Saturday, May 9, 2020

1857 स्वतंत्रता संग्राम की 163वीं सालगिरह पर:


1857 स्वतंत्रता संग्राम की 163वीं सालगिरह पर:
साझी विरासत जिसका हिन्दुत्वादी टोली मालियामेट करने में लगी है
10 मई 1857, दिन रविवार को छिड़े भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में देश के हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों ने मिलकर विश्व की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताक़त को चुनौती दी थी।[i] इस अभूतपर्व एकता ने अंग्रेज़ शासकों को इस बात का अच्छी तरह अहसास करा दिया था कि अगर भारत पर राज करना है तो हर हालत में देश के सब से बड़े दो धार्मिक समुदायों; हिंदू-मुसलमान के बीच सांप्रदायिक बँटवारे को अमल में लाना होगा और देश के इन दो बड़े धार्मिक संप्रदायों के बीच दूरी पैदा कराने के लिए भरसक प्रयास करने होंगे। यही कारण था कि संग्राम की समाप्ति के बाद इंग्लैंड में बैठे भारतीय मामलों के मंत्री (लॉर्ड  वुड) ने भारत में अंग्रेज़ी राज के मुखिया (लॉर्ड एल्गिन) को यह निर्देश दिया कि अगर भारत पर राज करना है तो हिंदुओं और मुसलमानों को लड़वाना होगा और ‘‘हम लोगों को वैसा सब कुछ करना चाहिए, ताकि उन सब में एक साझी भावना का विकास ना हो।’’[ii]
इस दर्शन को अमल में लाने के लिए गोरे शासकों और उनके भारतीय चाटुकारों ने यह सिद्धांत पेश किया कि हिंदु और मुसलमान हमेशा से ही दो अलग क़ौमें रही हैं। सच तो यह है कि सांप्रदायिक राजनीति को हवा देना और भारतीय समाज को धर्मों के आधार पर बाँटना अंग्रेज़ो की एक मजबूरी बन गया था। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में, जिसको अंग्रेज़ शासको ने ‘फ़ौजी बग़ावत’ का नाम दिया था, हिंदुओं-मुसलमानों-सिखों के व्यापक हिस्से एकजुट होकर ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के खि़लाफ इतनी बहादुरी से लड़े और कुर्बानियां दीं कि फ़िरंगी शासन विनाश के कगार पर पहुंच गया। हालाकि अंग्रेज़ जीत गए लेकिन यह गद्दारों और जासूसो द्वारा रचे गए षड़यंत्रों की वजह से ही संभव हो सका।
इस महान स्वतंत्रता संग्राम की यह सच्चाई किसी से छुपी नहीं हैं कि इसका नेतृत्व नानासाहब, दिल्ली के बहादुरशाह ज़फ़र, मौलवी अहमदशाह, तात्या टोपे, खा़न बहादुरखान, रानी लक्ष्मीबाई, हज़रत महल, अज़ीमुल्लाह खा़न और शहज़ादा फिरोज़शाह ने मिलकर किया। इस संग्राम में मौलवी, पंडित, ग्रंथी, ज़मींदार, किसान, व्यापारी, वकील, नौकर, महिलाएं, छात्र और सभी जातियों-धर्मों के लोग भी शामिल हुए और जानों की कुर्बानियां दीं।
हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता के मौजूदा झंडाबरदारों को इस ऐतिहासिक सच्चाई से अवगत कराना ज़रूरी हैं कि, 11 मई, 1857 को जिस क्रांतिकारी सेना ने मुसलमान बहादुर शाह ज़फ़र को भारत का स्वतंत्र शासक घोषित किया था, उसमें 70 प्रतिशत से भी ज्यादा सैनिक हिंदू थे। बहादुरशाह ज़फ़र को बादशाह बनाने में नाना साहब, तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई ने महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई थी।
