पश्चिम बंगाल के ग़रीब प्रवासी मुसलमानों का गुड़गाँव से सफ़ाया: मुजरिम कौन?
मेरी
पत्नी नीलिमा शर्मा और मैं ने जीवन में कभी इतना असहाय और शर्मिंदा महसूस नहीं
किया जितना हम पिछले लगभग 20 दिनों से गुड़गाँव
में कर रहे हैं। एक ऐसा शहर जिस को हमने स्थायी रिहाइश के लिये इस कारण चुना था कि
1857 में जिस एक जगह हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों ने मिलकर सब से ज़्यादा
क़ुर्बानियाँ दी थीं, वे यही जगह थी। इस शहर में ये सब होगा डरावने सपने में भी
नहीं आया था।
पश्चिम
बंगाल के प्रवासी भारतीय मुसलमानों पर हो रहे क्रूर दमन के हम मूक दर्शक बने हुए
हैं, कुछ नहीं कर पा रहे हैं। उन्हें दिन में ही नहीं, पूरी रात सादे कपड़ों में
लोग (अक्सर गाली-गलौज करते हुए, सवाल पूछने पर
मार, कोई नहीं बता सकता कि ये पुलिस है या बजरंग दल/विश्व हिन्दू परिषद के लफ़ंगे)
घरों और सड़कों से उठाते हैं और गुड़गांव के विभिन्न पुलिस थानों में ले जाते हैं।
उन्हें अवैध प्रवासी होने के आरोप में उठाया जा रहा है। पीड़ितों ने आरोप लगाया है
कि कागज़ मांगने से पहले ही, उन्हें
घंटों बेरहमी से पीटा गया और फिर एक या एक
से ज़्यादा पुलिस थानों में ले जाकर अराजक न्याय की और ख़ुराकें दी गयीं। नौजवान
लड़कों की किस बर्बरता से खालें उधेड़ी गई हैं उन्हें देखना बड़े दिल-गुर्दे का काम
है। जहां-जहां मारा गया वहाँ मारने का एक यन्त्र रबर/प्लास्टिक के डंडे, साझा (common) थे। ये इल्ज़ाम भी लगाया गया है कि कुछ लोगों को
इलेक्ट्रिक शॉक भी दिए गए। पिटाई करने वालों का एक और कर्म साझा था और वो था यह डायलॉग: "यहाँ ममता दीदी का राज नहीं है, मोदी का राज है।"
बहुत
से लोगों को ऐसी 'क़ीमत' चुकाकर रिहा किया गया है जिसका कोई अंदाज़ा नहीं लगाया जा
सकता क्योंकि पीड़ित इसके बारे में बिल्कुल
बात नहीं करना चाहते हैं। शिकायत करने के किया परिणाम हो सकते हैं इस लिये चुप
रहने में ही भलाई है। लेकिन इंसाफ़-पसंद हिंदुओं ने इस का भंडाफोड़ किया है।
हिंदुस्तान टाइम्स में छपी 26 जुलाई की रपट के अनुसार,
“सेक्टर
48 स्थित बेलेव्यू सेंट्रल पार्क-2 के अध्यक्ष प्रभात भारद्वाज ने कहा, ‘हमारे घरेलू सहायक के परिवार को कथित तौर पर उठाकर पीटा गया।
उन्हें जाने देने के लिए ₹10,000 का
जुर्माना भी भरना पड़ा’।"
(https://www.hindustantimes.com/cities/gurugram-news/migrant-exodus-cripples-gurugram-s-daily-life-garbage-piles-up-101753466836325.html)
हिरासत
केंद्रों के बाहर बंदियों के परिवारों की महिलाओं की हालत देखने और शर्मसार करने
लायक थी। पुलिस के अनुसार, आधार और
वोटिंग कार्ड जो अब भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए 'कानूनी' दस्तावेज़
नहीं हैं, बंदियों को अपनी भारतीय नागरिकता साबित करनी है!
