भारत में आपातकाल घोषणा की 45वीं वर्षगांठ:
आपातकाल में आरएसएस दुवारा इंदिरा गाँधी की बंदगी
आपातकाल में आरएसएस दुवारा इंदिरा गाँधी की बंदगी
(आपातकाल
के दौरान आरएसएस के मुखिया दुवारा इंदिरा गाँधी को लिखे गए माफ़ीनामों की मूल प्रतियों
के साथ)
विश्व
में झूठ बोलने और इतिहास को तोड़-मोड़ने का प्रशिक्षण देने वाले सब से बड़े गुरुकुल, आरएसएस
से स्नातक हुए, राम माधव (जो अब आरएसएस-भाजपा सरकार के प्रमुख नीति-निर्धारकों में
से एक हैं) ने भारत में 1975 में आपातकाल राज की 45वीं बरसी पर यह दवा किया है की देश
में प्रजातंत्र बचा हुवा है कियोंकी "सरकार चला रहे नेता [आरएसएस-भाजपा से जुड़े]
उनमें से हैं जिन्हों ने [आपातकाल के ख़िलाफ़] आज़ादी की लड़ाई लड़ी। वे उदारवादी प्रजातान्त्रिक
मूल्यों के प्रति समर्पित हैं, किसी मजबूरी की वजह से नहीं बल्कि एक धर्मसिद्धान्त
के तौर पर।" ये दोनों दावे सफ़ेद झूट हैं क्योंकि आरएसएस-भाजपा राज में एक तरह
से अघोषित आपातकाल लागू है जिसका शिकार, आम लोग, राजनैतिक/सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार,
मज़दूर/छात्र/महिला/शिक्षक/किसान संगठन, दलित, अल्प-सांखियक समुदाय, यहाँ तक कि अदालतें
भी हो रही हैं। विश्व में प्रजातंत्र को मापने के जो माप-दंड हैं उन के अनुसार मोदी
राज में भारत की गिनती तानाशाही वाले देशों के साथ की जा रही है।
यह बिला वजह नहीं है। आरएसएस
से जुड़े मौजूदा भारत के शासकों की रगों में तानाशहों वाला खून दौड़ता है और इस का श्रेय
आरएसएस के सब से अहम दार्शनिक गोलवलकर को जाता है। यह वही गुरु गोलवलकर हैं जिन्हें
'नफ़रत का गुरु' भी कहा जाता है। यही वह गुरु भी हैं जिन्हें मोदी जी अपने आप को एक
कुशल राजनैतिक नेता में ढलने का श्रेय भी देते हैं। गोलवालकर ने 1940 में ही आरएसएस
के 1350 उच्चस्तरीय कार्यकर्ताओं के सामने भाषण करते हुए घोषणा कर दी थी कीः
"एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में,
एक ही विचार से प्रेरित होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस
विशाल भूमि के कोने-कोने में प्रज्जवलित कर रहा है।"
याद
रहे कि एक झण्डा, एक नेता और एक विचारधारा का यह नारा सीधे यूरोप की नाजी एवं फ़ासिस्ट
पार्टियों, जिनके नेता क्रमशः हिटलर और मुसोलिनी जैसे तानाशाह थे, के कार्यक्रमों से
लिया गया था।
भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25-26 जून, 1975 को देश में आंतरिक आपातकाल
घोषित किया था। यह 19 महीने तक
लागू रहा। इस दौर को भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति में काले दिनों के रूप में याद किया
जाता है। इंदिरा गांधी का दावा था कि जयप्रकाश नारायण ने सशस्त्र बलों से कहा था कि
कांग्रेस शासकों के 'अवैध' आदेशों को नहीं मानें। इसने देश में अराजकता की स्थिति
उत्पन्न कर दी और भारतीय गणतंत्र का अस्तित्व खतरे में पड़ गया था। इसलिए संविधान के
अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल घोषित
करने के अतिरिक्त कोर्इ विकल्प नहीं रह गया था।
आरएसएस का दावा है कि उसने इंदिरा गंधी द्वारा
घोषित आपातकाल का बहादुरी के साथ मुकाबला किया
और भारी दमन का सामना किया। बहरहाल, उस दौर के अनेक कथानक हैं, जो आरएसएस के इन दावों
को झुठलाते हैं। यहां हम ऐसे दो दृष्टांतों का उल्लेख कर रहे हैं। इनमें से एक वरिष्ठ
भारतीय पत्रकार और विचारक प्रभाश जोशी
हैं और दूसरे, पूर्व खुफिया ब्यूरो (आईबी) प्रमुख
टीवी राजेश्वर हैं, जिनके द्वारा बतार्इ घटनाओं का जिक्र हम यहां करेंगे। आपातकाल जिस