1857 के संग्राम से संबंधित समकालीन दस्तावेज़ देश के चप्पे-चप्पे पर घटी ऐसी दास्तानों से भरे पड़ें हैं, जहां मुसलमान, हिंदू और सिख इस बात की परवाह किए बिना, कि कौन नेतृत्व कर रहा है, और कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है, एक होकर लड़े और 1857 की जंगे-आज़ादी में एक साथ प्राणों की आहुति दी। उस समय की सच्चाईयां बहुत स्पष्ट रूप से यह बताती हैं कि हिंदू-मुसलमान पृथकतावाद और दोनों संप्रदायों के बीच विद्वेष का अस्तित्व उस समय एक समस्या के रूप में मौजूद नहीं था।
विभिन्न धर्मों के लोगों ने जिस तरह की साझी शहादत की दास्ताने रचीं उसके कुछ उदाहरण जो समकालीन दस्तावेज़ों में उपलब्ध हैं यहाँ पर प्रस्तुत हैं।
दिल्ली
फ़िरंगियों ने दिल्ली (जिसे 11 मई 1857 के दिन इंकलाबियों ने अंग्रेज़ी शासन से मुक्त कराके एक स्वतंत्र भारत की राजधानी घोषित किया था) पर कब्जे को अपनी नाक का सवाल बना लिया था। उनको लगता था कि अगर एक बार दिल्ली हाथ में आ गई तो पूरे देश में भड़के हुए संग्राम को दबाना मुश्किल नहीं होगा। 1857 में जून से लेकर सितम्बर माह तक अंग्रेज़ सेना ने दिल्ली की ज़र्बदस्त घेराबंदी की हुई थी और उनका लगातार यह प्रयास चला था कि दिल्ली में मौजूद इंकलाबी सेना और लोगों को धर्म के नाम पर बँटवाया जाए। लेकिन समकालीन दस्तावेज़ इस सच्चाई को रेखांकित करते हैं कि अंग्रेज़ो के खा़दिमों और जासूसों की तमाम कोशिशों के बावजूद हिंदू-मुसलमान-सिख मिलकर दिल्ली की हिफाज़त करते रहे। दिल्ली की इंक़लाबी सेना की कमान जिन लोगों के हाथों में थी उन लोगों के नाम थे अज़ीमुल्लाह ख़ान[iii], शाम सिंह दूगा, सिरधारा सिंह, ग़ौस मुहम्मद,  हीरा सिंह और 'एक दोआबी ब्राह्मण'।[iv] इंकलाबी सेना जिसे फ़िरंगी ‘पुरबिया’ सेना कहते थे उसमें भी विशाल बहुमत हिंदुओं का ही था।
हिंदू-मुसलमान एकता किस उत्तम दर्जे की थी उसका अंदाजा उस घटना से लगाया जा सकता है जब अंग्रेज़ो के हमले का मुकाबला करने के लिए शहाजहां के जमाने की एक तोप को ठीक-ठाक करके मोर्चें पर लगाया जा रहा था। इस तोप को पहली बार चलाने से पहले बहादुरशाह ज़फ़र और दूसरे सैनिक अधिकारियों की मौजूदगी में पंडितों ने इसकी आरती उतारी, मालाएं चढ़ाई और आशिर्वाद दिया।[v] अंग्रेज़ जासूस सांप्रदायिक ज़हर न फैला पाएं इसलिए इंकलाबी सेना ने दिल्ली में भी गौ-वध पर प्रतिबंध की घोषणा करते हुए यह एलान किया की जो भी ऐसा करते हुए पाया जाएगा उसे तोप से उड़ा दिया जायेगा।[vi]
हरियाण
हांसी (अब हरियाण में) में अंग्रेज़ शासकों के खि़लाफ हुकुमचंद जैन[vii] और मुनीर बेग[viii] का साझा महान प्रतिरोध इस सिलसिले का एक जीता जागता उदाहरण है। हुकुमचंद जैन, हांसी और कारनाल के कानूनगो, फ़ारसी और गणित के विद्वान और अपने क्षेत्र के एक बड़े जमींदार थे। 1857 के संग्राम की भनक मिलते ही वे दिल्ली दरबार पहुंचे जहां तात्या टोपे भी मौजूद थे। उन्होंने अपने क्षेत्र में इंकलाब का बीड़ा उठाया और अपने करीबी साथी मिर्ज़ा मुनीर बेग के साथ, जो खुद भी फ़ारसी और गणित में पारंगत थे, मिलकर सशस्त्र विद्रोह की तैयारियां शुरू की। इन दोनों ने मिलकर इंक़लाबी सेना के दिल्ली नेतृत्व के साथ मिलकर आज के हरियाणा क्षेत्र (उस दौर में भी यह क्षेत्र हरयाणा के नाम से ही जाना जाता था) को अंग्रेज़ो की दासता से मुक्त कराने की रणनीति बनाई। एक निर्णायक युद्ध में दिल्ली से सहायता न पहुंच पाने और