मैंने
16 जुलाई,
2025 को पश्चिम बंगाल रेजिडेंट कमिश्नर (सुश्री उज्जैनी
दत्ता),
डिप्टी रेजिडेंट कमिश्नर (श्री राजदीप दत्ता) और सहायक
सूचना निदेशक (श्री आशीष जाना) को निम्नलिखित पत्र लिखा था, जिसकी प्रतिलिपि सभी पीयूसीएल और उनके पदाधिकारियों को भेजी
गई थी। रेजिडेंट कमिश्नर के कार्यालय से कोई जवाब न मिलने पर, मैंने उनके कार्यालय फ़ोन नंबरों पर संपर्क करने की कोशिश की
लेकिन विफल रहा। यह लिखे जाने तक किसी ने कोई जवाब नहीं दिया है।
[अँग्रेज़ी
में 16 जुलाई 2025 को लिखे
गए पत्र का हिन्दी अनुवाद यहाँ पेश है।
नमस्कार!
मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्राध्यापक हूँ और वर्तमान में गुड़गांव में रहता हूँ।
लगभग एक पखवाड़े से स्थानीय पुलिस सादे कपड़ों में पश्चिम बंगाल के मुस्लिम युवकों को उनके घरों से उठाकर बेरहमी से पीट रही है और कह रही है कि यहाँ ममता का नहीं, मोदी का राज है। उनके माता-पिता/रिश्तेदारों को उनके ठिकाने के बारे में कुछ नहीं बताया जाता। उन्हें बुरी तरह पीटने के बाद वापस भेज दिया जाता है। कितने लापता हैं, कोई नहीं जानता।
कृपया आवश्यक कार्रवाई करें।
सादर,
शम्सुल इस्लाम
इसी
बीच हमारे परिचित पीड़ितों से पता चला कि वे लोग पश्चिम बंगाल के जिस निर्वाचन
क्षेत्र से हैं, उस का प्रतिनिधित्व तृणमूल
कांग्रेस की विधायक सुश्री रेखा रॉय करती हैं। हमें यह भी पता चला कि उनके पति
नुकुल दादा उनके मामलों का प्रबंधन करते हैं। उनके नंबर (+919775874794) पर कॉल
किया गया। वह बहुत जल्दी में लग रहे थे, उन्होंने मेरी बात
के बीच में ही फ़ोन काट दिया।
जब यह दर्दनाक
हालत कोलकाता में जनस्वास्थ आंदोलन से जुड़े डॉ. फ़ुआद हलीम को बताई तो उन्हों ने कोलकाता
के ही कामरेड अशादुल्लाह गएन (फ़ोन 9830202822) से संपर्क करा दिया जो देश भर में
पश्चिमी बंगाल से गए प्रवासी मज़दूरों के CPM से जुड़े संगठन के प्रमुख हैं। उन्हों ने सुझाव दिया कि जिन बंगाली मजदूरों को काग़ज़ात की जाँच के लिये
बंदी बनाया गया है, उन के सगे-संबंधी उन से संपर्क कर सकते हैं और उनका संगठन
डॉक्युमेंट्स के सत्यापन के लिए उनके क्षेत्र DM से तुरंत
कार्यवाही के लिए पहल करेगा। ये जानकारी काफ़ी मददगार साबित हुई लेकिन इस के लिए
जहां पीड़ित क़ैद हैं वहाँ निम्नलिखित व्यवस्था की जानी चाहिये थी।
1.
"हिरासत
केंद्रों" पर स्मार्ट फ़ोन के साथ मददगार हमदर्द जो
काग़ज़ी कार्यवाही कर सकें।
2.
महिला हमदर्द
जो परेशान महिलाओं को ढारस बांदा सकें।
3.
हमदर्द वकील।
ये काम वे संगठन कर सकते थे जिन
का ऊपर ज़िक्र किया गया है जो बदक़िस्मती से मदद करने के लिये किसी इस से ज़्यादा शर्मनाक
मौक़े का इंतज़ार कर रहे थे या वे स्वर्ग सिधार चुके थे!
