बेकाबू होने
के पीछे मुख्य कारण
यह था कि पूरे
देश में कांग्रेसी नेतृत्व
को जेलों में डाल
दिया गया था और
कांग्रेस संगठन को हर
स्तर पर गैर क़ानूनी घोषित कर दिया
गया था। कांग्रेसी नेतृत्व
के अभाव में अराजकता
का होना बहुत गैर
स्वाभाविक नहीं था। यह
सच है कि नेतृत्व
का एक बहुत छोटा
हिस्सा गुप्त रूप से
काम कर रहा था
परंतु आमतौर पर इस
आंदोलन का स्वरूप स्वतः
स्फूर्त बना रहा।
यह
जानकर किसी को भी
आश्चर्य नहीं होना चाहिए
कि दमनकारी अंग्रेज़ सरकार
का इस आंदोलन के
दरम्यान जिन तत्वों और
संगठनों ने प्यादों के
तौर पर काम किया
वे हिंदू और इस्लामी
राष्ट्र के झंडे उठाए
हुए थे। ये सच
है कि भारतीय कम्युनिस्ट
पार्टी ने भी भारत
छोड़ो आंदोलन से अलग
रहने का निर्णय लिया
था। इसके बारे में
सबको जानकारी है। लेकिन
आज के देशभक्तों के
नेताओं ने किस तरह
से न केवल इस
आंदोलन से अलग रहने
का फ़ैसला किया था
बल्कि इसको दबाने में
गोरी सरकार की सीधी
सहायता की थी जिस
बारे में बहुत कम
जानकारी है।
मुस्लिम
लीग के नेता मोहम्मद
अली जिन्नाह ने कांग्रेसी
घोषणा की प्रतिक्रिया में
अंग्रेज़ सरकार को आश्वासन
देते हुए कहा,
"कांग्रेस की असहयोग
की धमकी दरअसल
श्री गांधी और
उनकी हिंदू कांग्रेस सरकार अंग्रेज़ सरकार को
ब्लैकमेल करने की
है। सरकार को
इन गीदड़भभकियों में
नहीं आना चाहिए।"
मुस्लिम
लीग और उनके नेता
अंग्रेज़ी सरकार
के बर्बर दमन पर
न केवल पूर्णरूप से
ख़मोश रहे बल्कि प्रत्यक्ष और
अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेज़
सरकार का सहयोग करते
रहे। मुस्लिम लीग इससे
कुछ भिन्न करे इसकी
उम्मीद भी नहीं की
जा सकती थी क्योंकि
वह सरकार और कांग्रेस
के बीच इस भिड़ंत
के चलते अपना उल्लू
सीध करना चाहती थी।
उसे उम्मीद थी कि
उसकी सेवाओं के चलते
अंग्रेज़ शासक उसे पाकिस्तान
का तोहफ़ा ज़रूर दिला
देंगे।
भारत छोड़ो आंदोलन के ख़िलाफ़ आरएसएस के चाहीते सावरकर के नेतृत्व में हिन्दू महासभा ने खुले-आम दमनकारी अंग्रेज़ शासकों की मदद की घोषणा की
लेकिन
सबसे शर्मनाक भूमिका हिंदू
महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ की रही जो
भारत माता और हिंदू
राष्ट्रवाद का बखान करते
नहीं थकते थे। भारत
छोड़ो आंदोलन पर अंग्रेज़ी शासकों के दमन का
क़हर बरपा था और
देशभक्त लोग सरकारी संस्थाओं
को छोड़कर बाहर आ
रहे थे; इनमें बड़ी
संख्या उन नौजवान छात्र-छात्राओं
की थी जो कांग्रेस
के आह्वान पर सरकारी
शिक्षा संस्थानों को
त्याग कर यानी अपनी
पढ़ाई बीच में ही
छोड़कर बाहर आ गये
थे। लेकिन यह हिंदू
महासभा ही थी जिसने
अंग्रेज़ सरकार के साथ
खुले सहयोग की घोषणा
की। हिंदू महासभा के
सर्वेसर्वा वीर सावरकर ने 1942 में
कानपुर में अपनी इस
नीति का
ख़ुलासा
करते हुए कहा,
"सरकारी प्रतिबंध के तहत जैसे ही कांग्रेस एक खुले संगठन के तौर पर राजनीतिक मैदान से हटा दी गयी है तो अब राष्ट्रीय कार्यवाहियों के संचालन के लिए केवल हिंदू महासभा ही मैदान में रह गयी है...हिंदू महासभा के मतानुसार व्यावहारिक राजनीति का मुख्य सिद्धांत अंग्रेज़ सरकार के साथ संवेदनपूर्ण सहयोग की नीति है। जिसके अंतर्गत बिना किसी शर्त के अंग्रेज़ों के साथ सहयोग जिसमें हथियार बंद प्रतिरोध भी शामिल है।"