कुछ अंग्रेज़ों के दलाल राजाओं की ग़द्दारी की वजह से इन्हें हार का सामना करना पड़ा । सितम्बर के अंत में इंकलाबियों के हाथ से दिल्ली निकल जाने के बाद इन दोनों को हांसी में गिरफ्तार किया गया और मौत की सज़ा सुनाई गई। अंग्रेज़ शासक इन दोनों से इतने खौफ़-ज़दा थे और हिंदू-मुसलमान एकता की इस शानदार मिसाल से इतने परेशान थे कि, उन्होंने 19 जनवरी 1858 को फांसी देने के बाद हुकुमचंद जैन को दफ़नाया जबकि मुनीर बेग को जलाया गया। अंग्रेज़ो द्वारा किए गए इस कुकर्म का एकमात्र उद्देश्य दो धर्मों के अनुयाइयों की एकता का मज़ाक उड़ाना और उन्हें ज़लील करना। फ़िरंगियों ने एक और शर्मनाक काम यह किया कि, बहादुर हुकुमचंद जैन के 13 वर्षीय भतीजे फ़कीरचंद जैन को भी हांसी में सार्वजनिक तौर पर फांसी दी कियों की इस बच्चे ने उन्हें फांसी देने का विरोध किया था।[ix]
अयोध्या
अयोध्या स्वतंत्र भारत में हिंदू-मुसलमानों के बीच में नफ़रत फैलाने का एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है। बाबरी मस्जिद-रामजन्म भूमि विवाद ने दोनों संप्रदायों के बीच में अविश्वास और हिंसा के माहौल को निर्मित करने में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन 1857 में इसी अयोध्या में किस तरह मौलवी और महंत व साधारण हिंदू-मुसलमान-सिख अंग्रेज़ी राज के खि़लाफ़ एक होकर लड़ते हुए फांसी के फंदो पर झूल गए इसकी अनगिनत दास्तानें हैं।
मौलाना अमीर अली[x] अयोध्या के एक मशहूर मौलवी थे और जब वहां के प्रसिद्ध हनुमानगढ़ी मंदिर के पुजारी बाबा रामचरण दास[xi] ने अंग्रेज़ो के साथ एक युद्ध में दोनों को बंदी बनाया गया और अयोध्या में कुबेर टीले पर एक इमली के पेड़ पर एक साथ फांसी पर लटका दिया गया।
अयोध्या ने ही इस संग्राम के दो विभिन्न धर्मों से संबंध रखनेवाले दो और ऐसे नायक पैदा किए जिन्होंने अंग्रेज़ फ़ौज को नाकों चने चबवा दिए। अच्छन ख़ान[xii] और शम्भुप्रसाद शुक्ला[xiii] दो दोस्त थे जिन्होंने ज़िला फै़जा़बाद में राजा देबीबक्श सिंह[xiv] की क्रांतिकारी सेना की कमान संभाली हुई थी। एक युद्ध के दौरान इनको बंदी बनाया गया, और, समकालीन सरकारी दस्तावेज इस शर्मनाक सच्चाई को उजागर करते हैं कि इन दोनों क्रांतिकारियों की जान लेने से पहले भयानक यातनाएं दी गई और दोनों के गले सार्वजनिक रूप से रेते गए।
अयोध्या जिसने हिंदू-मुसलमान एकता के पौधे को खून से सींचा था वो स्थली बाद में क्यों अंग्रेज़ शासकों की फूट डालो और राज करो नीति का एक मुख्य मुकाम बनकर उभरी, इसको समझना ज़रा भी मुश्किल नहीं है।
राजस्थान
कोटा रियासत (अब राजस्थान में) पर अंग्रेज़ परस्त महाराव का राज था। यहां के एक राजदरबारी थे, राजा जयदलाल भटनागर जो उर्दू-फ़ारसी और अंग्रेज़ी भाषाओं पर समान महारत रखते थे, इन्होंने महाराव और अंग्रेज़ शासकों के खि़लाफ बग़ावत का झंडा बुलंद किया। इस विद्रोह में इनका साथ देने वालों में प्रमुख थे,  वहां के सेनापति मेहराब ख़ान। इन लोगों ने मिलकर देश भर के अन्य क्रांतिकारी समूहों से संपर्क स्थापित किया और कोटा में अंग्रेज़ अधिकारियों और सैनिकों पर हमला बोला। बाद में ये लोग लक्ष्मीबाई के साथ कई मोर्चों पर अंग्रेज़ सेना से लोहा लेते रहे। लाला जयदलाल 1860 तक अंग्रेज़ो के हाथ नहीं लगे लेकिन उसी साल 15 अप्रैल को जयपूर में गिरफ़्तार किए गए और कोटा में 17 सितंबर 1860 को फांसी पर लटकाए गए।[xv] मेहराब खा़न को भी अंग्रेज़ 1860 में ही गिरफ़्तार कर सके और उन्हें भी कोटा में सार्वजनिक रूप से फांसी दी गई।[xvi]