हिंदुतवादी
शासकों के हिन्दुस्तानी बंगाली मुसलमानों के गुड़गाँव और पूरे हरियाणा में सफ़ाया
अभियान का और शर्मनाक पहलू है की इस्लाम और मुसलमानों की सेवा में लगे लगभग तमाम धार्मिक संगठनों ने बेरुख़ी अपनाए राखी। याद रहे
शहर के ज़्यादातर पीड़ित धर्मनिष्ठ मुसलमान हैं, पांचों वक़्त के नमाज़ी जो अपनी दरिद्रता के बावजूद बच्चों को
मजहबी तालीम दिलाने के लिये मिलकर किसी मोलवी हज़रत की पारिश्रमिक देकर सेवाएं
हासिल करते हैं। लेकिन भारतीय मुस्लिम संगठन, जो शरीयत,
तीन तलाक और पर्दा प्रथा के समर्थन में आंदोलन करने में कोई कसर
नहीं छोड़ते, वे भी इन मुसलमानों पर ढाए जा रहे ज़ुल्म के दौर
में ग़ायब हैं! इस बेरुख़ी की एक वजह यह हो सकती है के पीड़ित मुसलमान निचली जातियों से
आते हैं, यानी अजलाफ़ हैं।
बंगाली
मुसलमानों के साथ जो हुआ है और हो रहा है उसके और कई बड़ी हस्तियाँ भी मुजरिम हैं
जो आरएसएस-भाजपा शासक टोली का हिस्सा नहीं मानी जाती हैं। राज बब्बर (गुड़गांव से 2024 का संसदीय चुनाव लड़े), हरियाणा
कांग्रेस नेतृत्व (विधानसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी), और
स्वराज अभियान के योगेंद्र यादव, जिन के स्वराज अभियान की
स्थापना गुड़गाँव में ही हुई थी और 2014 का संसदीय चुनाव भी उन्हों ने यहीं से लड़
था। ये सब इस त्रासदी के दौर में इस तरह ग़ायब थे और हैं जैसे गधे के सर से सींग।
इसी
शहर में बहुत सारे मशहूर मुसलमान स्थायी निवासी हैं जो देश के ऊंचे संविधानिक पदों
पर विराजमान रहे हैं, वे अगर गुड़गाँव प्रशासन पर दबाओ बनाते तो शायद ज़ुल्म का इतना
नंगा नाच ना होता। इसी शहर में राज्य सभा के एक भूतपूर्व मेम्बर रहते हैं जिन्हों
ने INDIAN MUSLIMS FOR
CIVIL RIGHTS के झंडे तले देश भर में
सम्मेलन किये लेकिन गुड़गाँव में यह दुकान भी बंद मिली।
आरएसएस के सरकार, प्रशासन और नागरिक समाज में
प्यादे हिन्दुस्तानी बंगाली मुसलमानों की सफ़ाय योजना पर एक संयोजित ढंग से मिलकर
काम कर रहे थे। इस का अंदाज़ा निम्न दर्ज पोस्ट से लगाया जा सकता है जो हमारी
सोसाइटी के व्हाट्सप्प ग्रुप में 13-07-2025 को प्रगट हुई।
नोएडा की पॉश कालोनी महागुन सोसाइटी।
एक परिवार जिसके यहां एक बांग्लादेशी मुस्लिम महिला घरेलू नौकरानी का काम करती थी,
उन्होंने नौकरानी से शक के आधार पर पिछले काफी दिनों से घर से गायब हो रही छुटपुट वस्तुओं और पिछले दिन गायब हुए 10000 रूपये के विषय में पूछताछ की....
पहले तो नौकरानी ने साफ़ मना कर दिया पर जब परिवार ने चोरी करते हुए उसकी CCTV रिकार्डिंग का सबूत अपने पास होने की बात कही तो उसने 10000 रूपये चोरी करना स्वीकार कर लिया....