समय घोषित किया गया था राजेश्वर आईबी के उप प्रमुख थे। राजेश्वर ने आपातकाल काल (जिसे
राज्य का नंगा आतंकवाद कहना सही होगा) के उस दौर के बारे में बताया है किस तरह से आरएसएस
ने इंदिरा गांधी के दमनकारी
शासन के सम्मुख घुटने टेक दिए थे और इंदिरा गांधी एवं उनके पुत्र संजय गांधी को 20-सूत्रीय कार्यक्रम पूरी वफ़ादारी के
साथ लागू करने का आश्वासन था। आएसएस के अनेक 'स्वयंसेवक' 20-सूत्रीय कार्यक्रम को लागू करने के
रूप में माफिनामें पर दस्तख़त कर जेल से छूटे थे।
इन तमाम गद्दारियों के बावजूद, ये आरएसएस वाले
आपातकाल के दौरान उत्पीड़न के एवज में आज मासिक पेंशन प्राप्त कर रहे हैं। भाजपा शासित
राज्यों, जैसे कि- गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में उन लोगों को 10,000 रुपये मासिक पेंशन देने का फैसला लिया गया है जिन्हें आपातकालीन अवधि के दौरान एक महीने से कम समय
तक जेल में रखा गया था। और आरएसएस से जुड़े जो लोग इस दौरान 2 माह से कम अवधि के जेल
गए थे उन्हें बतौर 20000 रुपये पेंशन
देना तय किया गया है। इस नियम में उन 'स्वयंसेवकों' का ख्याल रखा गया है, जिन्होंने
केवल एक या दो महीने जेल में रहने के बाद घबरा कर दया याचिका पेश करते हुए माफीनामे
पर हस्ताक्षर कर दिए थे। इस पेंशन के लिए ऐसी कोर्इ शर्त नहीं है कि लाभार्थी आपातकाल
के पूरे दौर में जेल में रहा हो।
खास बात यह है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ़ देश की आज़ादी के आंदोलन में जेल में रहने वालों को मिलने वाली स्वतंत्रता सेनानी पेंशन पाने वालों में से एक भी आरएसएस का 'स्वयंसेवक' नहीं है। यहां एक तथ्य गौरतलब है कि उन सैकड़ों कम्युनिस्ट युवकों का किसी को ख्याल तक नहीं है जिन्हें आपातकाल के इस दौर में नक्सलपंथी कह कर फर्जी मुठभेड़ों मे मार दिया गया था। यहां एक और रोचक तथ्य है कि आरएसएस के हिंदुत्व सह-यात्री शिवसेना ने खुले आम आपातकाल का समर्थन किया था।
खास बात यह है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ़ देश की आज़ादी के आंदोलन में जेल में रहने वालों को मिलने वाली स्वतंत्रता सेनानी पेंशन पाने वालों में से एक भी आरएसएस का 'स्वयंसेवक' नहीं है। यहां एक तथ्य गौरतलब है कि उन सैकड़ों कम्युनिस्ट युवकों का किसी को ख्याल तक नहीं है जिन्हें आपातकाल के इस दौर में नक्सलपंथी कह कर फर्जी मुठभेड़ों मे मार दिया गया था। यहां एक और रोचक तथ्य है कि आरएसएस के हिंदुत्व सह-यात्री शिवसेना ने खुले आम आपातकाल का समर्थन किया था।
प्रभाश जोशी का लेख अंग्रेजी साप्ताहिक 'तहलका'
में आपातकाल की 25 वीं वर्षगांठ
पर छपा थाi । उनके अनुसार
आरएसएस के आपातकाल विरोधी संघर्ष में सहभागिता को लेकर उस दौर में भी
"मन ही मन हमेशा एक किस्म का संदेह, उसे के साथ कुछ दूरी, विश्वास के कमी" का भाव था। उन्होंने आगे बताया,
"उस समय के आरएसएस प्रमुख बालासाहेब देवरस ने
संजय गांधी के कुख्यात 20-सूत्रीय
कार्यक्रम
को लागू करने में सहयोग करने हेतु इंदिरा गांधी
को एक पत्र लिखा था। यह है आरएसएस का असली चरित्र...आप उनके काम करने के अंदाज़ और तौर तरीकों को देख सकते
हैं। यहां तक कि आपातकाल के दौरान, आरएसएस और
जनसंघ के अनेक लोग माफीनामा देकर जेलों से छूटे थे। माफी मांगने में वे सबसे आगे थे।
उनके नेता ही जेलों में रह गए थे: अटल बिहारी
वाजपेयी, एल के आडवाणी, यहां तक कि अरुण जेटली। आरएसएस ने आपातकाल लागू होने
के बाद उसके खिलाफ किसी प्रकार का कोर्इ संघर्ष नहीं किया। तब, भाजपा आपात काल के खिलाफ
संघर्ष की याद को अपनाने की कोशिश क्यों कर रही है?"