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग ने मिलकर सरकारें चलाईं
कांग्रेस
का भारत छोड़ो आंदोलन
दरअसल सरकार और मुस्लिम
लीग के बीच देश
के बंटवारे के लिए
चल रही बातचीत को
भी चेतावनी देना था।
इस उद्देश्य से
कांग्रेस ने सरकार और
मुस्लिम लीग के साथ
किसी भी तरह के
सहयोग का बहिष्कार किया
हुआ था। लेकिन इसी
समय हिंदू महासभा ने
मुस्लिम लीग के साथ
सरकारें चलाने का निर्णय
लिया। ‘वीर‘ सावरकर ने जो अंग्रेज़
सरकार की
ख़िदमत
में 6-7 माफ़ी-नामे लिखने
के बाद दी गयी
सज़ा का केवल एक तिहाई
हिस्सा भोगने के बाद
हिन्दू महासभा के सर्वोच्च
नेता थे, इस शर्मनाक
रिश्ते के बारे में
सफाई देते हुए 1942 में
कहा,
"व्यावहारिक राजनीति में भी हिंदू महासभा जानती है कि बुद्धिसम्मत समझौतों के ज़रिए आगे बढ़ना चाहिए। यहां सिंध हिंदू महासभा ने निमंत्रण के बाद मुस्लिम लीग के साथ मिली जुली सरकार चलाने की ज़िम्मेदारी ली। बंगाल का उदाहरण भी सबको पता है। उद्दंड लीगी जिन्हें कांग्रेस अपनी तमाम आत्मसमर्पणशीलता के बावजूद ख़ुश नहीं रख सकी, हिंदू महासभा के साथ संपर्क में आने के बाद काफ़ी तर्कसंगत समझौतों और सामाजिक व्यवहार के लिए तैयार हो गये। और वहां की मिली-जुली सरकार मिस्टर फ़ज़लुल हक़ को प्रधानमंत्रित्व
[अंग्रेज़ शासन में मुख्यमंत्री को प्रधान-मंत्री कहा जाता था] और महासभा के क़ाबिल व मान्य नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी [जो उप-प्रधान मंत्री थे] के नेतृत्व में दोनों समुदाय के फ़ायदे के लिए एक साल तक सफलतापूर्वक चली।"
यहाँ
यह याद रखना ज़रूरी
है कि बंगाल और
सिंध के अलावा NWFP में
भी हिन्दू महासभा और
मुस्लिम लीग की गांठ-बंधन
सरकार 1942 में सत्तासीन हुई।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल में मुस्लिम लीग के नेतृत्व वाली सरकार में
गृह मंत्री और उप-मुख्य मंत्री रहते हुवे 'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन' को दबाने के लिए गोरे आक़ाओं को उपाए सुझाए
हिन्दू
महासभा के नेता नंबर
दो श्यामा प्रसाद मुखर्जी
ने तो हद ही
करदी। आरएसएस के
प्यारे इस महान
हिन्दू
राष्ट्रवादी ने बंगाल में
मुस्लिम लीग के मंत्री
मंडल में गृह
मंत्री और उप-मुख्यमंत्री रहते हुवे
अनेक पत्रों में बंगाल
के ज़ालिम अँगरेज़ गवर्नर
को दमन के वे
तरीक़े सुझाये जिन से
बंगाल में ‘भारत छोड़ो
आंदोलन’ को पूरे तौर
पर दबाया जा सकता
था। मुखर्जी ने अँगरेज़
शासकों को भरोसा दिलाया
कि कांग्रेस अँगरेज़
शासन को देश के
लिया अभशाप मानती है
लेकिन उनकी मुस्लिम लीग और
हिन्दू महासभा की मिलीजुली
सरकार इसे देश के
लिए वरदान मानती है।
अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का रवैया 1942 के
भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति जानना हो तो इसके सब से क़द्दावर दार्शनिक एम.एस. गोलवलकर के इस शर्मनाक वक्तव्य को पढ़ना काफ़ी होगा –