और अगले दिन पैसे लेकर आने को कहकर अपने घर लौट गयी...
परंतु परिवार ने यह बात सोसाइटी में बता दी पूरी सोसाइटी में पास की बांग्लादेशी बस्ती की बहुत सारी महिलाएं काम करती हैं पूरी सोसाइटी ने कल से उन्हें काम पर आने से मना कर दिया फलस्वरूप...
आज 12 जुलाई को प्रातः 6 बजे वह औरत अपनी पास ही में बसी बांग्लादेशियों की बस्ती से सैंकड़ो लोगों की भीड़ लेकर महागुन सोसाइटी में पहुँचती है और वो भीड़ पूरी सोसाइटी में आतंक मचा देती है "लूट लो मार दो" की आवाजें आने लगती हैं घरों और गाड़ियों में तोड़फोड़ शुरू हो जाती है.....
बाकि आप वीडियो में देख सकते हैं
कुल मिलाकर अगर आप इस घटना से सबक लेते हैं तो अपने घरों से इन बांग्लादेशी और जेहादी तत्वों को निकालिये वर्ना किसी दिन आप भी भुगतेंगे।
हम लोग ही इन्हें अपने घरों में घुसाते हैं।
⬇⬇ देखें दोनों वीडियो
इस
पोस्ट में 2 वीडियो जिन का ज़िक्र है, भी लगे थे। यह भी पता लगा कि यह पोस्ट
अलग-अलग लोगों के नाम से गुड़गाँव और दिल्ली की बहुत सारी रिहायशी बस्तियों के
व्हाट्सप्प ग्रुपस पर लगायी गई थी। सच
जानकार कोई भी स्तब्ध रह जाएगा!
जिस
घटना की बात की जा रही है वो 2017 की नोएडा की एक पॉश कालोनी महागुन सोसाइटी की है। 2017 में
ही पुलिस ने पुष्टि कर दी थी कि जिस महिला के बांग्लादेशी होने की अफ़वाह फेलाई जा
रही है, “ज़ोहरा और उनके पति दोनों बंगाल के कूच बिहार के रहने वाले हैं और एक दशक
से भी ज़्यादा समय से नोएडा में रह रहे हैं। पुलिस के अफ़सरों इस बात को खारिज कर
दिया कि वह एक अवैध बांग्लादेशी प्रवासी हैं। पुलिस ने यह भी बताया कि दोनों के
पास आधार कार्ड समेत वैध पहचान पत्र भी थे”। जहां तक चोरी करने की बात है पुलिस ने
बताया था कि उस के पास दो शिकायतें हैं, एक घर के मालिक की ओर से ज़ोहरा के विरुद्ध
चोरी की रपट और दूसरी ज़ोहरा की ओर से कि उस की पगार नहीं दी गई और जब उसने मांगी
तो कमरे में बंद कर दिया। पुलिस ने बताया की दोनों शिकायतों की तहक़ीक़ की जा रही
है।
इस
पोस्ट की एक बड़ी जालसाज़ी यह थी कि जो 2 वीडियो जो बांग्लादेशियों के हमले के सबूत
के तौर पर पेश किये गए थे वे 2022 के एक ऐसी सोसाइटी के थे जहां सुरक्षा कर्मियों
के 2 गुटों में बलवा हुआ था। हम ने कोशिश की कि इस पर क़ानूनी कार्रवाई हो, लेकिन
कुछ न हो सका क्यों की जिस नागरिक अधिकार संगठन से निवेदन किया गया था उस ने इसे
कोई बड़ा मुद्दा नहीं माना।
यह सच
है कि जुलाई के अनंत आते-आते कुछ हमदर्द लोगों के संदेश आने लगे और कुछ संगठन