प्रभाश जोशी के निष्कर्ष के अनुसार, "वे कभी संघर्षशील
शक्ति न तो रहे हैं न ही वे कभी संघर्ष के प्रति उत्सुक रहनों वालों में से हैं। वे
बुनियादी तौर पर समझौता परस्त रहे हैं। वे कभी भी सही मायने में सरकार के ख़िलाफ़ संघर्ष
करने वालों में नहीं रहे है।"
टी.वी. राजेश्वर सेवानिवृत्ति के बाद उत्तर प्रदेश और सिक्किम के राज्यपाल रहे हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक 'इंडिया: द क्रूशियल यिर्ज़' (हार्पर कॉलिन्स) में, इस तथ्य की पुष्टि की है कि "वह (आरएसएस) न केवल इसका (आपातकाल) का समर्थन कर रहा था, वह श्रीमती गांधी के अलावा संजय गांधी के साथ संपर्क स्थापित करना चाहता था।"ii राजेश्वर ने मशहूर पत्रकार, करन थापर के साथ एक मुलाकात में खुलासा किया कि देवरस ने " गोपनीय तरीके से प्रधानमंत्री आवास के साथ संपर्क बनाया और देश में अनुशासन लागू करने के लिए सरकार ने जो सख़्त कदम उठाए थे उनमें से कर्इ का मजबूती के साथ समर्थन किया था। देवरस श्रीमती गांधी और संजय से मिलने के इच्छुक थे। लेकिन श्रीमती गांधी ने इनकार कर दिया।"
टी.वी. राजेश्वर सेवानिवृत्ति के बाद उत्तर प्रदेश और सिक्किम के राज्यपाल रहे हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक 'इंडिया: द क्रूशियल यिर्ज़' (हार्पर कॉलिन्स) में, इस तथ्य की पुष्टि की है कि "वह (आरएसएस) न केवल इसका (आपातकाल) का समर्थन कर रहा था, वह श्रीमती गांधी के अलावा संजय गांधी के साथ संपर्क स्थापित करना चाहता था।"ii राजेश्वर ने मशहूर पत्रकार, करन थापर के साथ एक मुलाकात में खुलासा किया कि देवरस ने " गोपनीय तरीके से प्रधानमंत्री आवास के साथ संपर्क बनाया और देश में अनुशासन लागू करने के लिए सरकार ने जो सख़्त कदम उठाए थे उनमें से कर्इ का मजबूती के साथ समर्थन किया था। देवरस श्रीमती गांधी और संजय से मिलने के इच्छुक थे। लेकिन श्रीमती गांधी ने इनकार कर दिया।"
राजेश्वर की पुस्तक
के अनुसार, "आरएसएस, एक दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादी संगठन, आपातकाल के समय इसे
प्रतिबंधित कर दिया गया था। लेकिन इसके प्रमुख बाला साहेब देवरस...ने लागू आदेशों और देश में अनुशासन को लागू करने के लिए सरकार
के अनेक आदेशों का मजबूती के साथ समर्थन किया था। संजय गांधी के परिवार नियोजन अभियान
और इसे विशेष रूप से मुसलमानों के बीच लागू करने के प्रयासों का देवरस का भरपूर समर्थन
हासिल था।"
राजेश्वर
ने यह तथ्य भी साझा किया है कि आपातकाल के बाद भी "संघ (आरएसएस) ने आपातकाल के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस को अपना
समर्थन विशेष रूप से व्यक्त किया था।" यह खास तौर
पर गौरतलब है कि सुब्रमण्यम स्वामी जो अब आरएसएस के प्यादे हैं के अनुसार भी आपातकाल
की अवधि में, आरएसएस के
अधिकांश वरिष्ठ नेताओं ने आपातकाल के खिलाफ संघर्ष के साथ गद्दारी की थी।
आरएसएस अभिलेखागार में समकालीन दस्तावेज प्रभाष जोशी और राजेश्वर
के कथन की सत्यता प्रमाणित करते हैं। आरएसएस के तीसरे सरसंघचालक, मधुकर दत्तात्रय
देवरस ने आपातकाल लगने के दो महीने के भीतर इंदिरा गांधी को पहला पत्र लिखा था। यह
वह समय था जब राजकीय आतंक चरम पर था। देवरस ने अपने पत्र दिनांक 22 अगस्त, 1975
की शुरुआत ही इंदिरा की प्रशंसा के साथ इस तरह की:
"मैंने 15 अगस्त, 1975 को रेडियो पर लाल किले से देश के नाम आपके संबोधन