केंद्रीय भारत
मालवा : मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में अंग्रेज़ फ़ौज़ो को लगातार छकाने वाली जो इंक़लाबी  सेना सक्रिय रही उसके साझे नायक तात्या टोपे, राव साहब,[xvii] फ़िरोज़शाह और मौलवी फ़ज़ल हक़ थे। इन लोगों ने मिलकर अंग्रेज़ो से जितनी लड़ाईयां जीती उस तरह की मिसालें कम ही मिलती हैं। मौली फ़ज़ल हक़ अपने 480 हिंदू-मुसलमान-सिख साथियों के साथ 17 दिसंबर, 1858 को रानौड़ के युद्ध में शहीद हुए।[xviii] तात्या टोपे 1859 तक स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करते रहे और 18 अप्रैल, 1859 को ग्वालियर के सिंध्या राजघराने की ग़द्दारी की वजह से बंदी बनाए गए और सिंध्या की रियासत में स्तिथ शिवपुरी में फांसी पर लटकाए गए।[xix] और फ़िरोज़शाह कभी भी अंग्रेज़ो के हाथ नहीं आए।[xx]
झांसी : मध्यभारत में रानी लक्ष्मीबाई के इंक़लाबी प्रतिरोध से सभी वाक़िफ़ हैं। लेकिन बहुत लोग यह नहीं जानते हैं कि रानी लक्ष्मीबाई के तोप खाने के मुखिया एक पठान, ग़ुलाम ग़ौस खा़न थे।[xxi] रानी की घुड़सवार सेना के मुखिया भी एक मुसलमान खुदाबख़्श थे।[xxii] जब झांसी पर अंग्रेज़ो ने हमला बोला तो झांसी के क़िले में रानी की सेना का नेतृत्व करते हुए दोनों 4 जून, 1858 को शहादत पा गए। इस सच्चाई से भी बहुत कम लोग वाक़िफ़ हैं कि लक्ष्मीबाई की निजी सुरक्षा अधिकारी एक मुसलमान महिला मुंदार [मुंज़र] थीं। उन्होंने रानी का साया बनकर झांसी, कूंच कालपी और ग्वालियर के युद्धों में अंग्रेज़ी सेना का मुकाबला किया। कोटा-की-सराए (ग्वालियर) युद्ध में वे लड़ते हुए रानी के साथ (18 जून, 1858) शहीद हुईं।[xxiii]
रूहेल खंड
रूहेल खंड के इलाके में खा़न बहादुर खा़न के नेतृत्व में बहादुरशाह ज़फ़र की सरकार की सहमति से स्वतंत्र राज स्थापित कर लिया गया था। खा़न बहादुर खा़न के मुख्य सहयोगी खुशीराम थे। इन्होंने मिलकर रूहेल खंड का राजकाज चलाने के लिए आठ सदस्यों वाली हिंदू और मुसलमानों की साझी समिति का गठन किया। अंग्रेज़ दोनों संप्रदायों के बीच दंगा न करा पाएं, इसके लिए एक हुक्मनामे के द्वारा गौ-वध पर प्रतिबंध लगा दिया गया। दिल्ली में इंक़लाबी शासन के पतन के बाद अंग्रेज़ो ने अपना निशाना रूहेल खंड को ही बनाया। खा़नबहादुर खा़न, खुशीराम और उनके 243 सहयोगियों को एक ही दिन (20 मार्च, 1860) को बरेली कमीश्नरी के सामने सामूहिक फांसी दी गई। अंग्रेज़ शासकों ने इन क्रंतिकारियों की अंत्येष्टी करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि इनके शव बहुत दिनों तक सूलियों पर झूलते रहे।[xxiv]