पीड़ितों का दुखड़ा सुनने गुड़गाँव आने लगे। काफ़ी देर हो चुकी थी, अगर यही हस्तक्षेप
20 दिन पहले हो जाता तो पीड़ितों को ढारस बंधती, ज़ुल्म कुछ कम होता और बंगाली
मुसलमान आम पलायन के बारे में नहीं सोचते।
25 जुलाई को, सीपीआई(एमएल) के महासचिव कॉ. दीपंकर भट्टाचार्य ने राजनीतिक कार्यकर्ताओं, वकीलों, पत्रकारों और चिंतित नागरिकों के एक प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करते हुए गुरुग्राम का दौरा किया। प्रतिनिधिमंडल ने डिटेंशन सेंटर्स का निरीक्षण किया, प्रभावित मजदूरों और संबंधित अधिकारियों से मुलाकात की।
इस
दौरे की एक रपट जारी कि गई जिस में बताया गया कि हालांकि नागरिक समाज, प्रगतिशील मीडिया और राजनीतिक नेताओं के दबाव के चलते बंदियों को रिहा किया गया, लेकिन अधिकारियों ने यह स्पष्ट नहीं किया कि “विदेशी” पहचाने जाने का आधार क्या था। डीसीपी कार्यालय में यह पुष्टि की गई कि गृह मंत्रालय (एमएचए) के निर्देश पर सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में यह प्रक्रिया शुरू की गई थी, जो कि इस तरह की पहली कार्रवाई थी। लेकिन यह आदेश न तो सार्वजनिक डोमेन में है और न ही डीसीपी कार्यालय ने इसे प्रतिनिधिमंडल के साथ साझा किया। अधिकारियों ने इस प्रक्रिया के कानूनी आधार या इसके लिए अपनाई गई मानक संचालन प्रक्रिया के बारे में कोई स्पष्ट और संतोषजनक जानकारी नहीं दी।
प्रतिनिधिमंडल को मजदूरों से बातचीत में यह पता चला कि अधिकांश गिरफ्तारियां साढ़े कपड़ों में आए लोगों द्वारा की गईं, जो स्वयं को पुलिसकर्मी बता रहे थे, लेकिन उनके पास कोई पहचान पत्र या बैज नहीं था, और वे बिना नंबर की गाड़ियों में आए थे। विभिन्न इलाकों से कई लोगों को उठा कर अलग-अलग डिटेंशन या होल्डिंग सेंटर्स में ले जाया गया।
उन्हें नागरिकता साबित करने को कहा गया, लेकिन आधार कार्ड, वोटर आईडी, राशन कार्ड, पैन कार्ड आदि को पर्याप्त नहीं माना गया। कुछ को एक हफ्ते तक थानों में रखा गया, और इस दौरान पुलिस प्रताड़ना, शारीरिक हिंसा तथा यह कहने के लिए दबाव दिया गया कि उनकी बस्ती के कुछ लोग "बांग्लादेशी" हैं, ताकि वे रिहा हो सकें।
यह भी
बताया गया कि प्रशासन संदिग्ध लोगों की पहचान मनमाने ढंग से कर रहा है — जैसे बंगाली बोलना, मुस्लिम नाम होना, या मज़दूर बस्ती में रहना। जब अधिकारियों से प्रक्रिया के बारे में सवाल किया गया तो उनका पूर्वग्रह और भेदभावपूर्ण रुख स्पष्ट रूप से सामने आया। सेक्टर 49 के बंगाली बाज़ार में मज़दूरों ने बताया कि पुलिस ने उन्हें 1
जुलाई तक का समय दिया था,
उसके बाद डिटेंशन की धमकी दी गई थी।