को जेल (यारवदा जेल) में सुना था। आपका यह संबोधन संतुलित और समय के अनुकूल था। इसलिए
मैंने आपको यह पत्र लिखने का फैसला किया।"
इंदिरा गांधी ने देवरस के इस पत्र को जवाब नहीं दिया।
देवरस ने 10 नवंबर, 1975 को इंदिरा को एक और पत्र लिखा। इस पत्र की शुरुआत
उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ दिए गए निर्णय
के लिए बधार्इ के साथ की। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनको चुनाव में भ्रष्ट साधनों
के उपयोग का दोषी मानते हुए पद के अयोग्य करार दिया था। देवरस ने इस पत्र में लिखा,
"सुप्रीम कोर्ट के सभी पांच न्यायाधीशों ने आपके
चुनाव को संवैधानिक घोषित कर दिया
है, इसके लिए हार्दिक बधाई।"
गौरतलब है कि विपक्ष का दृढ़ मत था कि यह निर्णय कांग्रेस के
द्वारा 'मैनेज्ड' था। देवरस
ने अपने इस पत्र में यहां तक कह दिया कि "आरएसएस का
नाम जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के साथ अन्यथा जोड़ दिया गया है। सरकार ने अकारण ही
गुजरात आंदोलन और बिहार आंदोलन के साथ भी आरएसएस को जोड़ दिया है...संघ का इन आंदोलनों से कोई संबंध नहीं है ..."
इंदिरा गांधी ने क्योंकि देवरस के इस पत्र का भी जवाब
नहीं दिया, आरएसएस प्रमुख
ने विनोबा भावे के साथ संपर्क साधा, जिन्होंने आपातकाल का आध्यात्मिक समर्थन और इंदिरा
गांधी का पक्ष लिया था। देवरस ने अपने पत्र दिनांक 12 जनवरी, 1976
में, आचार्य विनोबा भावे से गिड़गिड़ाते हुए आग्रह किया कि आरएसएस
पर प्रतिबंध हटाए जाने के लिए वे इंदिरा गांधी को सुझाव दें।ix आचार्य विनोबा
भावे ने भी पत्र का जवाब नहीं दिया, हताश देवरस
ने तो उन्हों ने एक और पत्र लिखा जिस पर तिथि भी अंकित नहीं है। उन्होंने लिखा:
"अखबारों में छपी सूचनाओं के अनुसार
प्रधान
मंत्री (इंदिरा गांधी) 24 जनवरी को वर्धा पवनार आश्रम में आपसे मिलने आ रही
हैं। उस समय देश की वर्तमान परिस्थिति के बारे में उनकी आपके साथ चर्चा होगी। मेरी
आपसे याचना है कि प्रधानमंत्री के मन में आरएसएस के बारे में जो गलत धारणा घर कर गर्इ
है आप कृपया उसे हटाने की कोशिश करें ताकि आरएसएस पर लगा प्रतिबंध हटाया जा सके और
जेलों में बंद आरएसएस के लोग रिहा होकर प्रधानमंत्री के नेतृत्व में प्रगति और विकास
में सभी क्षेत्रों में अपना योगदान कर सकें।"
आरएसएस को आपातकाल के मुजरिमों को गले लगाने में भी
कोई एतराज़ नहीं रहा है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति
प्रणब मुखर्जी को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने 2018 में स्वयंसेवकों के दीक्षा समारोह
के मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया था।
प्रणब मुखर्जी की गिनती आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों के लिए जिम्मदार सर्वोच्च
कांग्रेसी नेताओं में होती है और शाह आयोग ने भी आपातकाल की ज़्यादतियों के लिए उन्हें प्रमुख रूप से ज़िम्मेदार माना था। आरएसएस के प्रधान कार्यालय पर प्रणब का
सत्कार करते हुवे ज़ाहिर है आरएसएस को किसी भी तरह की लज्जा नहीं आयी। आरएसएस की त्रासदी
यह है कि भारत में एक लोकतांत्रिक व्यवस्था अभी तक क़ायम है। यही उसकी विवशता है। हालांकि
वह नग्न तानाशाही का कट्टर हिमायती है परंतु उसे अपनी इस असलियत को छुपाने के लिए मुखौटे
लगाने पड़ते हैं।
शम्सुल इस्लाम
25 जून, 2020
25 जून, 2020
शम्सुल इस्लाम
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