1857 के संग्राम के दौरान हिंदू-मुसलमान-सिख एकता किसी एक क्षेत्र और समूह तक सीमित नहीं थी। इन धर्मों के अनुयायियों के बीच एकता एक ज़मीनी सच्चाई थी जिस से महिलाएं भी अछूती नहीं थीं। पश्चिमी उत्तरी प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के परगना थाना-भवन में ही 11 महिलाओं को अंग्रेज़ा के खि़लाफ़ बग़ावत करने के जुर्म में एक साथ फांसी पर चढ़ाया गया। इनमें से कुछ नायिकाओं के नाम इस प्रकार हैं; असगरी बेगम जो अंग्रेज़ो के खि़लाफ़ शस्त्र विद्रोह में नेतृत्वकारी भूमिका निभाती रहीं। अंग्रेजो ने इन्हें बंदी बनाकर ज़िंदा जला दिया।[xxv] इस क्षेत्र की एक अन्य इंकलाबी महिला का नाम आशा देवी था जो गूजर परिवार में पैदा हुई। इन्हें भी अंग्रेज़ी सरकार के खि़लाफ़ हथियार उठाने के जुर्म में 1857 में फांसी दी गई।[xxvi] एक अन्य इंक़लाबी नौजवान महिला भगवती देवी थीं जो त्यागी परिवार में पैदा हुई थीं जो फांसी पर लटकाई गईं।[xxvii] इसी क्षेत्र से एक और इंक़लाबी  महिला हबीबा थीं जिनका संबंध एक मुसलमान गूजर परिवार से था। हबीबा ने अंग्रेज़ी सेना के खि़लाफ़ मुज़फ़्फ़रनगर के आसपास विभिन्न युद्धों में हिस्सा लिया और आखिरकार गिरफ़्तार करके सूली पर लटकाई गईं।[xxviii] इस क्षेत्र से एक और बहादुर शहीद महिला बख़्ततावरी थीं जिन्हें अंग्रेज़ों के विरुद्ध हथियार उठाने के जुर्म में फांसी दी गयी।[xxix] इसी क्षेत्र से एक अन्य नौजवान महिला मामकौर,[xxx] जिनका संबंध चरवाहों के परिवार से था, ने भी 1857 के संग्राम के आरंभिक दौर में ही फांसी के फंदे को चूमा। 1857 के संग्राम में देश का चप्पा-चप्पा इस तरह की दास्तानों से साक्षात करता दिखाता है।
विलियम रसल लंदन के एक अखबार ‘द टाइम्सका संवाददाता बनकर ‘बग़ावत का आँखों-देखा हाल भेजने के लिए भारत आया था । उसने  मार्च 2, 1858 को भेजी गई अपनी रपट में लिखा कि-
‘‘अवध के तमाम मुख्य सरदार चाहे वे मुसलमान हो या हिंदू, एक हो गए है और शपथ ले चुके है कि वे अपने नौजवान बादशाह, बिरजिस कदर के लिए अपने खून का आख़री क़तरा भी बहा देगें।’’[xxxi]
एक अन्य अंग्रेज़ अफ़सर, थामस लो ने मध्य भारत में अंग्रेज़ सेना के अभियानों में लगातार हिस्सेदारी की थी। उस क्षेत्र में ‘बाग़ियो’ की स्थिती का वर्णन करते हुए उसने अपने संस्मरणों में लिखा कि,
 ‘‘राजपूत, ब्राहमण, मुसलमान और मराठा, खुदा और मौहम्मद को याद करनेवाले और ब्रह्म की स्तुती करनेवाले सब इस जंग में (हमारे खि़लाफ़) थे।’[xxxii]
फ्रेड राबर्टस, एक अंग्रेज़ सेना-नायक था जो लखनऊ पर कब्ज़ा करनेवाले अभियान में शामिल था। यहां भी अंग्रेज सेना, जासूसों और षड़यंत्रों की मदद से लखनऊ में दाखिल हो सकी थी। फ्रेड ने लखनऊ पर आक्रमण की नवम्बर, 1857 की दास्तान एक पत्र में बयान करते हुए लिखा कि जब वे भाहर में दाखिल हुए तो सैकड़ों हिंदू-मुसलमान-सिख ‘बाग़ी’ बुरी तरह जख़्मी होकर सड़कों पर पड़े थे और
‘‘आगे बढ़ने के लिए उनपर चढ़कर गुज़रना होता था। वे मरते हुए भी हमारे प्रति अपनी नफ़रत का इज़हार कर रहे थे और गालियां बकते हुए कह रहे थे ‘हम बस खड़े हो जाएं फिर तुम्हें ज़िंदा नहीं छोड़ेगें’।’’[xxxiii]
ख़राब से ख़राब हालात में भी हिंदू-मुसलमान-सिख इस तरह की साझी शहादतों की अनगिनत मिसालें पूरे देश में पेश कर रहे थे। यह एकता का जज़्बा किस दर्जे का था उस का अंदाज़ा 1857 की जंग-ए-आज़ादी के इस उर्दू तराने से लगाया जा सकता है जो इस महान संघर्ष के प्रमुख रणनीतिकारों में से एक अज़ीमुल्लाह ख़ान ने रच था। यह तराना इंक़लाबी सेना का सलामी गीत भी था और दिल्ली से छपने वाले उर्दू अख़बार 'पैयाम-ए-आज़ादी' में 13 मई को छापा था।    