27 जुलाई को ‘मशहूर’ नागरिक अधिकार
ऐक्टिविस्ट, नदीम ख़ान जो United Against Hate के संस्थापक हैं और Association for Protection of Civil Rights मुखिया ने गुड़गाँव का दौरा किया और बताया:
“मैं पिछले दो दिनों से गुड़गांव में हूँ, और मेरी टीम शुक्रवार को भी यहाँ थी। गुड़गांव में लगभग 2 लाख बंगाली भाषी मुसलमान हैं, जिन्हें निशाना बनाया जा रहा है, खासकर चक्करपुर, बादशाहपुर और सेक्टर 49 में। अकेले सेक्टर 49 में 15,000 निवासी थे, लेकिन अब केवल कुछ सौ ही बचे हैं - लोग या तो चले गए हैं या जाने का इंतज़ार कर रहे हैं।
“फ़िलहाल, किसी को हिरासत में नहीं लिया गया है, लेकिन पुलिस की बर्बरता ने समुदाय को भयभीत कर दिया है। पहले दिन, मैंने अजीत अंजुम के साथ एक साक्षात्कार की व्यवस्था की और कल रेड माइक के साथ समन्वय किया, लेकिन मूल मुद्दा अभी भी बना हुआ है - कोई भी अदालत जाने को तैयार नहीं है, जिससे स्थिति बेकाबू होती जा रही है। आज भी, नज़रबंदी से रिहा हुए लोगों से अदालत जाने को कहा गया, लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। सबसे बड़ी निराशा बंगाल सरकार की चुप्पी रही है। लोगों ने महुआ मोइत्रा समेत कई नेताओं को फ़ोन किया, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। हर्ष मंदर और मैं परसों कोलकाता जा रहे हैं और इस पूरे मुद्दे पर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करेंगे।”
ये
दावा करना कि “नागरिक समाज, प्रगतिशील मीडिया और राजनीतिक नेताओं के दबाव के चलते बंदियों को रिहा किया गया” और “फ़िलहाल किसी को हिरासत में नहीं लिया गया” को अतिशयोक्ति
ही कहा जा सकता है। फ़िलहाल हरियाणा सरकार और पुलिस की खुली गुंडागर्दी को इस लिये
लगाम लगी है क्यों की जिन बंगाली मुसलमानों की व्यापक ग़ैर-कानूनी गिरफ्तारियों और
उनपर बर्बर दमन ने उन्हें आम पलायन के लिये मजबूर कर दिया है वे ऐसे लाखों लोग थे
जो इस शहर की गंदगी को ढोकर दूर कूड़ा डलाओ तक ले जाते थे, 100 से 200 रुपए रोज़ पर। इनकी औरतें अमीरों और मध्य-वर्गों के लाखों
घरों में दिन में 3-4 घरों में, कम से कम दो बार झाड़ू-पोंछा और शौचालयों को साफ़
करती थीं (जिन का प्रयोग इन के लिये वर्जित ही), 2000 से 3000 रूपों के प्रति
महीना वेतन पर। क़ौमी और धार्मिक त्योहारों पर अवकाश सब निवासियों के लिये होते,
इनके लिये नहीं क्यों की त्योहारों पर तो मेहमान आते हैं, ‘बाई’ को छुट्टी कैसे दी
जा सकती है। महीना तो छोड़िये साल में कितने अवकाश होंगे उस की जानकारी कम से कम
नौकरानी को तो नहीं होती है!