“सन् 1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आंदोलन था। उस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया। परन्तु संघ के स्वयं सेवकों के मन में उथल-पुथल चल ही रही थी। संघ यह अकर्मण्य लोगों की संस्था है, इनकी बातों में कुछ अर्थ नहीं ऐसा केवल बाहर के लोगों ने ही नहीं, कई अपने स्वयंसेवकों ने भी कहा। वे बड़े रुष्ट भी हुए।”
इस
तरह स्वयं गोलवलकर, जिन्हें गुरुजी
भी कहा जाता है, से
हमें यह तो पता
चल जाता है कि
संघ ने आंदोलन के
पक्ष में परोक्ष रूप
से किसी भी तरह
की हिस्सेदारी नहीं
की। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ के किसी भी
प्रकाशन या दस्तावेज़
या स्वयं
गुरुजी के किसी भाषण, लेख या कर्म से आज तक यह
पता नहीं लग पाया
है कि संघ ने
अप्रत्यक्ष रूप से ‘भारत
छोड़ो आंदोलन’ में किस
तरह की हिस्सेदारी की
थी। गुरुजी का यह
कहना कि भारत छोड़ो
आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ का रोज़मर्रा
का काम ज्यों का
त्यों चलता रहा, बहुत अर्थपूर्ण
है। यह रोज़मर्रा का
काम क्या था इसे
समझना ज़रा भी मुश्किल
नहीं है। यह काम
था मुस्लिम लीग के
कंधे से कंधा मिलाकर
हिंदू और मुसलमान के
बीच खाई को गहराते
जाना।
अंग्रेज़ी राज
के खिलाफ संघर्ष में
जो भारतीय शहीद हुए
उनके बारे में गुरुजी
क्या राय रखते थे
वह इस वक्तव्य से
बहुत स्पष्ट हो
जायेगा-
‘‘हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिंदु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करे नहीं माना है क्योंकि अंततः वह अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी।’’
शायद
यही कारण है कि
भारत के स्वतंत्रता संग्राम
में राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ का एक भी
कार्यकर्ता अंग्रेज़ों के
खिलाफ संघर्ष करते हुए
शहीद नहीं हुआ। शहीद
होने की बात तो
दूर रही, आरएसएस के
उस समय के नेताओं
जैसे की गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय,
बलराज मधोक। लाल कृष्ण
अडवाणी, के आर मलकानी
या अन्य किसी आरएसएस
सदस्य ने किसी भी
तरह इस महान मुक्ति आंदोलन
में हिस्सा नहीं लिया
कियोंकी आरएसएस सावरकर का
पिछलग्गू बानी थी।
भारत
छोड़ो आंदोलन के 75 साल गुज़रने
के बाद भी कई
महत्वपूर्ण सच्चाईयों से
पर्दा उठना बाक़ी
है। दमनकारी
अंग्रेज़ शासक और उनके
मुस्लिम लीगी प्यादों के
बारे में तो सच्चाईयां
जगज़ाहिर है लेकिन अगस्त
क्रांति के वे गुनहगार
जो अंग्रेज़ी सरकार द्वारा चलाए
गए दमन चक्र में
प्रत्यक्ष रूप से शामिल
थे अभी भी कठघरे
में खड़े नहीं किए
जा सके हैं। सबसे
शर्मनाक बात तो यह
है कि वे भारत
पर राज कर रहे
हैं। हिंदू राष्ट्रवादियों की
इस भूमिका को जानना
इसलिए भी ज़रूरी है
ताकि आज उनके द्वारा
एक प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष भारत
के साथ जो खिलवाड़
किया जा रहा है
उसके आने वाले गंभीर
परिणामों को समझा जा
सके।
शम्सुल
इस्लाम
शम्सुल इस्लाम के अंग्रेज़ी, हिंदी, उर्दू तथा मराठी, मलयालम, कन्नड़, बंगाली, पंजाबी, गुजराती में अनूदित लेखन और कुछ वीडियो साक्षात्कार/बहस के लिए देखें
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