हम हैं इसके मालिक हिंदुस्तान हमारा
पाक वतन है क़ौम का जन्नत से भी प्यारा।

यह हमारी मिल्कियत हिंदुस्तान हमारा
इसकी रूहानियत [आध्यात्मिकता] से रोशन है जग सारा।

कितना क़दीम [प्राचीन ], कितना नईम [सुखद] सब दुनिया से न्यारा
करती है ज़रख़ेज़ [उपजाऊ] जिसे गंगो-जमन की धारा।

ऊपर बर्फ़ीला पर्वत पहरेदार हमारा
नीचे साहिल पर बजता सागर का नक़्क़ारा।

इसकी खानें उगल रहीं सोना, हीरा, पन्ना
इसकी शान-शौकत का दुनिया में जयकारा।

आया फ़िरंगी दूर से, ऐसा मंतर मारा
लूटा दोनों हाथों से प्यारा वतन हमारा।

आज शहीदों ने तुमको, अहले-वतन ललकारा
तोड़ो ग़लामी की ज़ंजीरें, बरसाओ अंगारा।

हिंदू-मुसलमान, सिख हमारा भी प्यारा-प्यारा
यह है आज़ादी का झंडा इसे सलाम हमारा।

हिंदू-मुसलमानों का एक-दूसरे के लिए मर-मिटने की दास्तानों का यह गौरवशाली इतिहास 162 साल पहले सचमुच में अस्तित्व में था। इसकी आज भी पुष्टि की जा सकती है। ये सच्चाईयां अंगे्रज़ी हुकूमत के अभिलेखागारों, लोगों के निजी संग्रहों और वृतांतों में सुरक्षित हैं। इस देश के हिंदू और मुसलमानों के बीच नफ़रत क्यों पैदा कराई गयी और किन लोगों ने इसको हवा दी इस बात को समझना जरा भी मुश्किल नहीं हैं। फ़िरंगियों का मानना था, जैसा कि उस समय के एक बड़े अंग्रेज़ अफ़सर, चाल्र्स मेटकाफ, ने कहा था कि ‘‘1857 का विद्रोह हिंदुओं और मुसलमानों का साझा काम था।’’ इस तरह स्वाभाविक है कि 1857 के संग्राम में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जर्बदस्त एकजुटता ने विदेशी शासकों की नींद हराम कर दी थी और उनकी हुकूमत खत्म होने का खतरा सर पर मंडरा रहा था। इस खतरे को हमेशा के लिए तभी टाला जा सकता था जब हिंदू और मुसलमान अलग-अलग दिशाएं पकड़ें। हिंदू और मुसलमान सांप्रदायिकता के झंडाबरदारों ने वास्तविकता में अंग्रेज़ शासकों की मदद करने के अलावा और कोई दूसरा काम नहीं किया है। हमें आज इस सच्चाई को क़तई नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि आज की साम्प्रदायिक राजनीति दरअसल 1857 के दौरान हिंदू-मुसलमान-सिख   एकता से परेशान अंग्रेज़ हाकिमों का पैंतरा था जिसे हिंदुस्तानी चाकरों ने कार्यान्वित किया और मौजूदा हिन्दुत्वादी सरकार नंगे रूप से कर रही है। इस का मुक़ाबला 1857 की महान साझी शहादतों से उपजी साझी विरासत की यादों को ताज़ा करके ही किया जा सकता है। 
शम्सुल इस्लाम
09 मई 2020
शम्सुल इस्लाम के अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, मराठी, मलयालम, कन्नड़, बंगाली, पंजाबी, गुजराती में लेखन और कुछ वीडियो साक्षात्कार/बहस के लिए देखें :
Facebook: shamsul
Twitter: @shamsforjustice
http://shamsforpeace.blogspot.com/