इनके
जाने पर हिन्दुत्ववादी टोली के शाकंजे में फंसे शहर का क्या हाल हुआ उस के बारे
में देश के एक प्रमुख अँग्रेज़ी अख़बार [हिंदुस्तान टाइम्स, जुलाई 26] की यह रपट
बहुत कुछ बता देती है:
“गुरुग्राम
में एक नागरिक और मानवीय संकट चुपचाप सामने आ रहा है। इसके आलीशान अपार्टमेंट और
गेटेड कॉलोनियों में, ये निशान हर
जगह दिखाई देते हैं—बिना इकट्ठा किया गया कचरा, बदबूदार
गलियारे, और घर के काम निपटाने में जुटे परिवार। पिछले
हफ़्ते, सैकड़ों सफ़ाई कर्मचारी, घरेलू
नौकर और दिहाड़ी मज़दूर—जिनमें से कई पश्चिम बंगाल और असम से आए प्रवासी
हैं—बांग्लादेश से आए कथित अवैध प्रवासियों को निशाना बनाकर पुलिस द्वारा चलाए जा
रहे सत्यापन अभियान के बीच शहर छोड़कर चले गए हैं..उत्पीड़न और मनमाने ढंग से
हिरासत में लिए जाने के डर से, कई लोग रातोंरात अपना सामान
बांधकर चले गए, जिससे प्रमुख नागरिक सेवाएं बाधित हुईं और
रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन (आरडब्ल्यूए) तथा गुरुग्राम नगर निगम (एमसीजी) दोनों
संकट की स्थिति में पहुंच गए।”
गुड़गाँव
में जो कुछ हो रहा है, वह कल्पना से परे है। कई तिपहिया वाहन मालिकों को यात्रियों को ले जाते समय उठा लिया गया। किसी को नहीं पता कि वाहन कहाँ हैं। एक और बात यह है कि पश्चिम बंगाल सरकार बंगाली मुसलमानों के लिए एक दस्तावेज़ जारी कर रही है कि वाहन चालक भारतीय नागरिक है, जिसके आधार पर वह व्यक्ति हरियाणा में काम कर सकता है। यह भारत के उत्तर-पूर्व के इलाकों में जाने के लिए जारी किए जाने वाले इनरलाइन परमिट जैसा लगता है। इसलिए पश्चिम बंगाल के मुसलमान रंगभेदी शासन के अधीन रहने वाले हैं।
हमारा
देश विभाजनों के झेलता रहा है। बंगाल विभाजन 1905-1911 और 1947 में देश के बंटवारे
से हम सब परिचित हैं। ये विदेशी शासकों के बांटो और राज करो ब्रह्मसत्र का परिणाम
थे। गुड़गाँव में जुलाई 2025 में जो हो रहा है वो भी एक बंटवारा ही है जी आज़ाद
हिंदुस्तान के शासकों जिन्हों ने देश के जनतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष को सुरक्षित
रखने की शपथ ली है ने प्रायोजित किया है। आरएसएस-भाजपा राज में यह पहला विभाजन
नहीं है। 2002 में यह मंडली गुजरात के बड़े शहरों जैसे कि अहमदाबाद को धर्म के आधार
पर बाँट चुकी है।
गुड़गाँव
से हिन्दुस्तानी मुसलमानों के साफ़ाये सी जुड़ा चौंकाने वाला एक पहलू चर्चा में नहीं
आया है। कुरसठ फाउंडेशन (उत्तर प्रदेश के उन्नाओ ज़िले के ग्रामीण इलाक़े में
लड़कियों के सशक्तीकरण के लिए प्रतिबद्ध जन समूह) से जुड़े साथी शिशु प्रजापति ने इस ओर ध्यान दिलाया है। उन के
अनुसार गुड़गाँव में जो कुछ हो रहा है वे हिन्दुत्व-वादी शासकों की मुसलमान विरोधी
विचारधारा का मूर्त रूप तो है ही लेकिन इस से भी ज़्यादा यह असंगठित क्षेत्र की
करोड़ों नौकरियों का निगमीकरण (corporatization) करना है। इन नौकरियों की आपूर्ति और माँग (supply &
demand) मज़दूर और काम देने वाले के बीच सीधे संपर्क से होता
है, कोई बिचोलिया नहीं। गुड़गाँव में सफ़ाई और घरेलू नौकरों के पलायन के साथ ही
सड़कें और सोशल मीडिया ऐसे Apps से भर गया है जो इन कामों के
लिए मज़दूर उपलब्ध करा सकते हैं, पर महंगे दाम देने होंगे। इन नौकरियों के लिए देश
के सब से बड़े सर्विस प्रवाइडर URBAN COMPANY ने लड़कियों को प्रशिक्षण देने की योजनाओं (packages)
की भी घोषणा कर दी है।
शम्सुल
इस्लाम
30-07-2025
ईमेल: notoinjustice@gmail.com