[i] इस महान जंग में अन्य धर्मों के लोग भी शामिल थे, जैसा हम इस वर्तान्त में जानेंगे, लेकिन समकालीन दस्तावेज़ों में इन्ही तीन समुदायों का ज़िक्र है।
[ii] Pande, BN, The Hindu Muslim Problem, Gandhi Smriti & Darshan Samiti, Delhi, p. vi.
[iii]  वही, पृ. 13.
[iv] इंक़लाबी सेना के इन हिन्दू-मुसलमान और सिख कमांडरों के नाम अंग्रेज़ों के दिल्ली में मौजूद जासूसों दुवारा अँगरेज़ फौजी अफसरों को 'पहाड़ी' (जहाँ अब हिंदुराओ अस्पताल है) पर भेजे गए खतों में कई बार मिलता है। इन के अनुसार आज़ादी के जंग लड़ने के लिए एक 'फ़ौजी कोट' का गठन किया गया था जिस में यह सैनिक अधिकारी शामिल थे। जासूसों के इन खतों के लिए देखें,   
[v] Metcalf, Charles Theophilus, Two Narratives of the Mutiny of Delhi, A Constable & Company, London, 1898, pp. 125-126.
[vi] दिल्ली में मौजूद अंग्रेज़ों के जासूस, रामजी लाल अलीपुरिया का पहाड़ी पर स्तिथ अंग्रेज़ी सेना के कैम्प को जुलाई 19, 1857 को लिखा गया पत्र, देखें, शम्सुल इस्लाम (स.), जासूसों के ख़तूत, फ़ारोस, दिल्ली, 2019, पृ. 86.  
[vii] Chopra, P. N. (Ed.), Who’s Who of Indian Martyrs 1857, Volume 3, Government of India, Delhi, 1973, p. 56. इस महत्पूर्ण संग्रह में शहीदों का ब्यौरा समकालीन सरकारी दस्तावेज़ों पर आधारित है और यह सब से विश्वसनीय मन जाता है।   
[viii] वही, पृ. 102.
[ix] वही, पृ. 102.
[x] वही, पृ. 9.
[xi] वही, पृ. 120.
[xii]  वही, पृ. 3.
[xiii] वही, पृ. 139.
[xiv] वही, पृ. 34.
[xv] वही, पृ. 62-63.
[xvi] वही, पृ. 91.
[xvii] वही, पृ. 125. वे 1862 तक अंग्रेज़ों के हाथ नहीं आए लेकिन एक मराठा रजवाड़े की जासूसी करने पर जम्मू क्षेत्र से पत्नी और बच्चे के साथ गिरफ़्तार कर लिए गए।  उन्हें कानपूर में अगस्त 20, 1862 को फांसी दी गयी।
[xviii]  वही, पृ. 115.
[xix] [वही, पृ. 116]
[xx] वही, पृ. 41-42.
[xxi] वही, पृ. 41-42.
[xxii] वही, पृ. 75.
[xxiii] वही, पृ. 102.
[xxiv] वही, पृ. 73-74, 76.
[xxv] वही, पृ. 11.
[xxvi] वही, पृ. 11.
[xxvii] वही, पृ. 21.
[xxviii] वही, पृ. 49.
[xxix] वही, पृ. 16  
[xxx] वही, पृ. 87.
[xxxi] Russell, William Howard, My Diary in India, in the Year 1858-9, vol. 1, Routledge, London, 1860, p. 244.
[xxxii] Lowe, Thomas, Central India: During the Rebellion of 1857 and 1858, Longman, London, 1860, p. 324.
[xxxiii] Roberts, Fred., Letters Written During the Mutiny, Macmillan, London, 1924, pp. 103-104.

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